हरियाणा के फरीदाबाद की घटना बेहद दुःखद औऱ आक्रोशित करने वाली है। हालांकि सरकार का कहना है कि पुलिस ने मुलजिम गिरफ्तार कर लिए हैं पर इस प्रकार सड़क पर हुयी इस घटना ने कानून और पुलिस, दोनो के ही इकबाल के खोखलेपन को उजागर कर दिया है।यह घटना चाहे प्रेम प्रसंग से जुड़ी हो, या इकतरफा प्रेम, जो समाज की एक बहुत बड़ी गलतफहमी बन चुकी है, की कुंठा का परिणाम हो, बेहद निंदनीय और शर्मनाक है। ऐसी घटनाये पहले भी घट चुकी हैं और आगे भी होती रहेंगी। पर इन्हें रोका कैसे जाय, यह आज के पुलिसिंग की सबसे बड़ी चुनौती है। पर इस चुनौती को केवल, पुलिस और कानून के भरोसे छोड़ कर निश्चिंत भाव से नहीं बैठा जा सकता है। समाज को भी इस व्याधि के निपटने के लिये सक्रिय होना होगा।
अक्सर हम यह समझते हैं कि, किसी भी जुर्म की सज़ा बढ़ा देने से उक्त अपराध में कमी आ जाएगी, पर ऐसा होता नहीं है। फांसी फांसी दो की उन्मादी सज़ा बढ़ाने की मांग अपनी जगह उचित हो सकती है, पर किसी भी सज़ा का भय आपराधिक तत्वो में कितना है, यह हम सब अपने सामने रोज ही देख रहे हैं। यदि फांसी की सज़ा से अपराध रूकते तो हत्या बंद या कम हों जानी चाहिए थी, क्योंकि उसमें फांसी की सज़ा का प्राविधान तो बहुत पहले से ही है।
इसी घटना की यदि, एक अपराध के दृष्टिकोण से समीक्षा करें तो पुलिस ने, मुकदमा दर्ज कर अपना विधिक काम कर दिया है। उसने मुलजिम पकड़ लिये हैं। उन्हें जेल भी भेज ही दिया जाएगा और बाद में आरोपपत्र भी अदालत जाएगा ही। हो सकता है अदालत से उन मुल्जिमान को सजा भी मिल जाय। सज़ा भी हो सकता है, इसे रेयर ऑफ द रेयरेस्ट अपराध मानते हुए फांसी की ही सज़ा मिल जाय। फिर यह केस फाइल बंद हो जाएगी। पर इस घटना से समाज की जो विकृति सामने आयी है क्या वह अंतिम है। उत्तर है, जी नहीं। समस्या की जड़ उसी दूषित मनोवृत्ति में है जो महिलाओं से बलात्कार और फिर उनकी हत्या करवाती है। उससे कैसे निपटा जाय यह सबसे महत्वपूर्ण सवाल है जिसका हल, अकेले पुलिस और सरकार के पास नहीं है।
निर्भया से जुड़ी घटना हो या हाथरस के गुड़िया की, या हैदराबाद के एक महिला डॉक्टर से गैंग रेप की या अब फरीदाबाद की यह घटना, इन सब मे जो हिंसा का बर्बर अतिरेक है यह अपराधी के किस मनोदशा का दुष्परिणाम है इस पर अपराधशास्त्रियों को सोचना होगा, और समाज विशेषकर माता पिता और घर परिवार के लोगों को भी इस जटिल समस्या से जुझना होगा।
अगर आप यह सोच रहे हैं कि केवल पुलिस के बल पर ही ऐसे अपराध रोके जा सकते हैं तो यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है। अपराध के बाद अपराधी का पता न लगना और उनकी गिरफ्तारी का न होना, यह पुलिस की कमी हो सकती है, पर महिलाओं से जुड़े ऐसे अपराध का पहले ही थाना पुलिस के संज्ञान में आ जाना, यह बेहद कठिन और लगभग असंभव तथ्य है।
अब इसी अपराध का उदाहरण लीजिए, जिसके बारे में यह तथ्य सामने आ रहे हैं कि घटना की पृष्ठभूमि, प्रेम प्रसंग या अंतर्धार्मिक प्रेम प्रसंग से जुड़ी हुयी है। भारतीय परंपरागत समाज मे वैसे भी प्रेम प्रसंग, अब भी एक टैबू या वर्जित फल की तरह समझा जाता है, और अगर ऊपर से वह प्रेम संबंध, अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक है, तब तो इनसे जुड़ा कोई भी प्रकरण बेहद संवेदनशील हो जाता है। जैसी खबरें आ रही हैं यह मामला अंतर्धार्मिक प्रेम प्रसंग का है। यह लम्बे समय से चल भी रहा था। पहले भी मुकदमा दर्ज हुआ पर बाद में निकिता के परिवार द्वारा समझौता कर लिया गया। उसी की इसकी दुःखद और हिंसक परिणति कल निकिता की जघन्य हत्या के रूप में हो गयी। क्या यहां परिवार और समाज को, जब यह सब मसला चल रहा था, तभी सतर्क नहीं हो जाना चाहिए था ?
