भाषा के पाँव नहीं होते, वह कहीं स्वयं जा नहीं सकती। जब आर्यों की जाति के भारत पर हमले की, या आर्य भाषाभाषियों के किसी रूप में भारत में प्रवेश की मान्यता का खंडन सर्वमान्य हो गया तो कुछ लोगों ने यह कहना आरंभ किया कि लोग तो नहीं आए पर भाषा आई थी।
बोलने वालों के हिले डुले बिना भाषा कैसे आ गई? हुआ यह होगा कि भाषा ईरान तक फैल गई होगी और पूर्वी ईरान के पड़ोस के लोगों के सम्पर्क में आने वाले भारतीयों में पहुँची होगी और फिर भारत में फैल गई होगी। यह विचत्र सूझ रोमिला जी की है। आधार ? आधार यह कि चलो बाहर से किसी बड़े जत्थे के किसी रूप में आने के प्रमाण नहीं, पर भाषा के भारत से यूरोप तक व्याप्त होने के तो प्रमाण हैं। रहा सवाल आने का तो इसका एक ही तरीका उनकी समझ में आया जो ऊपर है, जाने की संभावना कल्पनातीत थी।
भाषा के विषय में अगली सचाई यह कि यह संक्रामक बीमारी भी नहीं है कि अपने संपर्क में आने वालों को पकड़ ले। यदि यह संभव होता तो हजारों साल से पड़ोस की बोलियों की सीमा रेखाएँ ही बदल गई होतीं। ग्रीक और लातिन ने अपनी दूरियाँ मिटा ली होतीं। पर इस ओर उनका ध्यान नहीं गया, क्योंकि वह मानती हैं कि भाषा विशेषज्ञता के क्षेत्र में आती है और उस पर विशेषज्ञों ने अभूतपूर्व काम किया है। उनकी मान्यता का खंडन करने के लिए उतनी ही गहन विशेषज्ञता होनी चाहिए। [[मेरी पुस्तक (दि वेदिक हड़प्पन्स) के दो माह के अध्ययन के बाद उन्हें एक ही कमी नजर आई थी कि मैंने भाषाविज्ञान जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्र में दखल क्यों दिया। विरोधियों की प्रशंसा की भाषा यही होती है। इसका फलितार्थ यह कि अपनी जानकारी के क्षेत्र में उन्हें कोई कमी न मिली। ठीक ऐसी ही संस्तुति आर एस शर्मा से मिली थी। हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, (1987, प्रथम खंड) पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा था, ‘और सब तो ठीक है पर तुमने मोहनजोदड़ो लिखा है, आज कल मान्यता यह है कि स्थान नाम का जो उच्चारण स्थानीय लोग करते हों वही प्रयोग में आना चाहिए और इसलिए इसे मोहेंजोदड़ो होना चाहिए। अर्थात् प्राचीन इतिहास के ‘विश्रुत’ जिन विद्वानों की मान्यताओं का मैंने खंडन किया था उनको तलाशे भी दूसरी कोई कमी न मिल सकी। मैंने शर्मा जी आश्वासन दिया था कि अगले संस्करण में यह भूल सुधार दी जाएगी, क्योंकि उनके सम्मुख यह याद दिलाने की धृष्टता नहीं कर सकता था कि जिस दिल्ली में हम बात कर रहे हैं उसे ही दिल्ली, देहली और देल्ही लिखा जाता है। नाम का लक्ष्य नामधेय का अभिज्ञान कराना होता है और यदि यह प्रयोजन नाम ही नहीं उपनाम से भी सिद्ध हो जाता है तो वह सही है अन्यथा शुद्धता के चक्कर में पड़े तो कल को कोई इससे भी शुद्ध उच्चारण के साथ उपस्थित हो कर आपके सुझाव में भी सुधार कर सकता है। ]]
भाषा में जो भी परिवर्तन होते हैं वे सामाजिक संरचना में परिवर्तनों के परिणाम होते हैं। मनुष्य अपनी भाषा का प्रसार करने के लिए कहीं नहीं जाता। वह भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है। सामाजिक संचलन आर्थिक गतिविधियों के परिणाम हैं। इस तरह भाषा-शास्त्र का समाज-शास्त्र होता है और समाजशास्त्र का अर्थ-शास्त्र। भाषावैज्ञानिक अध्ययन का यह एकमात्र वैज्ञानिक आधार है और जो अध्येता किसी भी कारण से इसका ज्ञान नहीं रखते या ज्ञान होते हुए भी इसका ध्यान नहीं रखते, वे ही आक्रमण और घुसपैठ करा कर अपनी मनमानी करने को बाध्य होते हैं। सच यह है कि वे इस बात का भी ध्यान नहीं रखते कि युद्ध और आक्रमण का भी आर्थिक आधार होता है। वे इसे न समझने के कारण कुछ कबीलों को प्रकृति से ही युद्धोन्मादी, क्रूर और रक्त-पिपासु बना देते हैं। इसी तरह यूरोपीय विद्वानों ने तैयार की थी रक्तपिपासु, दुर्दांत आर्यों की जाति जिसकी क्रूरता की कहानियों के पीछे वे अपनी क्रूरता को इंसानियत की पराकाष्ठा सिद्ध कर सकें। सचाई इससे उलट यह है कि युद्ध, रक्तपिपासा और क्रूरता का भी आर्थिक और सामाजिक आधार होता है जो प्रकृति की कृपणता जन्य दरिद्रता में अपने को जीवित रखने की विवशता से भी तैयार हो सकता है, और सब से सब कुछ छीन कर अपने पास रखने के लोभ से भी पैदा हो सकता है।
