अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे,
ख्वाब हो जाओगे, अफसानों में ढल जाओगे ।
अब तो चेहरों के खद ओ खाल भी पहले से नहीं,
किसको मालूम था, तुम इतने बदल जाओगे,
अपने परचम का कहीं रंग भुला मत देना,
सुर्ख शोलों से जो खेलोगे तो जल जाओगे ।
दे रहे हैं जो लोग तुम्हे रफाकत का फरेब,
इनकी तारीख पढोगे तो दहल जाओगे ।
अपनी मिट्टी पर ही चलने का सलीक़ा सीखो,
संग ए मरमर पर चलोगे तो फिसल जाओगे ।
ख़्वाबगाहों से निकलते हुये डरते क्यों हो,
धूप इतनी तो नहीं है कि पिघल जाओगे ।
तेज़ क़दमों से चलो, और तसादम से बचो,
भीड़ में सुस्त चलोगे तो कुचल जाओगे ।
हमसफ़र ढूंढो न रहबर का सहारा चाहो,
ठोकरें खाओगे तो खुद ही सम्भल जाओगे ।
तुम हो एक ज़िंदा जावेद रिवायत के चिराग
तुम कोई शाम का सूरज हो कि ढल जाओगे ।
सुबह ए सादिक मुझे मतलूब है किस से मांगूं
तुम तो भोले हो, चिरागों से बहल जाओगे ।
( इक़बाल अज़ीम )
मरकज - केंद्र, उद्देश्य, धुरी
रफाकत - संग साथ, मेलजोल
तसादम - विवाद
जावेद - अमर
सादिक - सच्चा
मतलूब - लक्ष्य
इक़बाल आज़मी मूल रूप से मेरठ के रहने वाले थे जिनका जन्म 1913 में मेरठ में हुआ था । 1947 के बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले गए । उनकी शिक्षा दीक्षा आगरा से सम्पन्न हुयी थी । उनके दो ग़ज़ल संग्रह , मिजराब और लव कुश के नाम से प्रकाशित हुये हैं। उन्होंने नात ( पैगम्बर की प्रशंसा में गायी जाने वाली कविता ) भी लिखी है जिसका एक संग्रह कब ए क़ौसेन के नाम से भी प्रकाशित हुआ है । बंगाल ( पूर्वी पाकिस्तान ) में उर्दू की स्थिति पर उनकी एक किताब मशरीकी बंगाल में उर्दू के नाम से भी है ।
( विजय शंकर सिंह )
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