क्व अभ्रस्पृशं शास्त्रं क्व तृणभंगुरा मतिः।
चूर्णीभूत्वा प्रवातोत्था अतिलंघयितुमुत्सुका।।
मैं अपने को भारत का एकमात्र मार्क्सवादी सोच वाला व्यक्ति इसलिए मानता हूं, मार्क्सवादी होने का दावा करने वाले मेरे समय के दूसरे सभी विद्वान और उनकी सीख और समझ में पले बढ़े बुद्धिजीवी औपनिवेशिक कूट चक्र से बाहर न निकल पाने के कारण अपने विवेचन में भाववादी रहे हैं और आज भी हैं। वे विदेशी भाषा को वरीयता देते हैं, विदेशों के विचार से निर्देशित होते हैं, विदेशी अध्येताओं पर अपने समाज और इतिहास के गहन अध्ययन का भार सौंप कर, उनसे निर्देशित होते हैं, परंतु स्वयं राजनीति को ही अपनी चारदीवारी मानते हैं और उसको भी व्यावहारिक कदाचार के साथ स्वीकार करते हुए अपना सारा समय उसी पर बर्वाद करते हैं।
वे नस्लवाद का मौखिक विरोध करते हैं और आर्यों की विशेष गुण संपन्न नस्ल की बात करते हुए अपने इतिहास की व्याख्या करते हैं। वे अपने समाज को, अपने यथार्थ को, अपने दिमाग में भरे हुए खयालों से समझना चाहते हैं और उनकी दशा उस मनोविक्षिप्त जैसी होती है, जिसका संबंध अपने यथार्थ से कट गया हो, और वह अपने मनोभाव के अनुसार बाहरी जगत का अनुमान करते हुए उससे टकराव की स्थिति में बना रहता है - उस पर हंसता है, पत्थर फेंकता है, और उस पर विजय पाने की कोशिश में समाज के लिए संकट तो पैदा ही करता है, अपनी स्थिति को भी अधिकाधिक दयनीय बनाता चला जाता है। दुनिया को बदलने के लिए खुद को होश में रखना जरूरी है और उसमें रहने के लिए अपनी आंखों पर, अपने अनुभवों पर, अपनी समझ पर भरोसा करना जरूरी है। उधार की समझ अपनी नहीं होती, न उसके अन्तर्विरोधों पर हमारा ध्यान जा पाता है।
दोष अकेले उनका नहीं है , हम विद्वानों को उनके ज्ञानावेश के कारण खयालों की दुनिया से खयालों की दुनिया तैयार करने की असाध्य बीमारी का शिकार पाते हैं। यदि ऐसा न होता तो आज से 3000 साल पहले से आरंभ होने वाले भाषा चिंतन से आधुनिक जगत को आश्चर्यचकित करने वाले भारतीय वैयाकरणों को जिन्होंने भाषा का अध्ययन ऋग्वेद की ऋचाओ को समझने के लिए आरंभ किया था, इस बात का ध्यान तो होता कि किसी सृष्टि से पहले जब कुछ नहीं था, यहां तक कि जिस परमेश्वर की हम कल्पना करते हैं, वह तक निराकार था (नासदीय सूक्त) फिर चारों वेद कैसे हो सकते थे? यज्ञ कैसे हो सकता था? वह भाषा जिसमें वेद रचे गए थे, एक जैसी नहीं है? एक साथ उसी भाषा के इतने रूप कैसे हो सकते थे? उससे सभी भाषाओं की उत्पत्ति कैसे हो सकती थी?
