बाबरी मस्जिद गिराने के मामले में आज 30 सितंबर 2020 को स्पेशल सीबीआई कोर्ट लखनऊ का फैसला आ गया है। बाबरी मस्जिद गिराने के लिये सभी दोषी अभियुक्त दोषी नहीं पाए गए। उन्हें अदालत ने बरी कर दिया है। स्पेशल सीबीआई जज एसके यादव ने यह बहुप्रतीक्षित निर्णय आज सुनाया है। जज एसके यादव, पहले से ही रिटायर्ड हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक असाधारण आदेश के काऱण उनका रिटायरमेंट, इसी मुकदमे के फैसले को सुनाने तक रुका था और अब वे भी मुक्त हो गए। सीबीआई कोर्ट लखनऊ के फैसले के अनुसार, बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती आदि को इस ढांचे को गिराने के लिये आपराधिक षडयंत्र का दोषी नहीं पाया गया है। अदालत ने सीबीआई की इस थियरी को भी खारिज कर दिया कि, इस ढांचे को गिराने के लिये कोई सोची समझी साजिश पहले से ही की गई थी।
सीबीआई ऐसी किसी साज़िश का सुबूत अदालत में पेश नहीं कर पायी। यह सब अभियुक्त विध्वंस के समय घटनास्थल पर मौजूद थे और तब की खबरें पढिये या तब की विडियो क्लिप्स देखिए या तब ल वहां पर तैनात अधिकारियों से बात कीजिए तो सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि कारसेवा के नाम पर लाखों की भीड़ जुटा लेना, फिर प्रतीकात्मक कारसेवा के बहाने, भवन गिराने वाले उपकरण खुल कर इकट्ठे करना, फिर एक सधे हुए ड्रिल की तरह से चार घँटे में ही एक बड़ी लेकिन पुरानी इमारत ज़मींदोज़ कर देना, जब यह सब हो रहा हो तो इन अभियुक्त नेताओ द्वारा एक दुसरो को बधाई देना, एक साजिश और उस साज़िश के पूरे होने पर खुशी के इजहार को प्रदर्शित करता है। अब सीबीआई इन सब साजिशों के बारीक सूत्रों को कैसे अदालत में सिद्ध नहीं कर पायी, यह तो जब अदालत में दाखिल किए गए सुबूतों और जिरह का अध्ययन किया जाय तभी कुछ कहा जा सकता है।
आउटलुक मैगज़ीन में छपे एक लेख में इस मामले की न्यायिक जांच करने वाले, रिटायर्ड जस्टिस एमएस लिब्राहन ने इस फैसले और अदालत के इस निष्कर्ष कि, कोई कॉन्सपिरेसी थियरी नहीं है पर हैरानी व्यक्त की है। उन्होंने अंग्रेजी का अटर फ़ार्स यानी नंगा स्वांग शब्द का प्रयोग किया है।
लिब्रहान आयोग, भारत सरकार द्वारा 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस की जांच पड़ताल के लिए गठित एक जांच आयोग था, जिसका कार्यकाल लगभग 17 वर्ष लंबा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के एक आदेश से 16 दिसंबर 1992 को इसका गठन हुया था। इसके सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रहान को बनाया गया था। आयोग को जांच रिपोर्ट तीन महीने के भीतर पेश करनी थी, लेकिन इसका कार्यकाल अड़तालीस बार बढ़ाया गया और अंततः 30 जून 2009 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंप दी।
आयोग को निम्न बिंदुओं की जांच कर अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिये कहा गया था,
● 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित परिसर में घटीं प्रमुख घटनाओं का अनुक्रम और इससे संबंधित सभी तथ्य और परिस्थितियां जिनके चलते राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे का विध्वंस हुआ।
● राम जन्म भूमि -बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे के विध्वंस के संबंध में मुख्यमंत्री, मंत्री परिषद के सदस्यों, उत्तर प्रदेश की सरकार के अधिकारियों और गैर सरकारी व्यक्तियों, संबंधित संगठनों और एजेंसियों द्वारा निभाई गई भूमिका।