कोलिन रेनफ्रू ने (लैंग्वेज ऐंड आर्कियालॉजी,1987) में ही पहले की सभी मान्यताओं को खारिज करके उस क्षेत्र को जिसे भारत में कृषि और स्थायी आवास के स्थलों की पहचान से पहले कृषि का उद्भव क्षेत्र माना जाता था, वहाँ से बड़े पैमाने पर जन संचलन के अभाव में भी कृषि विद्या के प्रसार के साथ( हम कहें कि आर्थिक सक्रियता के चलते) भाषा के प्रसार की बात की थी। ये ऊहापोह हड़प्पा सभ्यता के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलने, मैकाय (फर्दर एक्सकैवेशन्स ऐट मोहेंजाड़ो, खंड 2 )में आर्य भाषा के समूचे प्रसार क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता के सांस्कृतिक उपादानों के प्रसार की पुष्टि करने के बाद में हो रहे थे। मैलोरी ने भी (1989, इन सर्च ऑफ इंडो-यूरोपयन : लैंग्वेज, आर्किऑलोजी ऐंड मिथ) में रेनफ्रू का उपहास करने और यह प्रतिपादित करने के बाद भी कि लघु एशिया पर्यंत की भाषा भारतीय आर्यभाषा थी, सीधे यह स्वीकार नहीं किया कि भाषा का प्रसार यदि आर्थिक गतिविधियों के चलते हुआ था तो यह तथाकथित हड़प्पा सभ्यता की गतिविधियों के कारण और भारतीय भूभाग से हुआ था।
यहाँ इस इतिहास को याद करने का कारण यह कि कृषि विद्या भी आबादी बढ़ने के साथ नई कृषि-भूमि की तलाश करते हुए किसी भूभाग में फैलने और बसने वालों के साथ फैलती है और उसी के साथ भाषा फैलती है और इसी प्रक्रिया से मध्य उत्तरी भोजपुरी क्षेत्र के पहाडी भाग में पहली बार स्थायी कृषि और आवास में सफल किसानों ने नीचे उतर कर क्रमशः पूरी गंगाघाटी को आबाद किया था और इसी तरह आगे वढ़ते हुए नए कार्यक्षेत्र ( कुरुक्षेत्र) और धर्मक्षेत्र (कृषिकर्म और उसके लिए भूमि का समतल, निष्कंटक बनाना ही पहले का यज्ञ और धर्म था - यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्) अर्थात् आपया, दृषद्वती और सरस्वती का विस्तृत क्षेत्र पा कर इसे सर्वोपरि क्षेत्र मानते हुए अपना अधिकार जमाया। इसी की याद गीता के धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे में बची रह गई है।
यह यात्रा बहुत मंद गति से, कई हजार साल के दौरान, अनेक बोली क्षेत्रों से गुजरते हुए, स्थानीय जनों में नई सोच रखने वाली आबादी को खेतिहर बनाते और अपनी समाज रचना में आत्मसात करते हुए और अपनी व्यावहारिक भाषा को नए रुप में ढालते हुए, उनकी विशिष्ट ध्वनियों और शब्दभंडार को ग्रहण करते हुए संपन्न हुई थी, परन्तु इसे सबसे लंबी अवधि तक कौरवी क्षेत्र में पूरी सक्रियता दिखाने और ग्राम्य चरण से नागर चरण तक का विकास करने का अवसर मिला, इसलिए इसका पूर्ण संस्कार यहाँ हुआ और वैदिक से लेकर संस्कृत तक के मानक रूप यहीं तय किए गए। इसी के वैदिक चरण की भाषा का व्यवहार देसी और विदेशी व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े लोग संपर्क भाषा के रूप में करते थे पर यह ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा से उतनी ही भिन्न थी जितनी बोलचाल की भाषाएँ साहित्यिक भाषाओं से होती हैं।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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