Saturday, 31 October 2020

शब्दवेध (6) हिंडोलन से आन्दोलन तक

हम भाषा या समाज के सिरे से  विचार करते हैं तो यह बात समझ में नहीं आती  कि वैचारिक खलबली  बहुधा उस भू-भाग में क्यों  पैदा होती रही है, जिसमें सिमटे रह जाने पर वह यदि लुप्त न हुई तो सिकुड़ कर, समाज पर भार बन जाती है और सारस्वत क्षेत्र तक पहुँची तो आन्दोलन बन कर देश-देशान्तर में फैल जाती रही है। गंगा घाटी की महानगरी भी तीन लोक से न्यारी या दुनिया से कटी हुई है, सरस्वती घाटी के नगरों की पुरानी संज्ञा का पता नहीं चलता, परन्तु सरस्वती और इसके अनुपयोगी हो जाने के बाद सिंधु तटीय नगर एक विशाल क्षेत्र में साझी विरासत के बाद भी एस दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए आगे बढ़ने के प्रयत्न में दूसरों को मिटा देने को तैयार रहते हैं। गंगाघाटी का टकराव परस्पर विरोधी है, प्रतिस्पर्धी नहीं।  विरोध का आधार दार्शनिक है जिसे हम  प्रकृतिवाद और प्रगतिवाद के बीच द्वन्द्व के या सनातन विरोध के रूप में लक्ष्य करते हैं।

सरस्वती घाटी में जिस चरण  पर हम पहली बार इसे लक्ष्य करते हैं, दार्शनिक दृष्टिकोण में अधिक परिवर्तन नहीं आता, परंतु यह विरोध की जगह  समायोजन का रूप ले लेता है जिसमें समय-समय पर  अपने आर्थिक अधिकारों का टकराव तो बना रहता है,  परन्तु असहयोग नहीं दिखाई देता।   यह चरण कई हजार साल बाद का है,  परंतु इसका मुख्य कारण आर्थिक गतिविधियों के चरित्र में आया अंतर है,  क्योंकि  मध्य उत्तर गंगा घाटी में यह कई हजार साल बाद भी विक्षोभ,  विरोध,  और  विरक्ति में परिणत हो जाता है। सामाजिक न्याय का आग्रह भी  इसी में अधिक दिखाई देता है जो सरस्वती  घाटी में सतह पर आता दिखाई नहीं देता।  

ऋग्वेद में  प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता के सभी क्षेत्रों में सैद्धांतिक ज्ञान और अमल  असुरों के हाथ में रहता है,  जो  कृषि कर्म से परहेज करते हैं। वे सभी आविष्कार और उपक्रम  जिन पर सरस्वती-सिंधु सभ्यता  गर्व करती है उन लोगों के हाथ में है  जिनको  पहले राक्षस  और फिर बाद में   असुर  के  समावेशी नाम से जाना जाता है।   लाभ में  हिस्सेदारी को लेकर हिंसक टकराव यहां भी देखने में आता है,  और   नौवहन पर भी इनका ही अधिकार होने के कारण प्राग वैदिक चरण पर ही वैदिक  स्वामी वर्ग  से उत्पीड़ित  एक जत्था  दूर कहीं भी  आश्रय तलाश करने के लिए रवाना होता है, और  इस अभियान से आरंभ होती है विश्व की पहली नगर सभ्यता।

कहानी विचित्र है, परंतु इसका ध्यान आ गया  तो इसे  आपके साथ साझा करना जरूरी लगा।  सुमेरिया में भी अपने  वैचारिक  आग्रहों के कारण, वे खेती नहीं कर सकते।  मनुष्य द्वारा उपजाए गए, अनाज और फल  के आदी हो जाने के बाद  उन्हें  वह उत्पाद चाहिए,  परंतु  कृषि-कर्म नहीं।  इसके लिए स्थानीय आबादी को नियंत्रित करने का तरीका अपनी  जादुई  शक्ति का प्रचार करके  समाज के पुरोधा बन कर, उन्हें मानसिक रूप में अपना दास बनाते हुए, यह दावा करते हुए कि इनका सीधा संपर्क देवताओं से है, अपने निवास के लिए उनके श्रम और अपनी दक्षता के बल पर ‘गगनचुंबी’ जिगुरात बनाते हुए राज करते रहे। इनकी जादुई शक्ति  की धाक  स्थानीय निवासियों पर  इनके पहुंचने के साथ ही जम गई थी,  जब उन्हें पता चला कि ये  समुद्र में भी उसी तरह रह  सकते हैं जैसे जमीन पर। 

इस कहानी के विस्तार में नहीं जाएंगे,  इतना ही संकेत पर्याप्त है कि यह ऋग्वेद में आए प्रतीकात्मक कथाओं में,   विश्वरूपा के निपट भोगवादी  आचार के कारण  उसके वध,  त्वष्टा से उसके संबंध, त्वष्टा द्वारा प्रतिहिंसा,  बलि और वामन की कथा और वैदिक  साहित्य में  दोहराए गए  इस प्रसंग से  कि असुरों ने ही पहली बार सुदूर  क्षेत्र में नगर बसाए, जो उनकी भाषा में इस लोक में तो था ही द्युलोक और अंतरिक्ष में भी था (असुराणां एषु लोकेषु पुर आसन् अयस्मय अस्मिंल्लोके रजतान्तरिक्षे हरिणी दिवि, ते देवा संस्तम्भं संस्तम्भं पराजयन्ता ह्यासं स्त एताः प्रतिपुरोऽमिन्वत,...3.8.1) आदि अनेक प्रतीक कथाओं में झलकता है।  

