Saturday, 3 October 2020

महात्मा गांधी को उनकी 150 वीं जयंती पर स्मरण करते हुये / विजय शंकर सिंह



आज महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती है और कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें स्मरण कर रहा है। दुनियाभर में 2 अक्टूबर का दिन अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 15 जून, 2007 को एक प्रस्ताव पारित कर दुनिया से यह आग्रह किया था कि वह शांति और अहिंसा के विचार पर अमल करे और महात्मा गाँधी के जन्म दिवस को "अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाए।

महात्मा गाँधी ने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्त्व किया था और अहिंसा के दर्शन का प्रचार किया। गांधी बीसवीं सदी के ऐसे महान व्यक्तित्व थे, जिन्होंने, राजनीति, समाज, अर्थनीति, दर्शन सहित दुनियाभर के विचारों पर अपनी छाप छोड़ी। वे केवल एक राजनेता ही नही थे। यह माना जाता है कि अहिंसा के दर्शन का विकास महात्मा गाँधी ने प्रसिद्ध रूसी लेखक लेव तोलस्तोय के विचारों से प्रभावित होकर किया था।

अहिंसा की नीति के ज़रिए विश्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा देने के महात्मा गाँधी के योगदान को सराहने के लिए ही इस दिन को 'अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में मनाने का फ़ैसला विश्व पंचायत में किया गया। इस संदर्भ में 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' में भारत द्वारा रखे गए प्रस्ताव का समर्थन उत्साहपूर्वक किया गया। संयुक्त राष्ट्र महासभा के कुल 191 सदस्य देशों में से 140 से भी ज़्यादा देशों ने इस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया। इनमें अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान जैसे भारत के पड़ोसी देशों के अलावा अफ़्रीका और अमरीका महाद्वीप के कई देश भी शामिल थे।

मौजूदा विश्व व्यवस्था में अहिंसा की सार्थकता को मानते हुए बिना वोटिंग के ही सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को पारित कर दिया गया था। 15 जून, 2007 को महासभा द्वारा पारित संकल्प में कहा गया कि-

"शिक्षा के माध्यम से जनता के बीच अहिंसा का व्यापक प्रसार किया जाएगा।" संकल्प यह भी पुष्ट करता है कि "अहिंसा के सिद्धांत की सार्वभौमिक प्रासंगिकता एवं शांति, सहिष्णुता तथा संस्कृति को अहिंसा द्वारा सुरक्षित रखा जाए।"

जब गांधी याद आएंगे तो गोडसे भी याद आएगा। जब गोडसे याद आएगा तो गोडसे के पीछे खड़ा गांधी हत्या का पूरा षडयंत्र भी याद आ जाएगा। जब यह सब याद आएगा तो इतिहास के अनेक वे पल भी बरबस याद आ जाएंगे, जिनकी टीस आज भी उन ज़ख्मो को हरा कर देती है, जो हमने आज़ादी के वक़्त खाये थे। कुछ लोग गांधी को गोडसे की चश्मे से देखने की कोशिश करेंगे और कुछ गांधी को उनके समग्र व्यक्तित्व में ढूंढेंगे। पर गांधी का विरोध हो, या समर्थन, उनमे देवत्व ढूंढा जाय या कुछ और, लेकिन गांधी भुला दिए जाने वाली शख्सियत नहीं है। गांधी जी से मिले, उनसे बोले बतियाये और देखे लोगो के संस्मरण मैं जब भी पढ़ता हूँ तो मुझे अल्बर्ट आइंस्टीन का वही कालजयी शोक संदेश याद आता है जो उन्होंने गांधी जी हत्या पर कहा था। उन्होंने कहा था, आने वाली पीढियां मुश्किल से यक़ीन कर पाएंगी कि, हाड़ मांस का कोई पुतला इस धरती पर कभी था भी। दुनिया मे कम ही ऐसे देश होंगे जहां गांधी की प्रतिमा न हो और उनकी याद में कोई स्मारक न हो।