● निर्धारित किये गये या उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा व्यवहार में लाये जाने वाले सुरक्षा उपायों और अन्य सुरक्षा व्यवस्थाओं में कमियां जो 6 दिसंबर 1992 को राम जन्म भूमि - बाबरी मस्जिद परिसर, अयोध्या शहर और फैजाबाद मे हुई घटनाओं का कारण बनीं।
● 6 दिसंबर 1992 को घटीं प्रमुख घटनाओं का अनुक्रम और इससे संबंधित सभी तथ्य और परिस्थितियां जिनके चलते अयोध्या में मीडिया कर्मियों पर हमला हुआ।
● इसके अतिरिक्त, जांच के विषय से संबंधित कोई भी अन्य मामला।
अपनी 16 वर्षों की कार्रवाई में, आयोग ने कई नेताओं जैसे कल्याण सिंह, स्वर्गीय पी.वी. नरसिंह राव, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और मुलायम सिंह यादव के अलावा कई नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों के बयान भी दर्ज किये। उत्तर प्रदेश के शीर्ष नौकरशाहों और पुलिस अधिकारीयों के अलावा अयोध्या के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट आरएन श्रीवास्तव और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डीबी राय का बयान भी दर्ज किया गया। एसएसपी डीबी राय और डीएम आरएन श्रीवास्तव दोनो ही घटना के बाद ही निलंबित हो गए थे। डीबी राय बाद में सुल्तानपुर से सांसद भी रहे पर उनका कार्यकाल पूरा न हो सका क्योंकि लोकसभा तय कार्यकाल के पहले ही भंग हो गयी थी। डीबी राय अपने अंतिम दिनों में अवसाद में आ गए थे जो जल्दी ही दिवंगत हो गए। आरएन श्रीवास्तव भी लम्बे समय तक निलंबित रहे और उनके बारे में मुझे बहुत अधिक पता नहीं है।
आयोग ने 17 वर्षों में, 100 से अधिक गवाहों की गवाही ली, उनसे बात की, और उनसे जिरह किये, और जांच के बाद आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह विध्वंस एक नियोजित षडयंत्र का परिणाम है। आयोग की रिपोर्ट अंग्रेजी में है और आयोग ने इसे प्लांड कॉन्सपिरेसी शब्द से व्यक्त किया है। यह नियोजित षडयंत्र, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस, बीजेपी और संघ परिवार के कुछ नेताओं द्वारा रचा गया था। आयोग ने जिन 68 लोगो को ढांचा विध्वंस और साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने का दोषी पाया था, उनमे से प्रमुख हैं, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा, कल्याण सिंह, कलराज मिश्र, विनय कटियार, महंत नृत्यगोपाल दास। साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, बाल ठाकरे, अशोक सिंघल, लालजी टण्डन भी इस साजिश में शामिल पाए गए लेकिन यह सभी अब जीवित नहीं हैं।
हालांकि लिब्राहन आयोग ने जिन 68 व्यक्तियों को अपनी रिपोर्ट में, ढांचा गिराने का दोषी पाया है वे सभी सीबीआई द्वारा की गयी विवेचना में अभियुक्त नहीं ठहराए गए थे। लेकिन, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह, महंत नृत्यगोपाल दास, विनय कटियार आदि प्रमुख लोग सीबीआई की विवेचना में अभियुक्त बनाये गए थे। सीबीआई ने इनके ऊपर, आपराधिक साजिश करने और उत्तेजनात्मक भाषण देने, के आरोप लगाये थे, जिन्हें सीबीआई की अदालत ने 30 सितंबर के फैसले में, खारिज कर दिया। सीबीआई अदालत, ट्रायल के बाद, निम्न प्रमुख निष्कर्षों पर पहुंची है,
● विवादित ढांचा का गिराया जाना पूर्व नियोजित नहीं था। यह इमारत अचानक गिराई गई।
● अभियुक्तों के खिलाफ इतने सुबूत नही हैं कि उनके आधार पर इन्हें दोषी ठहराया जा सके।
