Saturday, 31 October 2020

शब्दवेध (7) इतिहास वेध का समापन

भूमिका  का ध्यान  शब्दवेध आरंभ करने के बाद  आया  और यह  अपेक्षा  से  कुछ अधिक लंबी हो गई, फिर भी कुछ कमियां रह गईं।  जिनकी  रुचि  शब्दों की  परतें उतारने में है,  उनको  यह विचित्र लगा  होगा कि  बात तो  शब्दवेध  की की जा रही है, और वेध  इतिहास  का  किया  जा रहा है।  ऐसे तीरंदाज पर  भरोसा कौन कर सकता है  जो चलाता तो तीर है पर वह तुक्का बन कर  कहीं का कहीं पहुंच जाता है।  अनचाहे ही सही, तुक्का  बनकर  भी  तीर ने अपना काम किया है।    

विद्वान उसे कहते हैं जिसके ज्ञान पर दूसरे भरोसा करके उसकी बात मान लेते हैं, भले उसका ज्ञान बहुत सीमित हो, और अपनी लाज बचाने के लिए,  उसे,  ऐसी बातें तो करनी ही पड़ती हैं जिन्हें वह जानता है, साथ ही ऐसी अटकलें भी लगानी पड़ती हैं जिनमें से कुछ गलत भी सिद्ध हो सकती हैं।  ऐसे ही लोगों पर मैत्रायणी संहिता का कथन -  ब्राह्मण उभयीं वाचं वदति यश्च वेद यश्च न, मै.सं. 2.1.15 -  ज्ञानी दोनो तरह की बातें करता है; जिसे समझता हे उसे तो कहता ही है, जिसे नहीं समझता उसे भी बकता है - पूरी तरह  लागू होता है, और इनमें ही हमारी भी गणना होनी चाहिए।  भाषा के मामले में मैं जिस तरह का विद्वान हूं,उसमें मुझ पर, या  मेरी परिस्थिति में  दुनिया का कोई दूसरा विद्वान हो तो,  उस पर  भी पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। 
  
एक अतिपरिचित पर उतने ही गलत  शास्त्र को,  उलट पलट कर हमने  ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है जिसमें  हर चीज को  नए सिरे से जुड़ना है पर इस बात का सही पता नहीं कि इस मलबे से निकला कौन सा टुकड़ा  पूरी तरह कहां फिट होता है।  ज्ञान  और अनुमान  की  यह  धूप-छांव हमारे  पूरे विवेचन में  जारी रहनी है। उस जटिल, व्यापक  और बहु स्तरीय  समस्या की पूरी  पृष्ठभूमि को  इतना लंबा समय लेकर भी मैं पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर सका, फिर भी इसे समझे बिना कई तरह की भ्रान्तियाँ  पैदा हो सकती हैं,  जिसमें पिछड़ेपन का महिमामंडन, और  विकास के चरणों के  सरलीकरण,   संस्कृत की  एक परिष्कृत भाषा के रूप में  उपेक्षा की समस्या भी पैदा हो सकती थी।  

संक्षेप मे यह याद दिलाना  भी जरूरी है  कि ऋग्वेद में  संकलित रचनाएं उस विशाल भंडार का  नष्ट होने से बचा रह गया क्षुद्र अंश है  जिसकी रचना  1000 साल  की लंबी अवधि में  हुई थी,  इसलिए,  इसमें  भाषा के अनेक प्रयोग हुए हैं,  यद्यपि  प्रयत्न  एक मानक भाषा के अनुरूप  रचना करने का ही था।  दूसरी बात  यह कि  ऋग्वेद की साहित्यिक  भाषा अपने समय की  बोलचाल की  भाषा का प्रतिनिधित्व नहीं करती।   बोलचाल की भाषा के भी  दो रूप थे। एक भिन्न भाषा  और विश्वास  वाली पृष्ठभूमि से  आर्थिक कारणों से,  इस समाज के  प्रभु वर्ग की सेवा में लगे हुए लोगों की  घरेलू बोलियाँ  और दूसरी  संपर्क भाषा के  रूप में उनके द्वारा बोली जाने वाली  भाषा,  जिसमें उनकी  बोलियों की छाप बनी रह सकती थी। 

