Saturday, 31 October 2020

जन्मदिन 31 अवकक्टूबर - सरदार पटेल को याद करते हुए / विजय शंकर सिंह

आज आधुनिक भारत को राजनीतिक स्वरूप प्रदान करने वाले देश के महानतम नेताओ में से एक सरदार बल्लभभाई पटेल का जन्मदिन है। 1947 में देश आजाद हुआ और सरदार पटेल 1950 में दिवंगत हो गए। अंग्रेजों ने जिस भारत को आज़ाद किया था, वह बेहद छिन्नभिन्न और अलग अलग लगभग 600 देसी रियासतों में बंटा था। इन सबको एक सूत्र में पिरो कर आधुनिक भारत का वर्तमान राजनीतिक मानचित्र देने का महान कार्य सरदार पटेल ने ही पूरा किया था। 

आज उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़ा एक अविश्वसनीय पर वास्तविक घटना का विवरण आप सबसे साझा कर रहा हूँ, जो इस महान व्यक्तित्व के जीवन के एक अद्भुत पहलू को उजागर करती है। यह विवरण, स्वाधीनता संग्राम सेनानी महावीर त्यागी की पुस्तक में सरदार पटेल और उनकी सुपुत्री मणिबेन जी के सादे जीवन के बारे में उल्लिखित है। 

महावीर त्यागी एक बार सरदार पटेल के घर गए तो, उनकी पुत्री मणिबेन एक सामान्य वस्त्र में अपने पिता के ही पास बैठी थी। महावीर त्यागी ने मणिबेन के साधारण कपड़ो को देख कर थोड़ा परिहास किया और तब आगे क्या हुआ, यह आप खुद पढिये। महावीर त्यागी, सरदार पटेल और उनकी पुत्री मणिबेन के बीच का यह प्रसंग  भावुक कर देने वाला है। 
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एक बार मणिबेन कुछ दवाई पिला रही थीं। मेरे आने-जाने पर तो कोई रोक-टोक थी नहीं, मैंने कमरे में दाखिल होते ही देखा कि मणिबेन की साड़ी में एक बहुत बड़ी थेगली (पैवंद) लगी है। 

मैंने जोर से कहा, 'मणिबेन, तुम तो अपने आप को बहुत बड़ा आदमी मानती हो। तुम एक ऐसे बाप की बेटी हो कि जिसने साल-भर में इतना बड़ा चक्रवर्ती अखंड राज्य स्थापित कर दिया है कि जितना न रामचंद्र का था, न कृष्ण का, न अशोक का था, न अकबर का और न अंगरेज का। ऐसे बड़े राजों-महाराजों के सरदार की बेटी होकर तुम्हें शर्म नहीं आती ?" 

बहुत मुंह बना कर और बिगड़ कर मणि ने कहा, " शर्म आये उनको, जो झूठ बोलते और बेईमानी करते हैं, हमको क्यों शर्म आये?"
मैंने कहा, " हमारे देहरादून शहर में निकल जाओ, तो लोग तुम्हारे हाथ में दो पैसे या इकन्नी रख देंगे, यह समझ कर कि यह एक भिखारिन जा रही है। तुम्हें शर्म नहीं आती कि थेगली लगी धोती पहनती हो! " 
मैं तो हंसी कर रहा था....

सरदार भी खूब हंसे और कहा, " बाजार में तो बहुत लोग फिरते हैं. एक-एक आना करके भी शाम तक बहुत रुपया इकट्ठा कर लेगी।" 

पर मैं तो शर्म से डूब मरा जब सुशीला नायर ने कहा, " त्यागी जी, किससे बात कर रहे हो ? मणिबेन दिन-भर सरदार साहब की खड़ी सेवा करती है। फिर डायरी लिखती है और फिर नियम से चरखा कातती है। जो सूत बनता है, उसी से सरदार के कुर्ते-धोती बनते हैं। आपकी तरह सरदार साहब कपड़ा खद्दर भंडार से थोड़े ही खरीदते हैं। जब सरदार साहब के धोती-कुर्ते फट जाते हैं, तब उन्हीं को काट-सीकर मणिबेन अपनी साड़ी-कुर्ती बनाती हैं। " 

मैं उस देवी के सामने अवाक खड़ा रह गया। कितनी पवित्र आत्मा है, मणिबेन. उनके पैर छूने से हम जैसे पापी पवित्र हो सकते हैं।

फिर सरदार बोल उठे, " गरीब आदमी की लड़की है, अच्छे कपड़े कहां से लाये? उसका बाप कुछ कमाता थोड़े ही है।" 
सरदार ने अपने चश्मे का केस दिखाया। शायद बीस बरस पुराना था। इसी तरह तीसियों बरस पुरानी घड़ी और कमानी का चश्मा देखा, जिसके दूसरी ओर धागा बंधा था। 

कैसी पवित्र आत्मा थी! कैसा नेता था! उसकी त्याग-तपस्या की कमाई खा रहे हैं, हम सब ! आज के नेतागण रोज़ नई विदेशी घड़ी बाँधते हैं ! राजाओं-महाराजाओं के समान ठाट-बाट से रहते हैं !! "

( विजय शंकर सिंह )

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