● ऑडियो सुबूत को सत्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि जगह जगह ऑडियो क्लिप में आवाज़ स्पष्ट और श्रवणीय नहीं है।
● सीबीआई ने जो वीडियो सबूत के तौर पर पेश किये हैं, उसमें जो लोग विवादित ढांचे की गुंबद पर चढ़े थे, अराजक तत्व थे। उनमें से इन मुल्जिमान में से कोई नहीं था।
● जो फोटो अभियोजन ने पेश किए गए हैं, उनके नेगेटिव नहीं मिले अतः उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता है ।
● अखबार की क्लिपिंग व फोटो साक्ष्य अधिनियम के अनुसार प्रमाण नहीं माने जाते हैं ।
इस फैसले पर जस्टिस एमएस लिब्राहन की प्रतिक्रिया भी तुरंत आ गयी है जो 'आउटलुक' ने उनसे बात कर के छापी है। जस्टिस लिब्राहन के अनुसार,
" इतने सुबूत आयोग को जांच में मिले थे जिससे कि, यह ढांचा गिराने के आरोप का दोष, इन सभी नेताओं के खिलाफ प्रमाणित हो सकता था । अभियोजन, अपना पक्ष अदालत में युक्तियुक्त तरह से प्रस्तुत नहीं कर सका। "
जस्टिस लिब्राहन ने बताया कि
" आयोग ने एक एक घटना का विस्तृत विवरण दिया है और यह भी सप्रमाण बताया है कि, किसकी इस कृत्य में क्या क्या भुमिका रही है।"
आयोग ने जो अपने निष्कर्ष में जो लिखा है, उसके कुछ अंश नीचे मैं दे दे रहा हूँ। फिलहाल तो जस्टिस लिब्राहन का यही कहना है कि, आयोग के निष्कर्षों से सीबीआई अदालत के निष्कर्ष लगभग बिल्कुल उलट हैं।
अब लिब्राहन आयोग की भारी भरकम रिपोर्ट के कुछ अंश पढिये जिनसे इस साजिश का संकेत मिलता है।
" भारी संख्या में अयोध्या में लोगों को लाने और एकत्र करने का आह्वान किया गया था। अयोध्या में, बड़ी संख्या में लोग आ सकते हैं, इसलिए इतने बड़े जनसमूह को अयोध्या में आने, रुकने और ठहरने के लिये, ज़रूरी स्थान की व्यवस्था की गयी थी। इन सब व्यवस्थाओं के लिये पर्याप्त धन की भी ज़रूरत पड़ी थी। धन की व्यवस्था विभिन्न तरह से की गयी। अनेक संगठनों के खाते बैंकों में थे, जिनसे धन का आदान प्रदान हुआ। यह सभी खाते संघ परिवार से जुड़े अलग अलग संगठनों के थे। इनमे आरएसएस, वीएचपी, ( विश्व हिंदू परिषद ), बीजेपी, से जुड़े नेताओ के बैंक खाते शामिल थे। संघ परिवार समय समय पर चंदे आदि से धन एकत्र करता रहा है। जिन संगठनों के बैंक खातों में धन जमा हुआ वे बैंक खाते, रामजन्मभूमि न्यास, भारत कल्याण प्रतिष्ठान, वीएचपी, रामजन्मभूमि न्यास पादुका पूजन निधि, श्रीरामजन्मभूमि न्यास श्रीराम शिला पूजन, जन हितैषी के नाम से खोले गए थे। जो व्यक्ति इन बैंक खातों को ऑपरेट करते थे, वे, ओंकार भावे, महंत परमहंस रामचंद्र दास, गुरुजन सिंह, नारद शरण, आचार्य गिरिराज किशोर, विष्णु हरि डालमिया, नाना भगवंत, जसवंत राय गुप्ता, बीपी तोषनीवाल, सीताराम अग्रवाल, अशोक सिंघल, रामेश्वर दयाल, प्रेमनाथ, चंपत राय, सूर्य किशन, यशवंत भट्ट, अवधेश कुमार दास शास्त्री आदि हैं। "
" इतनी बड़ी धनराशि के उपयोग से यह बात कदम दर कदम प्रमाणित होती गयी कि, सारी तैयारियां, ढांचे के विध्वंस होने तक, पूर्वनियोजित रूप से चलायी जाती रहीं। अगर सभी साक्ष्यों का अध्ययन किया जाय तो, यह निष्कर्ष निकलता है कि, इतनी बड़ी संख्या में कारसेवकों का अयोध्या की ओर जाना और वहां एकत्र होना न तो स्वैच्छिक था और न ही स्वयंस्फूर्त। यह एक सोची समझी योजना के अंतर्गत पूर्णतः नियोजित था। अतः इस आंदोलन के राजनीतिक और अन्य नेताओं का यह दावा कि, यह कृत्य कारसेवकों द्वारा भावनात्मक उन्माद और क्रोध में किया गया और स्वयंस्फूर्त था, सच नहीं है।"