इस संशय की स्थिति में उन्हें पुरुष सूक्त की नए सिरे से व्याख्या करनी चाहिए थी । मोटी समझ से काम लेने पर यह बात समझ में आ जाती कि समस्या अधिक जटिल है और किसी दूसरे चरण से संबंधित है। और तब उनकी समझ में यह भी आ जाता कि यह ब्रह्माण्ड की सृष्टि का नहीं, कृत्रिम अर्थात् मानव रचित उस चरण का इतिहास है जिसे कृत्रिम उत्पादन या कृषि क्रांति की संज्ञा दी जाती है।
इसकी स्थापना के बाद या आर्थिक निश्चिंतता और स्ख्यावृद्धि के बाद समाज ने स्वयं, अपने भीतर कार्य विभाजन किया था, और वर्ण व्यवस्था की स्थापना हुई।
पुरुष, प्रजापति का रूप है जिसकी अनेक परिकल्पनाओं में कुछ हमारे लिए खासे रोचक हैं - ‘यज्ञ ही प्रजापति है’, (एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत्प्रजापतिः, शतपथ 4.3.4.3); अन्न ही प्रजापति है’ (अन्नं वा अयं प्रजापतिः, शतपथ, 7.1.2.4), जिसकी व्याख्या करते हुए तैत्तिरीय उपनिषद में आरंभ में ही‘अन्न को ही ब्रह्म है’, बताया गया है (अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते। याः काश्च पृथिवीं श्रिताः। अथो अन्नेनैव जीवन्ति। अथैनदपियन्त्यन्ततः।अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्। तस्मात् सर्वौषधमुच्यते।सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति। येऽन्नं ब्रह्मोपासते। अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्। तस्मात् सर्वौषधमुच्यते। अन्नाद् भूतानि जायन्ते। जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेऽत्ति च भूतानि। तस्मादन्नं तदुच्यत इति।तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात्।)
हम इस वाक्य को टेक की तरह दुहराते रहे हैं कि यज्ञ कृषि कर्म है, और इस बात को प्राचीन कृतियों में तरह तरह से दुहराया गया है। जिस तर्क से खेती को उत्तम साधन बताया जाता रहा है वह यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है (यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म) का अनुवाद है। यज्ञ का कर्मकांड और प्रतीक विधान इसी की पुष्टि करता है। खेती अनेकानेक विशेषज्ञताओं से जुड़ा हुआ उपक्रम है - ऋग्वेद के अनुसार इसके तार सभी से जुड़े हुए है. - विश्तज्ञ तन्तुभिः ततं, या गीता के शब्दों में, यज्ञः कर्म समुद्भवः । इसके सुचारु संचालन के लिए योग्यता के अनुसार कार्य विभाजन आवश्यक था, और इसलिए कृषक समाज ने अपने भीतर ही श्रम विभाजन और कार्य विभाजन आरंभ किया तथा उस प्राचीन व्यवस्था का अन्त किया यही पुराने तरीके या बलिपशु का वध था - देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम्।
भाववादी आग्रहों के कारण बार-बार अनेक रूपों में दुहराई और समझाई गई इस कहानी को समझने में हमारे विद्वान, वे विद्वान भी जो वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को लेकर चिंतित थे, इतने लंबे विफल रहे, फिर भाषा की समझ के विषय में उनके संस्कृत पर अनन्य अधिकार के बाद भी, हम उनके विवेचन पर भरोसा नहीं कर सकते। उनकी व्याख्या संस्कृत भाषा को समझने की दृष्टि से अचूक है, पर भाषाओं की उत्पत्ति और स्वयं संस्कृत का उद्भव और विकास समझने में बाधक।
हम समाज रचना, संस्कृति और भाषा की समस्या को अर्थ-तंत्र के साथ रखकर समझना चाहें तो हमारा काम अधिक आसान हो जाता है। भाषा कोई भी हो (और यहाँ हम बोलियों के लिए भी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं) ऐसी नहीं है कि उसमें अनगिनत भाषाओं का घालमेल न हुआ हो।