जिस गतिविधि की जानकारी घर परिवार को नही है और अगर है भी, तो वे भी इसे पोशीदा रखे हों, और फिर पुलिस से यह उम्मीद की जाय कि पुलिस को इन सबकी जानकारी रहे तो, पुलिस से हम सबकी यह अपेक्षा अनुचित ही होगी। लेकिन अगर ऐसी कोई सूचना पहले से ही पुलिस को किसी छेड़छाड़ या बदतमीजी के रूप में है और उसे पुलिस ने गंभीरता से नहीं लिया और उस पर तब कोई प्रभावी कार्यवाही पुलिस द्वारा नहीं की गयी है तो यह पुलिस की कमी है, जिसकी जांच की जानी चाहिए।
अंतर्धार्मिक प्रेम प्रसंग औऱ धर्म परिवर्तन का जो एंगल इस मामले में आ रहा है, वह इस जघन्य कांड में, अपराध का एक महत्वपूर्ण मोटिव हो सकता है। निश्चित रूप से यह मोटिव घर परिवार की जानकारी में तो रहा होगा, पर पुलिस को इन सबकी कितनी भनक थी, यह मैं नहीं बता पाऊंगा। फिलहाल तो ऐसे अपराधियों के खिलाफ जो भी कड़ी से कड़ी कानूनी कार्यवाही करनी है वह की जानी चाहिए और वह होगी भी। आगे ऐसी ही घटनायें न हों इसके लिये हमें अपने घर, परिवार, आसपास और समाज को भी एक सजग दृष्टि से देखते रखना होगा।
इसी से जुड़ी दिनेशराय द्विवेदी जो एक वरिष्ठ एडवोकेट हैं की निम्नलिखित टिप्पणी भी पढ़ी जानी चाहिए,
इस घटना के बारे मे कहा जा रहा है कि, कुछ समय पहले इसी मामले में धारा 365 आईपीसी का मुकदमा दर्ज हुआ था। यही लड़की जिसकी हत्या हुई है बरामद कर परिवार को सौंप दी गयी थी। फिर परिवार के कहने पर कि वे मामला चलाना नहीं चाहते मुकदमा बन्द कर दिया गया, कोई चालान नहीं किया गया।'
अगर धारा 365 आईपीसी में एफआईआर दर्ज है और यदि इस धारा में आरोपपत्र अदालत में पेश किया गया होता तो अदालत तक को यह अधिकार नहीं था कि उसमें किसी भी तरह से राजीनामा स्वीकार करके मुकदमा खत्म कर देती। फिर यह सवाल उठता है कि, पुलिस ने परिवार के कहने पर मुकदमा क्यों खत्म कर दिया ? क्या उसे ऐसा कोई अधिकार कानून में है ? धारा 365 आईपीसी किसी व्यक्ति/ परिवार के विरुद्ध अपराध होने के साथ साथ एक सामाजिक अपराध है और राज्य के विरुद्ध भी अपराध है। फिर उसमें गैरचालानी एफआर लगाई गयी होगी यह लिख कर कि इसमें कोई गवाह नहीं मिला, जिसे मजिस्ट्रेट ने भी मंजूर कर लिया होगा। यहाँ मजिस्ट्रेट की भी गलती थी। उसे दुबारा अन्वेषण करने का आदेश देना चाहिए था।
ऐसे मामलों में अक्सर यह होता है कि अपहरणकर्ता तगड़े रसूख वाला व्यक्ति होता है। वह पुलिस पर और लड़की के परिवार पर दबाव डालता है। इस में धन और बल दोनो का जोर होता है। फिर पुलिस भी पीड़ित पक्ष को दबाती है। तब जाकर राजीनामा होता है। यह राजीनामा रिकार्ड में दर्ज नहीं होता। सबूतों के अभाव में अन्तिम रिपोर्ट दाखिल की जाती है और उसे मंजूर करा लिया जाता है। फरियादी को एक बार नोटिस भेजा जाता है। नोटिस पर हाजिर न होने पर मजिस्ट्रेट उसे मंजूर कर लेती है। यह अपराधों के बढ़ते रहने का मुख्य कारण है। इसमें अपराधियो की पुलिस से साँठगाँठ होती है। केवल पुलिस से ही नहीं बल्कि राज्य के राजनीतिज्ञों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फिर जब मर्डर और रेप जैसी घटनाएँ होती हैं तो उन्हें साम्प्रदायिक रंग देकर राजनीति की बिसात पर खेल खेला जाता है।
इस मामले में पुरानी एफआईआर पर एफआर पेश करने की जाँच होनी चाहिए। जिम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। हाईकोर्ट को उस मजिस्ट्रेट के खिलाफ भी जाँच खोलनी चाहिए जिसने इस मामले में एफआर को मंजूर किया था।
( विजय शंकर सिंह )
No comments:
Post a Comment