" यह स्थापित हो गया है कि, 6 दिसंबर 1992 तक जो घटनाएं घटी हैं, वे एक साजिश के तहत अंजाम दी गयीं थी। निश्चित रूप से कुछ मुट्ठीभर लोग, सब कुछ नष्ट कर देने के उद्देश्य से, सहिष्णु और शांतिपूर्ण समाज को असहिष्णु लोगो के गिरोह में बदल देने की एक साज़िश रच रहे थे। "
" कल्याण सिंह, उनके कुछ मंत्री और चुनिंदा नौकरशाहों ने जानबूझकर कर कुछ ऐसी विध्वंसक परिस्थितियों को रचा कि उन परिस्थितियों में उक्त विवादित ढांचे के विध्वंस होने और देश के दो समुदायों के बीच की खाई को और चौड़ा होने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प ही शेष नहीं रहा, परिणामस्वरूप पूरे देश मे व्यापक जनसंहार और दंगे भड़क उठे। यह स्वीकार करने मे कोई संदेह नहीं है कि, इन सबका दोष और जिम्मेदारी मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, उनके मंत्रियों और कुछ उनके चुनिंदा नज़दीकी नौकरशाहों पर है। परमहंस रामचंद्र दास, अशोक सिंघल, विनय कटियार, विष्णुहरि डालमिया, केएस सुदर्शन, एचवी शेषाद्रि, लालजी टंडन, कलराज मिश्र, गोविंदाचार्य और अन्य जिनके नाम मेरी रिपोर्ट में अंकित हैं, इस कृत्य में साथ साथ थे और उन्हें, इस आंदोलन के बडे नेता, एलके आडवाणी, एमएम जोशी और एबी बाजपेयी का पूरा सहयोग और समर्थन था। "
" एक तरफ संघ परिवार की विधितोड़क, अनैतिक और राजनीतिक नैतिकता के विरुद्ध, यह कृत्य औऱ दूसरी तरफ उसकी सार्वजनिक क्षवि, इस विरोधाभासी पहेली को आयोग, अपनी लंबी सुनवाई और गंभीर तथ्यान्वेषण के दौरान लगातार सुलझाता रहा। एबी वाजपेयी, एमएम जोशी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे निर्विवाद रूप से जनप्रिय नेतागण औऱ संघ परिवार के नेताओं ने लगातार अपनी बेगुनाही की बात आयोग के समक्ष कही तथा खुद को दिसंबर 1992 की घटनाओं से बार बार अलग बताया। लेकिन एक क्षण के लिए भी यह नहीं माना जा सकता है कि, लालकृष्ण आडवाणी, एबी वाजपेयी या एमएम जोशी को, संघ परिवार की योजनाओं की जानकारी नहीं थी। अतः इन नेताओं को न तो संदेह का लाभ दिया जा सकता है और न ही उन्हें दोषमुक्त किया जा रहा है। "
एक तरफ 30 सितंबर 2020 का स्पेशल सीबीआई कोर्ट का फैसला और दूसरी तरफ जस्टिस लिब्राहन आयोग के निष्कर्ष इस परस्पर विरोधी पहेली को और जटिल बना देते हैं। कानूनी विंदु यह है कि आयोग का निष्कर्ष एक तथ्यान्वेषण होता है जिसे फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट कहते हैं। इन्ही तथ्यों के आधार पर यदि कोई अपराध बनता है तो उसकी सीआरपीसी के प्राविधानों के अनुसार, जो पुलिस की किसी अपराध की विवेचना करने की शक्तियां होती हैं के अनुसार विवेचना की जाती है। सीबीआई ने यह विवेचना की और उसने 68 आरोपियों में से 32 आरोपियों को इस ढांचा गिराने का अभियुक्त मानते हुए अदालत में आरोप पत्र दिया। उसी आरोप पत्र पर जो ट्रायल हुआ उसी का फैसला 30 सितंबर 2020 को अदालत ने सुनाया जिंसमे न तो कॉन्सपिरेसी थियरी, जो आयोग ने सही पायी थी, साबित हो सकी और न ही कोई अभियुक्त दोषी पाया गया। अब यह सीबीआई पर है कि वह फैसले का अध्ययन कर के सरकार की अनुमति से इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करती है या नहीं। सरकार का अपील के संदर्भ में क्या दृष्टिकोण रहेगा, इस पर अभी कुछ भी जल्दबाजी होगी।
( विजय शंकर सिंह )
बहुत ही सटीक और तार्किक लेख है सर...👌👌
ReplyDelete