मुझे पता है मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं उसकी जानकारी रखने वाले जिन पुस्तकों को पढ़कर ज्ञानी बनते हैं, उन पर मैं भरोसा नहीं करता, परंतु उनकी सहायता लेता हूं। मैं भाषा की जिन समस्याओं को हल करना चाहता हूं, उनके विषय में जो जानकारी किताबों में उपलब्ध है वह सतही है। वह ज्ञान आरंभ से गलत इरादों से, गलत मान्यताओं से, अलग तरीके अपनाकर, उन तरीकों को वैध बनाने के लिए ज्ञान, भाषा विज्ञान और कोश-निर्माण के जो भी काम हुए, वे उल्टे हुए, यह बात उन विद्वानों को भी पता थी, जो उन गलतियों पर पर्दा डालने के लिए, विज्ञान के नाम पर, सिद्धांत गढ़ रहे थे और रही सही कमी संस्कृत-धातुओं से प्रेरित हो कर भारोपीय आद्य-रूपों की कल्पना करते हुए कोश निर्माण कर रहे थे और उनको प्रमाण मानकर नई बेवकूफियां कर रहे थे। इसलिए विद्वानों से मेरा विरोध मुझे आश्वस्त करता है कि जिसे वे गलत मानते थे परंतु गलत सिद्ध करने का साहस नहीं जुटा पाते थे, उसे गलत सिद्ध करने का तरीका क्या हो सकता है इसकी ओर हमने ध्यान दिया है। हमारे लिए विद्वानों और कोशग्रंथों का कार्यसाधक उपयोग तो है पर निर्णायक महत्त्व नहीं है। उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि जिन आँकड़ों का संकलन हमारे बस की बात नहीं, वे, वहां, उनके अथक श्रम के कारण, हमें एकत्र मिल जाते हैं।
सोचने का उनका तरीका वैज्ञानिक नहीं था, इसे गलत सिरे से तुलनात्मक भाषाविज्ञान का अध्ययन करने वालों ने आरंभ से अंत तक स्वीकार किया। विलियम जोंस ने इस तर्क का सहारा लेते हुए कि संस्कृत भारत के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं है, इसे केवल ब्राह्मण बोलते हैं, इसलिए ब्राह्मण अपनी भाषा लिए दिए किसी ऐसे क्षेत्र से आए हो सकते हैं जहाँ यह भाषा बोली जाती थी। इस क्षेत्र का निर्धारण उन्होंने बोली के आधार पर नहीं केन्द्रीयता के आधार पर किया। वहाँ वह बोली तो मिली नहीं, जो भाषा मिली उसका संस्कृत से वही संबंध था जो भारत की प्राकृतों का। सार रूप में वह मानते रहे कि इतनी उन्नत भाषा का आरंभ किसी बोली से होना चाहिए, उसी का क्रमिक विकास एक शिष्ट (शिक्षितों की) भाषा में हो सकता है और अपनी इस तलाश में वह नोआ की संतानों की भाषा पर पहुँच कर हाथ खड़े कर दिए कि यहाँ वह बोली मिल ही न सकी।
कुछ दूसरे उस बोली की तलाश यूरोप में करने के लिए प्रयत्नशील भी रहे, इलीरियन (पश्चिमी फ्रीजियन) से इतालवी की कुछ समानताएँ भी लक्ष्य कीं, इसे चलाने का प्रयत्न भी किया पर यह लंगड़ा सिद्ध हुआ और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि रोमन्स भाषाओं की जननी तो वह निश्चित रूप से है पर भारोपीय की जननी इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसलिए अपनी पुरानी जिद पर कायम रहते हुए मूल बोली के क्षेत्र को अज्ञात मान कर लघु एशिया से हित्ती के (हत्तूसा, बोगाजकुई से प्राप्त) पुरातात्विक अभिलेखों में वैदिक समाज, भाषा और विश्वास की निकटता को लक्ष्य करके इसे वैदिक से भी पुरानी सिद्ध करने को तत्पर रहे। हमें उनके नस्लवादी पाठ पर बहस नहीं करनी, याद इस बात की दिलानी है कि वहाँ भी वैदिक साहित्य वैदिक भाषा से पीछे नहीं जा सके, बोली तक नहीं पहुंच सके, क्योंकि वह बोली भारत से बाहर कहीं थी नहीं और भारत में उसकी खोज करने के लिए तैयार नहीं थे।
इसलिए जहाँ हमें पंडितों द्वारा तैयार किए गए सिद्धांत, विज्ञान, और कोश ग्रंथों पर पूरा भरोसा नहीं है, वहीं जो व्याख्यायें हम देते हैं, वे तर्कसंगति और हेतुवाद पर आधारित है, पर अनेक स्थितियों में एक ही नाद कई स्रोतों से उत्पन्न हो सकता है और उसका अनुनाद उन उन स्रोतों, क्रियाओं, गुणों और उस नाद की आवृत्ति (क्रिया विशेषण) के लिए हो सकती है। ऐसी स्थिति में विचार प्रवाह में इनमें विभेद करने में अपनी सतर्कता के बाद भी हमसे चूक हो सकती है, परन्तु अब समस्या शास्त्रीय न रह कर मोटी समझ की, बोलचाल के प्रयोगों की हो जाती है, इसलिए इसमें अधिकारी बदल जाते हैं। भाषा वैज्ञानिक अवैज्ञानिक सिद्ध होते हैं, तो कम पढ़े-लिखे लोग, अशिक्षित लोग और उनमें भी महिलाएं अधिक भरोसे के हो जाते हैं। कहें, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सिखाए हुए ज्ञान के तुलनात्मक अभाव में बोली के अविकृत रूप और व्यंजना से अधिक परिचित होता है। कुछ प्राचीन प्रयोग जो उसी समाज के उसी स्तर के पुरुषों की बोली से उठ चुके हैं वे महिलाओं की बोली में, लोकगीतों और संस्कार गीतों में, मुहावरों/लोकोक्तियों में, लोरियों और क्रीड़ा में बने रहते हैं। इसलिए किताबी भाषाविज्ञानी जहाँ इस संवाद में कोई योगदान नहीं कर सकते, वहाँ बोलियों की समझ रखने वाले अधिक उपयोगी हो जाते हैं। वे ऐसे समीकरणों पर जिनका अधिक स्वाभाविक वैकल्पिक रूप उनकी जानकारी में हो, सुझाव दे कर या यह जता कर ही कि यहाँ अधिक खींचतान से काम लिया गया है, या यह गले नहीं उतरता, उस पर पुनर्विचार में सहायक हो सकते हैं। परन्तु संस्कृत के आचार्यों द्वारा तैयार किए गए धातुपाठ की याद दिलाना हमारे काम का नहीं, यद्यपि पहुँचते हम भी धातुरूपों - वे मूल नाद जिनमें भाषा के विविध पदों का बीजरूप उपलब्ध हो- पर ही हैं।
संस्कृत से बचते हुए चलना इसलिए भी जरूरी है कि पाश्चात्य भटकाव संस्कृत को ही प्रमाण मानने के कारण आरंभ हुए, जिनसे बाहर निकलने का रास्ता भाषाशास्त्री आज तक नहीं तलाश सके। वह बोली जिसका क्रमिक विकास संस्कृत में हुआ, वह अन्यत्र न पाई जा सकती है न खींचतान कर गढ़ी जा सकती है। जो दबंगई संस्कृत भाषा के विषय में दिखाते हुए यूरोपीय वर्चस्व की स्थापना की गई वह उस बोली के साथ, उसे बोलने वालों के साथ नहीं की जा सकती थी।
( क्रमशः )
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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