यह आहार की तलाश में किसी भाषा-भाषी क्षेत्र में समय समय पर आकर बसने वाले, या उसके चिरकालिक संपर्क में रहने वाले दूसरी भाषाएँ बोलने वालों के प्रभाव का परिणाम है। इस तथ्य की अनदेखी करने के कारण नस्लवादी सोच वाले विद्वान दावा करते रहे हैं कि भाषाओं में परिवर्तन और उनसे निकटता रखने वाली परवर्ती भाषाओं का 'जन्म' भाषा के अपने आंतरिक नियमों से संभव हुआ है। वे न रक्त में कोई मिलावट सहन कर सकते थे, न अपनी भाषा में। पिछड़ी अवस्था में रहने वाले या रहने को विवश किए गए लोगों से उन्होंने कुछ ग्रहण नहीं किया, उन्हें केवल दिया है। यह भावना एक शुद्ध भाषा से बोलियों और उप बोलियों के उल्टे सिद्धांत का जनक है और यह सिद्धांत सर्वत्र दिखाई देता है। आरंभ समाज व्यवस्था से ही हो जाता है - 'संसार का सब कुछ बाह्मण का है और उसकी कृपा से ही दूसरे सभी लोगों का पालन होता है - सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किं चिज्जगतीगतम् । श्रैष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति । स्वं एव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च । आनृशंस्याद्ब्राह्मणस्य भुञ्जते हि इतरे जनाः)। फिर सभी बोलियों में संस्कृत और उसके क्षरण से उनका जन्म तो होना ही था।
उनके असाधारण ज्ञान के बावजूद, भाववादी सोच से मुक्त न हो पाने के कारण, न केवल प्राचीन शास्त्रकारों का समस्त ज्ञान उटपटांग मान्यताओं से भरा हुआ है, अपितु पाश्चात्य विद्वानों की स्थापनाएं, जिनके आतंक में हम अधमरे पड़े रहते हैं, इतनी ही प्रचंड मूर्खताओं से भरी हुई हैं। भाववादी सोच के पीछे निहित स्वार्थ काम करते हैं , जो अन्यथा प्रबुद्ध और तार्किक दृष्टिकोण अपनाने वाले विद्वानों की आंख पर भी पर्दा डाल देते हैं। ब्राह्मणों का स्वार्थ जातीय वर्चस्व की रक्षा करना था पश्चिमी विद्वानों का स्वार्थ औपनिवेशिक हित की रक्षा और गोरी जाति और ईसाई मत के वर्चस्व को कुछ और हवा देना।
जो भी हो भाषा में ऐतिहासिक क्रम में होने वाले परिवर्तन भी आंतरिक ध्वनि नियम के कारण नहीं मुख्यतः सामाजिक मेलजोल या अपनाने और विलय के कारण होते हैं, यद्यपि ऐतिहासिक कारणों से, समीपवर्ती ध्वनि के प्रभाव से, आलस्य और प्रमाद से, व्यक्तियों के उच्चारण तंत्र की सीमाओं से भी मामूली परिवर्तन संभव हैं, परंतु यदि कोई भाषा के मूल से अलग होकर किसी दूसरे संपर्क में आए बिना कहीं व्यवहार में आए तो उसमें आने वाले परिवर्तनों को लक्ष्य नहीं किया जा सकता। सामाजिक संपर्क के कारण एक एक शब्द की रचना प्रभावित हो सकती है, जैसा हमने एक बार तेलुगू के ‘ऑकटि’ के उदाहरण से से स्पष्ट किया था जिसमें हिंदी का एक तमिल ऑन्र के प्रभाव में ऑक हो जाता है और उसमें उस बोली का आलंकारिक प्रत्यय ‘टि’ जाता है जो बंगाली में (-टी/-टा) बहुत प्रचलित है, पर भोजपुरी में महाप्राणता के अनुराग में (-ठी/-ठो) हो जाता है और इसका वेकल्पिक प्रयोग ‘-गो’ हो जाता है जो मराठी के विस्मयसूचक ‘आइ गो’ (माई रे) में दिखाई देता है।
ये रे, गो, टा, टि,ठो, या, वो, ई, नी, ऊ, ए, [भाई>भइया/ भाऊ/भावे/भायानी] भाषा पर विचार करते समय हमारी नजर से ओझल हो जाते हैं, जैसे राह चलते समय पहले गुजरे लोगोे के पाँवों के निशान, जिनके गुजरने से यह पथ बना है। बोली ही नहीं अनेक शब्दों की बनावट में भी अनेक भाषाभाषियों की उपस्थिति देखी जा सकती है। इस तरह भाषा में ध्वनि परिवर्तन उन बोलियों की ध्वनि सीमा और विशिष्टता के प्रभाव से होते हैं जिनका आर्थिक कारणों से पारस्परिक समागम होता है। यह प्रभाव बृहद पैमाने पर भी होता है, जैसा भारोपीय के प्रसार में देखने में आता है और क्षुद्र स्तर पर भी जिसका नमूना ‘ऑकटि’ है। इस परिवर्तन में कुछ शताब्दियों से लेकर हजारों साल का समय लगता है और फिर भी कमियाँ बनी रह जाती है। राजस्थानी राणा को राणाप्रताप की लोकप्रियता के कारण भोजपुरी में आज लगभग अपना लिया है पर राणी नहीं चल सकता। तमिलभाषी को स्वामी का उच्चारण >सामी>चामी करना ही है।#
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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