एक और गलती  जो पेशेवर भाषाशास्त्रियों  से होती रही  वह  यह है कि संस्कृत से  प्रथम परिचय  और उसी को आधार  बनाकर  भाषा विज्ञान का अध्ययन  आरंभ हो जाने के कारण,  भारोपीय का सीधा संबंध संस्कृत से जोड़ लिया जाता था, जबकि  जिस  पाणिनीय संस्कृत को  तुलना  के लिए  चुना  जाता रहा है,  वह  वैदिक सभ्यता से लगभग डेढ़ हजार साल बाद की, पंडितों द्वारा  रची भाषा है, जिसका  बोलचाल में,  इसका  मानक  रूप तैयार होने के समय, शिक्षित  ब्राह्मणों के बीच भी प्रयोग नहीं होता था। इसे स्वीकार करने में कुछ समय लगा।   

भारोपीय क्षेत्र में जिस भाषा का प्रचार हुआ था  साहित्यिक नहीं अपितु  बोलचाल की वह  प्रधान  भाषा  थी  जिसे संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग में लाया जाता था, या कहें जिसका प्रयोग वैदिक समाज का व्यापारी वर्ग,  जो अपने को श्रेष्ठ और   सदाचारी (आर्य, साधु)  कहता था, उसकी भाषा का हुआ करती थी।  परंतु  विशेष बोलियाँ बोलने वाले और निजी उपक्रमों  में लगे हुए लोग  अपने प्रभाव क्षेत्र में अपनी बोली का भी प्रयोग करते थे, और इसी के कारण  मुंडारी  या  द्रविड़ के तत्वों का भी साथ साथ प्रसार हुआ था।  अतः हम यह मानते हैं  आर्य भाषा का प्रयोग  ऋग्वेदिक काल की  संपर्क भाषा  के लिए ही  हो सकता है।  

संस्कृत ब्राह्मणों की  भाषा बन कर पैदा हुई जिसे  गुरू से सीख कर जाना, जा सकता है  और  जिसकी  शुद्धता बनाए रखने के लिए, इसे सीखने का अधिकार  ब्राह्मणों ने  अपने पास सुरक्षित रखा था। उपनयन के अधिकारी  दूसरे  वर्णों को   साक्षर बनाया जाता था और अपने लिए वर्णधर्म के अनुसार दूसरी  विद्याएँ सिखाई जाती थीं।  यह बाजार की और बनियों की  भाषा नहीं थी, न बनाई जा सकती थी। इसलिए न तो इसका चलन आम जनों में हो सकता था, न बाद की भाषाएँ इसके विकार या विघटन से पैदा हो सकती थीं।  

होता यह रहा कि भारत की कोई बोली यदि किसी कारण से अधिक समादृत हो जाती थी और इसकी पहुँच सारस्वत क्षेत्र, जिसे बाद में किसी चूक से शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र कहा जाने  लगा, पर वह अपनी कतिपय विशेषताओं की रक्षा करती हुई संस्कृतीकरण की उसी प्रक्रिया से गुजरती थी  जिससे  पूर्वी बोली  हजारों साल पहले इस  क्षेत्र में पहुंचने के बाद  वैदिक में परिवर्तित हुई थी।  इसी के कारण प्राकृत और पाली की आपस में जो भी भिन्नता हो,  इनकी साहित्यक कृतियों को  मात्र ध्वनि परिवर्तन से,  बहुत आसानी से  संस्कृत में रूपांतरित किया जा सकता है और  प्राकृत के आचार्य  ऐसा करते भी रहे हैं। 

व्यापारियों ने समाज को अहिंसक बना कर चोरोे-लुटेरों से मुक्त ऐसा समाज बनाने के लिए, जिसमें व्यापारिक गतिविधियाँ निर्बाध चल सकें, बड़े पैमाने पर जैन मत अपनाया और उसके साथ प्राकृत को अपनी व्यावहारिक भाषा बनाया जिससे, जैन प्राकृत जो महाराष्ट्री प्राकृत से, तथा दोनों, ऊपर बताए गए कारण से  शोरसेनी प्राकृत से मिलती थीं असाधारण प्रोत्साहन दिया गया और इसी को  सुगम  पाकर  संस्कृत नाटककारों ने अशिक्षित लोगों की  भाषा के रूप में संवादों में  प्रयोग किया। ध्यान रहे कि जिस बोली में  गौतम बुद्ध  या  महावीर अपने उपदेश देते रहे वह संस्कृत से निकली नहीं थी।  सारस्वत क्षेत्र में  पहुंचने के बाद उसका  संस्कृतीकरण हुआ था।  नमि साधु इसीलिए मागधी को  आर्ष प्राकृत  कहते थे  और संस्कृत का विकास इस प्राकृत से मानते थे।  उनका कथन इस सीमा तक सही था वैदिक और संस्कृत का विकास  पूरब की बोलियों में आए परिवर्तन का  परिणाम है। 

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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