हिंदी से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद भी, मैं हिंदी नहीं बोल पाता था । हिंदी मेरे लिखने की भाषा थी, बोलने की भाषा भोजपुरी, भोजपुरी में भी मल्लिका, यद्यपि मैं स्वयं इस नाम से परिचित नहीं था। इसका ज्ञान मुझे बहुत बाद में भोजपुरी के अधिकारी विद्वान, जगन्नाथ मणि त्रिपाठी के माध्यम से हुआ कि भोजपुरी अकेली ऐसी बोली है जिसकी तीन उपबोलियां है - मल्लिका, काशिका और बज्जिका।
मैं भोजपुरी इसलिए बोलता था कि भोजपुरी के प्रवाह और माधुर्य के सामने हिंदी एक नकली, भीतर से खोखली और व्यंजना में कमजोर, मुहावरों लोकोक्तियां के व्यवहार के मामले में कृपण और इसलिए लड़ खड़ाती हुई भाषा प्रतीत होती थी। भोजपुरी के क्षेत्र विस्तार के विषय में मेरी जानकारी कम थी पर तो भी चाहता था कि भोजपुरी का अध्ययन विश्वविद्यालय स्तर तक होना चाहिए, परंतु यह नहीं सोचा था कि इसका मानक रूप कौन सा होना चाहिए?
भोजपुरी क्षेत्र से बाहर निकलने पर बोली के प्रति यह आसक्ति तो कम होनी ही थी, धीरे धीरे भोजपुरी के संदर्भ में दूसरी समस्याएं, जिनके विषय में क्षीण असंतोष पहले भी था, प्रधान होती गई, और उसकी वे विशेषताएं जिन पर मुझे गर्व था, केवल भोजपुरी तक सीमित नहीं थीं, वे सभी बोलियों की विशेषताएँ हैं, और भाषा के पिछड़ेपन का द्योतक हैं। उदाहरण के लिए, पिछड़ी अवस्थाओं में विशिष्ट वस्तुओं और क्रियाओं के लिए अलग शब्द थे परंतु वे जिस वर्ग से संबंधित थीं उनके लिए कोई सामान्य (जातिवाचक) शब्द नहीं हुआ करता था, यह विद्वानों का मानना है और मोटे तौर पर ही सही है, कारण भाषा की उन्नत अवस्था में क्रिया, गुण और संज्ञा में अंतर करने के लिए हमें सूक्ष्म अर्थभेदक शब्दों की आवश्यकता होती है, यदि उनके उपयुक्त व्यंजना नहीं होती तो बनावटी शब्द तैयार करने होते हैं, जो भाषा की मूल प्रकृति से मेल नहीं खाते। जातिवाचक शब्दों का नितांत प्राथमिक अवस्था में अभाव पिछड़ी बोलियों की कमी है तो प्रयत्न के बाद भी अर्थभेदक पदों का अभाव उन्नत भाषाओं की कमी। उदाहरण के लिए भोजपुरी के मेल्हल, मकलाइल, भचकल, भहराइल, कोड़राइल, हुमचल, अगराइल, लइकोर के समान व्यजना के शब्द हिंदी में नहीं मिलेंगे, इनमें से अनेक को हिंदी शब्दसंपदा का अंग बनाया गया है, व्यंजकता के ह्रास के साथ।
जो भी हो मेरा ध्यान बाद में भोजपुरी की कमियों की ओर अधिक था और सबसे बड़ी बात है तीन उपबोलियों वाली एक विशाल क्षेत्र में फैली होने के बाद भी इसमें साहित्यिक अपेक्षाओं को पूरी करने वाली कोई रचना हुई नहीं, जबकि छोटी भाषाओं में ऐसे रचनाकार हुए हैं जिनकी कृतियों को अपनाकर हिंदी गौरवान्वित अनुभव करती है। यह तब और आश्चर्यजनक लगता है जब हम पाते हैं कि ज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे लंबी आयु वाला केंद्र काशी इसी के क्षेत्र में पड़ता है। देश देशान्तर मे काशी वासी विद्वान दैनिक व्यवहार में भोजपुरी बोलते थे।
इसके बोलने वालों की संख्या और क्षेत्र विस्तार को देखते हुए इस बात पर भी हैरानी होती है सूफी कवियों में भी किसी ने भोजपुरी को माध्यम बनाकर किसी कृति का सृजन नहीं किया।
पहले इसका कारण समझ में नहीं आता था। यह समझने में समय लगा कि ठेठ भोजपुरी में अपना व्याख्यान देने वाले लालू प्रसाद यादव श्रोताओं को मसखरे जैसे क्यों लगते हैं? कारण यह है अन्य बोलियों की अपेक्षा भोजपुरी बहुत पिछड़ी हुई है।
जिस मगध ने विशाल साम्राज्य की मौर्य काल और गुप्त काल में महान साम्राज्यों का स्थापना की, जिसे शताब्दियों तक प्रशासनिक केन्द्र काव गौरव प्राप्त रहा उसकी बोली इतनी दयनीय! इस बात पर पुनः विस्मय में होता है कि जिस क्षेत्र में गौतम बुद्ध और महावीर जैसे बड़े आंदोलनकारी हुए और उन्होंने अपनी बोलियों को ही अपने प्रचार का माध्यम बनाया वह बोली इतनी अविकसित कैसे रह गई? एक ही क्षेत्र से एक ही समय में महावीर की भाषा जैन प्राकृत की जननी कैसे बनी और गौतम बुद्ध की भाषा पाली में कैसे विकसित हुई। दोनों में इतना अंतर कैसे आया।
