Saturday, 21 October 2017

दीपावली पर नज़ीर अकबराबादी की एक नज़्म - दिवाली का सामान / विजय शंकर सिंह

हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिन में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मजा खुश लगा दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का।

जहाँ में यारो अजब तरह का है यह त्योहार
किसी ने नकद लिया और कोई करे उधार
खिलौने खीलों बतासी का गर्म है बाजार
हरइक दुकां में चिरागों की हो रही है बहार
सभों को फिक्र है अब जा यना दिवाली का।

मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते है कि लाला दिवाली है आई
बतासे ले कोई बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलौने वालों की उनसे ज़ियादा बन आई
गोया उन्हो के बां' राज आ गया दिवाली का।

सराफ़ हराम की कौड़ी का जिनका है व्योपार
उन्हींने खाया है इस दिन के वास्ते ही उधार
कहे है हँसके कर्जख्वाह' से हरइक इक बार
दिवाली आई है सब दे चुकायेंगे अय यार
खुदा के फ़ज्ल से है आसरा दिवाली का।

मकान लीप के ठिलिया जो कोरी रखवाई
जला च्रिराग को कौड़ी के जल्द झनकाई
असल जुआरी थे उनमें तो जान सी आई
खुशी से कूद उछलकर पुकारे ओ भाई
शगून पहले, करो तुम जरा दिवाली का ।

किसी ने घर की हवेली गिरी रखा हारी
जो कुछ थी जिन्स मुयस्सर जरा जरा हारी
किसी ने चीज किसी की चुरा छुपा हारी
किसी ने गठरी पड़ोसन की अपनी ला हारी
यह हार जीत का चर्चा पड़ा दिवाली का।

ये बातें सच है न झूठ इनको जानियो यारो
नसीहतें है इन्हें मन में ठानियो यारो
जहां को जाओ यह किस्सा बखानियो यारो
जो जुआरी हो न बुरा, उसका मानियो यारो
'नज़ीर' आप भी है ज्वारिया दिवाली का।
( नज़ीर' अकबराबादी )
नज़ीर अकबराबादी ( 1735 – 1830 ) १८वीं शदी के भारतीय शायर थे जिन्हें "नज़्म का पिता" कहा जाता है। इनका असल नाम वली मुहम्मद था और यह आगरा के रहने वाले थे , जिसका एक नाम अकबराबाद था ।  उन्होंने कई ग़ज़लें लिखी, उनकी सबसे प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक ग़ज़ल बंजारानामा है। दीवाली के अतिरिक्त, होली, जन्माष्टमी आदि पर्वों पर भी इन्होंने सुंदर और लम्बी नज़्में लिखी हैं ।

अमरेश दत्ता (2006) ने ' The Encyclopaedia Of Indian Literature (Volume Two) (Devraj To Jyoti), Volume 2. साहित्य अकादमी में उनके बारे में लिखा है कि,
" नज़ीर आम लोगों के कवि थे। उन्होंने आम जीवन, ऋतुओं, त्योहारों, फलों, सब्जियों आदि विषयों पर लिखा। वह धर्म-निरपेक्षता के ज्वलंत उदाहरण हैं। कहा जाता है कि उन्होंने लगभग दो लाख रचनायें लिखीं। परन्तु उनकी छह हज़ार के करीब रचनायें मिलती हैं और इन में से 600 के करीब ग़ज़लें हैं। "

उनकी मुख्य रचनाएँ है, बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम, शहरे आशोब । उन्होंने अरबी, फ़ारसी, उर्दू, पंजाबी, ब्रजभाषा, मारवाड़ी, पूरबी और हिन्दी भाषा में अपनी रचनाये की है ।

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment