Thursday, 18 August 2016

Ghalib - Allah re, zauq e dashtanvardee, / अल्लाह रे, जौक ए दश्तन्वर्दी - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह



ग़ालिब - 14, 
अल्लाह रे, जौक ए दश्तन्वर्दी ! कि बाद ए मर्ग,
हिलते हैं खुद ब खुद, मेरे अंदर कफ़न के पाँव !!

जौक ए दश्तन्वर्दी - जंगल जंगल की खाक छानने का शौक़, यायावरी. 
बाद ए मर्ग - मृत्यु के बाद. 

Allah re, zauq e dashtanvardee,! Ki baad e marg, 
Hilte hain khud ba khud mere andar kafan ke paaon !! 
-Ghalib.

हे ईश्वर, जंगल जंगल की खाक छानने का मेरा शौक़ कितना विचित्र है, कि मृत्यु के बाद भी मेरे पाँव कफ़न के अंदर हिल रहे हैं !

ग़ालिब इसे शान्ति और सुकून से जोड़ते हैं. कुछ ने इसे प्रेम से जोड़ा है. ग़ालिब का जो दार्शनिक पक्ष है वह इस प्रकार है. मन की शान्ति और सुकून के लिए मनुष्य जीवन भर जंगल जंगल , दर दर की खाक छानता है. पर जो चाहता है वह उसे कभी नहीं मिलता है. यदि मिल भी जाता है तो नयी कामना उत्पन्न हो जाती है. यह भटकाव ही उसकी नियति बन जाती है. अतः मैं भी इतना भटका हूँ कि जीवन का अंत हो गया पर जो भटकने की आदत है वह नहीं गयी. ऐसा लगता है कि अभी भटकाव या यात्रा अभी शेष है. इसी से मिलता जुलता भाव तुलसीदास ने राम चरित मानस में एक स्थान पर कहा है," डासत ही, बीत गयी निशा, कबहूँ न नाथ नींद भर सोयो." पूरी उम्र किसी न किसी फिक्र में , भटकाव में ही बीत गयी. पर चैन की नींद कभी नहीं मिली. 
-vss.

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