रोचक बात यह कि  यदि  पुरातत्व का सहारा न लेकर  केवल साहित्य के मर्म विश्लेषण से  इतिहास लिखा जाता  तो भी  यह  दावा  किया जा सकता था  कि भारत में  नगर सभ्यता  बहुत प्राचीन काल में थी परंतु इससे  पहले ही कहीं अन्यत्र नगर बसाए जा चुके थे।

हम अपने  मुख्य विषय से  भटक गए।   कहना केवल यह चाहते  थे सरस्वती सभ्यता में  असुरों की भूमिका, दार्शनिक  कट्टरता  और  आर्थिक  भागीदारी को लेकर,  तनाव के बावजूद, विरोधी नहीं है, विज्ञान विरोधी नहीं है,, उत्पादन विरोधी नहीं है, जबकि गंगा घाटी में आज तक प्रधान समस्या मुख्यतः समाजिक कुसमायोजन की दिखाई देती है, परंतु इसका आर्थिक पक्ष दबा रह जाता है। इसका प्रधान कारण यह है कि कृषि आधारित होने के कारण इसमें ठहराव है, जमीन से जुड़ाव है और इसका एस कारण यह भी है कि उन्हीं असुरों की तकनीकी दक्षता को इसमें उचित प्रोत्साहन न मिल सका जो व्यापारिक कारणों से सारस्वत क्षेत्र में मिला। दूसरे देशों में जिस दौर में गाड़ी में, पहिए में, जोताई और खोदाई, कताई, जल प्रबंधन और भूमि प्रबंधन आदि में नए प्रयाेग और आविष्कार हुए भारत में ऐसा संभव न हुआ क्योंकि तकनीकी दक्षता रखने वालों की हिस्सेदारी उत्साहवर्धक न थी जो पहल और प्रयोग की जननी है।  यहाँ तक कि अपने हिस्से के लिए उन्होंने कभी कोई आंदोलन नहीं किया। वह टकराव तक नहीं हुआ जो सारस्वत  क्षेत्र में  दिखाई देता है। 

 जो भी हो यहां  विरोध और  विक्षोभ  का एक आधार  पुराने विश्वास को लेकर था।  पुराने ओझा जादू -टोने,  और  तंत्र मंत्र में सिद्धि पाने का दावा करते  थे जिसकी  कृषि कर्मी और वैदिक समाज कृत्या, मायाचार,   जादू  कह  कर निंदा करता था।  ऐसे लोगों को यातुधान कह कर उनसे परहेज करता था।  ये हठसाधना, नर बलि, पशुबलि से विलक्षण कारनामों का विश्वास दिलाते हुए   शैव और शाक्त  परंपराओं के रूप में आदिम कालीन स्वच्छंदता  के साथ,  उत्पादक श्रम से मुक्त रह कर भी परजीवी के रूप में बने रहे।  ब्राह्मणत्व से प्रतिस्पर्धा करते हुए ये अपनी प्रतिष्ठा के लिए जब तब हलचल मचाते रहे उसे भ्रमवश सामाजिक न्याय का आंदोलन मान लिया जाता है परंतु  निकट से देखने पर इसकी पुष्टि नहीं होती।  इन्हें आंदोलन कहने के स्थान पर हिंडोलन कहना अधिक उपयुक्त है।

मानवतावादी सरोकारों से जो आंदोलन आरंभ हुए उनके नैतिक औचित्य और आर्थिक उपादेयता के कारण ही इनका प्रसार सारस्वत क्षेत्र तक हुआ और यदि वे व्यापारिक पर्यावरण को अनुकूल बनाने में सहायक हुए तो उनके प्रसार के संगठित प्रयत्न हुए और  इनको आर्थिक समर्थन वणिकों की ओर से मिला।

सारस्वत चरण पर राजस्थान का अधिकांश भाग उर्वर था। व्यापारिक गतिविधियों में राजस्थानियों की संलग्नता अधिक रही लगती है।  सिंध और गुजरात खेती के पशुश्रम पर और आगे परिवहन के साधनों के रूप में उनके उपयोग के कारण पनपे पशु व्यापार के चलते प्रमुख व्यापारियों के रूप में आगे बढ़े। बाद में उस सभ्यता के बुरे दिन आए, कई शताब्दी तक प्राकृतिक विपर्यय के कारण राजस्थान रजस्थान या रेगिस्तान में बदल गया फिर भी आज तक व्यापारिक और औद्योगिक गतिविधियों में मारवाड़ी, सिंधी और गुजराती ही बने रहे। सारस्वत क्षेत्र में पहुँचने के बाद कोई दर्शन और  भाषा क्यों अखिल भारतीय स्वीकार्यता और प्रसार पा जाती है इसका कारण, हमारी समझ से उसका उस तंत्र से जुड़ना है जो अनेक इतर रहस्यमय कारणों से यदि पिछले आठ हजार साल से नहीं तो भी पाँच हजार साल से आज तक सक्रिय है। 

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

No comments:

Post a Comment