मेरे सामने भाषा पर विचार की दो चुनौतियाँ हैं। एक भाषा की मूल बोली के संस्कृत (भारोपीय) तक की विकास रेखा की पड़ताल है और दूसरी जो इस पर प्रकाश डालने में भी सहायक है, भाषा की, या कम से कम उस भाषा की उत्पत्ति की समस्या, जिससे तथाकथित भारोपीय के बहुनिष्ठ या सर्वनिष्ठ शब्दों की उत्पत्ति का भौगोलिक और भाषाई परिवेश समझ में आता है। पिछले 50 वर्षों के ऊहापोह के बाद दोनों के विषय में मेरे स्पष्ट विचार हैं। भाषा की उत्पत्ति नैसर्गिक ध्वनियों की नकल से हुई, और वह बोली जिसका विकास भारोपीय भाषाओं में हुआ उसका आदिम रूप भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित था। प्रश्न समस्या को सुलझाने का नहीं है। यह काम मैं पहले इसी पन्ने पर कर चुका हूं। चुनौती साक्ष्यों की यथेष्टता का और उनके औचित्य का है ।
[शब्द]
सबसे पहले हम शब्द को ही लें। यदि यह शब्द आद्य भोजपुरी (आद्य भारोपीय) में विद्यमान था तो उसमें दंत्य ध्वनि तो थी, तालव्य का विकास कुछ बाद में हुआ, यह यूरोपीय नजर से समस्या को देखने वालों का विचार है। इसमें आधी सचाई है और आधा फरेब। सचाई यह कि मूल बोली में तालव्य ध्वनि नहीं थी, फरेब यह कि उच्चारण स्थान बदलने से दन्त्य का विकास तालव्य में हुआ।
यह गलती भाषा विज्ञान में नस्लवादी सोच के प्रभाव का परिणाम है जिसमें नस्ल की शुद्धता के लिए किसी दूसरे समुदाय से मेलजोल की संभावना न थी। नस्लवादी सोच हमारे देश में भी रही है, अन्यथा वर्णसंकरता की भर्त्सना न की जाती। पर हमारा सामाजिक यथार्थ इसका खंडन करता है। उसमें अपने गोत्र में विवाह संबंध को वर्जित माना जाता है, यहां तक कि अनुलोम विवाह की अनुमति रही है।
वर्णसंकरता की अवधारणा मातृप्रधान समाज के पुरुषप्रधान समाज में बदलने का परिणाम है और यही विलोम विवाह के निषेध का भी कारण है। हम इसके इतिहास में नहीं जाएगे। यह उल्लेख केवल यह बताने के लिए कि हमारी भाषा से लेकर समाज रचना तक से सामाजिक अंतर्मिलन की पुष्टि होती है और इसलिए हम इस विषय में अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपना सकते हैं कि जिस समुदाय ने आद्य भारोपीय बोली जाती थी उसमें तालव्य ‘श’ नहीं था, केवल दंत्य ‘स’ था। ऐसी दशा में मूल शब्द में ‘श’ नहीं ‘स’ रहा होगा।
भोजपुरी की एक अन्य विशेषता स्वर प्रधानता की है इसलिए इसमें एक ही ध्वनि का द्वित्त तो हो सकता है, परंतु असवर्ण-संयोग इसकी प्रकृति के अनुरूप नहीं है। इस सीमा के कारण मूल उच्चारण सबद रहा होगा ऐसा लग सकता है परन्तु हमें सही मूल उच्चारण के लिए उस मूल ध्वनि को समझना होगा जिससे इसका जन्म हुआ।
यह ध्वनि पैदा कैसे हुई? वह आशय इससे कैसे जुड़ा जिसमें इसका प्रयोग होता है? ‘शब्द’ का अर्थ क्या है? जिस मूल ध्वनि से यह शब्द बना उसका क्या दूसरे किसी आशय में भी प्रयोग हुआ हो सकता है? उनकी व्याप्ति कहां तक है? ऐसे अनेक प्रश्न है जिनका उत्तर दिए बिना हम अपनी मूल स्थापना का औचित्य सिद्ध नहीं कर सकते।
मूल ध्वनि होठों के झटके के साथ अलग होने से अर्थात होठ चलाने से उत्पन्न ध्वनि ‘सप्’ है। इसका प्रयोग उन सभी क्रियाओं और कार्यों और विशेषताओं के लिए हो सकता था, जिनमें ओठ का चलना अनिवार्य है। यहां हम पाते हैं कि मूल रूप सपद होना चाहिए, जिसमें ‘द’ प्रत्य'य है।
इस प्रत्यय के निकटवर्ती ध्वनि के प्रभाव से 'त', 'द' और 'थ' तीन रूप हो जाते हैं। इस नियम से सपद का भी पूर्वरूप 'सपत' होना चाहिए। यह तकार सप् के शप् हो जाने के बाद ही बना रहा, और इसे हम शप् और शाप (शपति/ शपते) में पाते हैं।
इससे रोचक है अघोष ध्वनियों का सानिध्य, जो शप-थ में देखने में आता है। जिसे संस्कृत के विद्वान वर्ण-साम्य (सावर्ण्य) कहते हैं, वह अघोष का अघोष और सघोष का सघोष से साम्य हुआ। सप के शप बनने तक कोई समस्या नहीं, पर प के घोष ‘ब’ होने पर ‘त’ भी वर्णसाम्य के नियम के घोष ‘ब’ हो जाता है। बाँगड़ू प्रभाव से ‘ब’ का स्वर लोप हो जाता है और इस तरह मूल ‘सपत’ संस्कृत का शब्द बनता है।
हम जिस नतीजे पर पहुँचते हैं वह यह कि (1) सबद शब्द का अपभंश नहीं, शब्द सपत का संस्करण है।
2. सबद संस्कृत शब्द के प्रभाव में सपत का नवीकरण हो सकता है, परंतु अर्थभेद के लिए आदिम बोली में सबद रूप अस्तित्व में आ चुका था।
3. सामान्य कथन के अतिरिक्त क्रोध या भर्त्सना और निश्चयात्मक कथन सपत/साप > शपते/शाप और ‘शपथ’ की व्युत्पत्ति भी इसी मूल से है।
परंतु ओठ की सक्रियता केवल बोलने के ही जुड़ी नहीं है। खाते पीते समय भी होठ से ध्वनि निकलती है और भो- सपोड़ना, त. साप्पाडु, अं. सपर/ सूप, और सं. सूप और सूपकार का मूल (धातु रूप) सप् ही हुआ।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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