ग़ालिब - 12.
अर्ज़ नाज़ ए शोखी ए दंदा , बराए खन्दा है,
दानाये जमइते अहबाब, जाए खन्दा है !!
दानाये जमइते अहबाब, जाए खन्दा है !!
Arz naaz e shokhee e dandaa, baraaye khandaa hai,
Daanaaye jam'ite ahbaab, jaaye khandaa hai !!
-Ghalib .
Daanaaye jam'ite ahbaab, jaaye khandaa hai !!
-Ghalib .
दांतों के चुलबुलेपन से भरी नज़ाकत का प्रदर्शन जिस प्रकार, हंसी और प्रसन्नता का प्रतीक है, उसी प्रकार प्रिय मित्रों का अपने पास एकत्र हो जाना भी प्रसन्नता और हंसी ख़ुशी का ही प्रदर्शन ।
दाँतों पर साहित्य में , चाहे वह संस्कृत साहित्य हो या आधुनिक साहित्य बहुत लिखा गया है । मुस्कान से दिखते धवल दन्त पंक्ति की तुलना अनार के दाने से की गयी हैं। हालांकि अनार का दाना धवल नहीं होता है । लेकिन जिस तरह से वह विवर रहित वह कसा होता है, वैसे ही दांत अच्छे और सुघड़ माने जाते हैं । मुस्कान खिले और दन्त दर्शन न हो, यह लगभग असंभव। ओढ़ी हुयी मुस्कान में तो दन्त दर्शन और भी होता है । ग़ालिब इसी दन्त दर्शन को इंगित कर अपनी बात कह बैठते है । दांतों का यहां एक और प्रतीक मुझे लगता है । जैसे ही कोई दांत साथ छोड़ता है , मुस्कान की गरिमा और लालित्य खंडित हो जाता है । मित्र मंडली भी, ग़ालिब के अनुसार दांतो की पंक्ति की तरह ही है । जैसे प्रसन्नता में सारे दाँत खिल जाते हैं, वैसे ही सब प्रिय मित्रों का समागम होता है तो वह भी इन्ही दांतों की तरह ही प्रसन्न दीखते हैं । दाँतों और मित्रों के एकत्रित हो जाने से जिस प्रसन्नता का यहाँ साम्य बिठाने का प्रयास किया गया है, वह अनुपम है ।
इस शेर की उर्दू कठिन है और उर्दू से अधिक यह फारसी के ही शब्दों से भरा शेर है । ग़ालिब मूलतः फारसी में ही लिखा करते थे । पर बाद में वे उर्दू में लिखने लगे । कल्पना, उपमा और अद्भुत अलंकारों से युक्त उनका साहित्य , उन्हें आज भी उर्दू ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं के सर्वमान्य कवियों में माना जाता है ।
( विजय शंकर सिंह )
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