गांधी भी अजीब हैं। जो उनसे नफरत करते हैं वे भी उन जैसा बनना चाहते हैं। वे न उगलते बनते हैं न निगलते। न उन्हें खारिज किये बनता है, न उन्हें अपनाए। खारिज़ करें तो दुनिया सवाल करने लगती है, अपनाएं तो आत्मा की शुचिता और दौर्बल्य आड़े आता है। दुनिया के इतिहास में किसी देश के स्वातंत्र्य संग्राम में शायद ही किसी व्यक्ति ने इतनी गहरी पकड़ और समाज के भीतर तक अपनी पैठ नहीं बनाए रखी होगी, जितनी गांधी ने भारत के इतिहास के 1920 से 1947 तक के काल खंड में बनाये रखी थी। लोग उनसे असहमत भी थे, नाराज़ भी, उनके आदर्शों से कोसो दूर भी थे, पर 1920 से 1947 तक जो गांधी ने कह दिया वही स्वाधीनता संग्राम की लाइन बनी। मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी, यह जुमला न जाने किस घड़ी में किस विद्वान ने कभी गढ़ा होगा, पर जिसने भी गढ़ा होगा सच ही कहा है। वह मज़बूरी बन गए थे, चर्चिल की जो उनको सनक की हद तक नापसंद करता था, पर बात भी उनसे ही करता था । वे मज़बूरी बन गए थे कांग्रेस की जिसे उनकी बात माननी ही थी। वे मज़बूरी बन गए थे सावरकर और उनके अनुयायियों कि जिनकी सारी रणनीति गांधी के अस्थिशेष शरीर और पोपले मुंह के सामने धरी की धरी रह गयी। भारत के आम जन मानस को धर्म के क्षेत्र में बुद्ध ने, साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने जितना प्रभावित किया उतना किसी ने भी नहीं किया होगा।
प्रधानमंत्री मोदी जी ने कहा गांधी भी बिरला के साथ रहते थे, तो वे भी पूंजीपतियों के साथ रहते हैं। अमर सिंह जी से हुंकारी भरवाते हुये उन्होंने कहा कि कांग्रेसी भी पूंजीपतियों के साथ छुप छुप कर मिलते हैं। बात उनकी भी सही है। कांग्रेस के भी इन्ही पूंजीपतियों से सम्बंध हैं जो आज सरकार के हम प्याला हम निवाला बने हुये हैं। यह भी सही है कि, बिरला परिवार गांधी जी का फाइनेंसर था। बिरला परिवार ही नहीं, जमनालाल बजाज, बनारस के बाबू शिवप्रसाद गुप्त आदि अनेक लक्ष्मीपुत्र उनके धन के स्रोत थे। पर गांधी ने कभी इन चंदा दाताओं को अपने आगे नहीं चलने नहीं दिया। उनके व्यापारिक हितों के लिये अपने संपर्कों का इस्तेमाल नहीं किया। कभी अपनी पीठ पर उनका हाँथ तो दूर अपने पास फटकने भी नहीं दिया। दो जोड़ी धोती, एक मजबूत लाठी, चमड़े की एक चप्पल, पतली कमानी का गोल शीशे वाला चश्मा और कमर से लटकती हुयी एक गोल घड़ी इसके अलावा कभी कुछ पहना भी नहीं। गांधी के इशारे पर ये कुछ भी निजी तौर पर उन्हें दे सकते थे। पर एक चीनांशुक का कुर्ता तक भी गांधी ने ग्रहण नहीं किया। उनके आश्रम का एक एक पैसे तक का हिसाब रखा जाता था। बिल्कुल बनियों की तरह हिसाबी,किताबी और कृपण थे गांधी।
प्रधानमंत्री जी ने अपने और पूंजीपतियों के रिश्ते को समझाने के लिये गांधी और बिरला परिवार का रूपक लिया है। पर वह यह भूल गए कि पीएम आज ऐसी स्थिति में हैं कि वे बिना एक ईंट के भी हवा में ही अपने किसी भी प्रिय उद्योगपति को सर्वश्रेष्ठ का दर्जा दे सकते हैं। जो पूंजीपति उनके पीठ पर हाँथ रख दे, जिसके विमान में सार्वजनिक रूप से सफर करें, जो उनके आवास में आत्मीयता से अपना नाम सुने, उसके किसी भी कदाचरण के खिलाफ किस नौकरशाह में यह साहस होगा कि वह उनकी छानबीन करे ? बिरला, बजाज आदि इस निमित्त नहीं गांधी जी से जुड़े थे कि वे उनसे लाभान्वित हों। ऐसा भी नहीं है कि गांधी सदैव बिरला के घर मे ही रुकते थे। वे कहां कहां रुकते थे, किससे किससे मिलते थे यह कोई रहस्य नहीं है। उनके जनता पर व्यापक प्रभाव और स्वीकार्यता का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा जब वो नोआखाली के दंगा पीड़ित इलाक़ों में शांति के लिये गांव गांव घूम रहे थे, और तब उन्हें माउंट बेटन ने वन मैन आर्मी कहा था।
संसार का कोई भी राजनीतिक दल या आंदोलन बिना धन के नही चल सकता है। वह धन आये कहां से यह दल और आंदोलन के नेताओं को सोचना है। गांधी ने जब दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के विरुद्ध अनायास एक आंदोलन शुरू किया तो वह आंदोलन दादा अब्दुल्ला जो अपनी वकालत के लिये उनको दक्षिण अफ्रीका ले गए थे के ही पैसे से नहीँ संचालित हुआ था, बल्कि गांधी जी ने फंडिंग के लिये सार्वजनिक रूप से चंदा लेने का क्रम शुरू किया। चंदे का हिसाब रखने और उसे सार्वजनिक करने की परम्परा भी उन्होंने शुरू की। धन के ट्रस्टीशिप का सिद्धांत शायद यहीं से गांधी के मन मे आया। भारत आने पर भी यही परम्परा बनी रही।
पर आज के राजनीतिक दलों से कहिये कि वे अपने चंदे की रकम को सार्वजनिक करें। एक भी दल शायद सार्वजनिक नहीं करना चाहेगा। प्रधानमंत्री जी अगर नेता पूंजीपति रिश्तों में गांधी का अनुकरण करना चाहते हैं तो यह देश के लिये एक सुखद खबर है। उन्हें तत्काल राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन को सार्वजनिक करने के लिये कानून बनाना चाहिये और इसे आरटीआई के दायरे में लाना चाहिये। अभी जो एक कानून बना है कि विदेशों से प्राप्त चंदे का स्रोत नहीं पूछा जा सकता है तत्काल निरस्त कर दिया जाना चाहिये। चुनाव सुधार की सिफारिशें जो सरकार के पास लंबित हैं उन पर तत्काल कार्यवाही होनी चाहिये। लेकिन वे नहीं करेंगे। वे ही नहीं शायद कोई भी राजनीतिक नेता, चाहे वह किसी भी दल का हो, यह नहीं करना चाहेगा। जिस दिन राजनीति में शुचिता के इतने बंधन आ जाएंगे तब शायद कमाने धमाने के उद्देश्य से आने वाले लोग राजनीति से किनारा ही कर लें। लेकिन ऐसी स्थित होगी, यह तो फिलहाल यूटोपिया, एक काल्पनिक आदर्शवाद ही प्रतीत होता है।
अंत मे मेरे घनिष्ठ मित्र श्रीप्रकाश राय की यह प्रतिक्रिया भी पढ़ लें।
" पूँजीपतियों से कांग्रेस का छुप छुप कर मिलना और मोदी का खुलकर पूँजीपतियों से गलबहियाँ करना ही देश की अर्थव्यवस्था की वास्तविक दिशा है।अभी देश में मूल संकट इसी कारपोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों का संकट है।मोदी सरकार का "विकास" जो डायनासोर की तरह मुँह बाये हुए हुए शहरों को स्मार्ट बनाने के लिये दौड़ रहा है वो इन्ही कारपोरेट घरानों की लालच है जिसकी पूर्ति के लिये देश के सार्वजनिक बैंकों की पूँजी लुटायी जा रही है।इन्ही लालची बनियों के लिये जंगलो पर क़ब्ज़ा कर आदिवासियों को नक्सलाईंट बताकर मारपीट कर भगाया जा रहा है।जिसके लिये सरकार अपने लाखों अर्धसैनिक बलों के साथ इन आदिवासियों से अघोषित युद्ध लड़ रही है।इन्ही लुटेरे औद्योगिक घरानों की लालच से सरकार किसानो की ज़मीन छीन रही है।इसी कारपोरेटपरस्ती के चलते देश की कृषिव्यवस्था चौपट हुई है और लाखों किसान आत्महत्या किये हैं।यही लुटेरे देश में बेरोज़गारी का संकट खड़ा कर करोड़ों बेरोज़गार नौजवानों का रोज़ीरोटी छीन लिये हैं। मोदी आज इन्ही कारपोरेट घरानों की दलाली कर रहा है।इस दलाल का असली चेहरा छुपा रहे इसलिये वो गांधी और बिडला के संबंधो की छतरी में अपने को छिपाना चाहता है।जनता इन लुटेरे कारपोरेट घरानों और इसके दलाल के ख़िलाफ़ सीधे संघर्ष में न आ जाय इसके लिये देश में गाय,गोबर,धर्म,जाति का ज़हर यह सरकार उगल रही है और जनता को ग़ैरज़रूरी वाहियात मुद्दों में भटकाए रखना चाहती है।ताकि कारपोरेट की लूट भी चलती रहे और दलाली भी चलती रहे।लेकिन बकरे की माँ कबतक ख़ैर मनायेगी?"
© विजय शंकर सिंह