गांधी के शरीर पर भी हमला उन्ही के देश मे किया गया, हत्या भी यहीं हुयी और उनके विचारों के खिलाफ भी सबसे अधिक विरोध और दुष्प्रचार भारत मे ही फैलाया गया और अब भी फैलाया जा रहा है। यह कोशिश अब भी जारी है कि उन्हें किसी खांचे में समेट दिया जाय। पर गांधी सिमटते ही नहीं। वे तो खुशबू की तरह हवा में बिखर गए हैं। यह लोकतांत्रिक मानसिकता, बहुलतावादी सोच और हमारी समृद्ध सभ्यता और संस्कृति की महानता है कि हम किसी भी विचार को जस का तस स्वीकार नही करते हैं। बहस और शास्त्रार्थ की यह समृद्ध परंपरा हमे तथ्यान्वेषण की ओर तत्पर और विचारोत्तेजक बनाये रहती है। अमर्त्य सेन के शब्दों में कहूँ तो, हम सब आर्ग्यूमेंटेटिव, बहस प्रिय भारतीय है। हमारे अंदर का नचिकेता अब भी सक्रिय है। गांधी पर हिंदी के प्रख्यात लेखक नरेश मेहता ने अपने एक प्रसिद्ध उपन्यास, वह पथ बंधु था में एक वाक्य लिखा है जो मुझे बरबस याद आ जाता है। वाक्य है, " धर्म के क्षेत्र में बुद्ध ने, साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने भारतीय मानस को जितनी गहराई से प्रभावित किया वह अद्भुत है।"

महात्मा गांधी की 150 वी जयंती पर गांधी जी का विनम्र स्मरण और पत्रकारिता के संदर्भ में उनका एक उद्धरण पढ़े,

"अख़बारों की नफरत पैदा करनेवाली बातों से भरी हुई कुछ कतरनें मेरे सामने पड़ी हैं. इनमें सांप्रदायिक उत्तेजना, सफेद झूठ और खून-खराबे के लिए उकसानेवाली राजनीतिक हिंसा के लिए प्रेरित करनेवाली बातें हैं. निस्संदेह सरकार के लिए मुकदमे चलाना या दमनकारी अध्यादेश जारी करना बिल्कुल आसान है. पर ये उपाय ऐसे लेखकों का हृदय-परिवर्तन तो कतई नहीं करते, क्योंकि जब उनके हाथ में अख़बार जैसा प्रकट माध्यम नहीं रह जाता, तो वे अक्सर गुप्त रूप से प्रचार का सहारा लेते हैं.’

इसका वास्तविक इलाज तो वह स्वस्थ लोकमत है, जो विषैले समाचार-पत्रों को प्रश्रय देने से इनकार करता है. हमारे यहां पत्रकार संघ है. वह एक ऐसा विभाग क्यों न खोले, जिसका काम विभिन्न समाचार-पत्रों को देखना और आपत्तिजनक लेख मिलनेपर उन पत्रों के संपादकों का ध्यान उस ओर दिलाना हो? दोषी समाचार-पत्रों के साथ संपर्क स्थापित करना और जहां ऐसे संपर्क से इच्छित सुधार न हो, वहां उन आपत्तिजनक लेखों की प्रकट आलोचना करना ही इस विभाग का काम होगा.

अख़बारों की स्वतंत्रता एक बहुमूल्य अधिकार है और कोई भी देश इस अधिकार को छोड़ नहीं सकता. लेकिन यदि इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने की कोई सख्त कानूनी व्यवस्था न हो, केवल बहुत नरम किस्म की कानूनी व्यवस्था हो, जैसा कि उचित भी है, तो भी मैंने जैसा सुझाया है, रोकथाम की एक आंतरिक व्यवस्था करना असंभव नहीं होना चाहिए और उसपर लोगों को नाराज भी नहीं होना चाहिए। "

( विजय शंकर सिंह )



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