इस विषय में सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय का एक मत बहुत रोचक है। वह मानते हैं पाली और प्राकृत के रूप में हम जिन भाषाओं से परिचित हैं उनका मूल रूप क्या था इसे नहीं जाना जा सकता। उनके अनुसार ये दोनों भाषाएं पहली बार जब कौरवी क्षेत्र में, या कहें, शूरसेनी प्राकृत क्षेत्र में पहुंचती हैं तो उनका वह साहित्यिक रूप निश्चित होता है जिससे हम परिचित हैं। यहां पहुंचने के बाद इन भाषाओं का अखिल भारतीय विस्तार हो जाता है, इससे पहले यह अपने क्षेत्र तक सीमित रहती हैं।
यदि हम गौर करें हिंदी के जन्म के साथ भी ऐसी बात देखने में आती है। भले गिलक्रिस्ट ने हिंदी के व्यवहारिक रूप का निर्धारण करने के लिए लल्लू जी लाल और सदल मिश्र को , शौरसेनी क्षेत्र से आमंत्रित किया हो पर वह चल नहीं पाया। चला वह रूप जिसे रानी केतकी की कहानी में इंशा अल्लाह खान ने पेश किया था, परंतु हिंदी के निर्माण में कोरवी क्षेत्र के किसी व्यक्ति का हाथ नहीं, इसमें पहल भोजपुरी क्षेत्र ने की थी और हिंदी के केंद्र कोलकाता, पटना, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ होते हुए अंत में कौरवी क्षेत्र में पहुंचते हैं। सुनीति बाबू को आर्य भाषा हिंदी की इस विकास यात्रा के सन्दर्भ में ही पाली और प्राकृत की याद आई थी और इस तर्क से हिंदी के संदर्भ में उनका विचार था कि जो भाषा कौरवी क्षेत्र में पहुंच जाती है, उसी का अखिल भारतीय प्रसार होता है और इस तर्क से उन्होंने हिंदी को भारत की स्वाभाविक राष्ट्रभाषा स्वीकार किया था, आपत्ति उन्हें केवल लिपि को लेकर थी।
भारोपीय अर्थात् संस्कृत के विषय में भी उनको एक उलझन का सामना करना पड़ा था कि आदि भारोपीय की कल्पित ध्वनियों में घोष महाप्राण ध्वनियाँ केवल पूर्वी हिंदी में क्यों पाई जाती है। यदि आर्यों का प्रवेश पश्चिम से हुआ तो पश्चिम की बोलियों में इनका अभाव क्यों देखने में आता है? जिस तर्क से पाली प्राकृत और हिंदी के विषय में उद्भव क्षेत्र और मानकीकरण के क्षेत्र का निर्धारण उनके द्वारा किया गया था, उसी को पीछे ले जाकर संस्कृत अर्थात भारोपीय पर घटित करते तो भारोपीय और संस्कृत के विकास के पीछे भोजपुरी की भूमिका साफ दिखाई देती। परंतु आर्य आक्रमण की मान्यता पर उनके जीवन भर का काम और श्रेय निर्भर करता था, इसलिए उनकी आंखों पर पर्दा पड़ गया अथवा वह इसे कहने का साहस नहीं जुटा सके।
यह साहस पहली बार डॉ रामविलास शर्मा ने जुटाया और मैं उनके प्रमाण के बाद ही स्वयं इसका दावा करने का साहस जुटा सका, जबकि दूसरे कारणों से मैं इसका संकेत पहले भी देता आया था, परंतु दावे के साथ नहीं। संकोच यह था कि भोजपुरी भाषी होने के कारण इसे पूर्वाग्रह जन्य माना जा सकता है।
यदि कोई समझना चाहे तो समझ सकता है कि संस्कृति और मनोरचना के भी गुण सूत्र होते हैं जो हजारों साल तक सक्रिय रहते हैं। भोजपुरी में कुछ विशेष नहीं था, परंतु यह उस क्षेत्र की और उन लोगों की भाषा थी जिन्होंने स्थाई कृषि का आरंभ किया था। इस गौरव के कारण इसमें आत्मरति इतनी प्रबल रही कि इसने अपने पुराने भदेस प्रयोगों को त्यागने की जरूरत नहीं समझी। अपने व्याकरण को भी यथासंभव अपरिवर्तित रखा जबकि इस बीच यह कई बोलियों के संपर्क में आई और अंत तक इसमें दूसरे परिवारों में गिनी जाने वाली बोलियों के अँतरे बने रहे। स्तरीय साहित्य सर्जना के मार्ग में भी यह पिछड़ापन प्रधान कारण बना रहा।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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