Monday, 22 August 2016

बलोचिस्तान का मुद्दा, कश्मीर की समस्या का समाधान नहीं है , यह पाकिस्तान की हरकतों का जवाब हो सकता है / विजय शंकर सिंह

कश्मीर की समस्या को दो भागों में बाँट कर देखिये ।
एक तो 1948 का पाक के कबायलियों का आक्रमण, राजा हरि सिंह का विलय पत्र पर हस्ताक्षर, नेहरू का यूएनओ को प्रकरण संदर्भित करना और पाक अधिकृत कश्मीर पर पाक का कब्ज़ा, और पाकिस्तान की गिद्ध दृष्टि ।
दूसरा है, वहाँ की जनता में शेष भारत के प्रति अवहेलना , उपेक्षा और कुछ लोगों में अलगाववादी भावना का पनपना, सुरक्षा बलों की कुछ ज्यादतियां, और साम्प्रदायिक आधार पर बढ़ता ध्रुवीकरण, हुर्रियत का पाक के इशारे पर नाचना और कश्मीर के बारे में देश के सभी दलों की एक साझी नीति का अभाव ।
पहला विन्दु वैदेशिक मामलों और कूटनीति से जुड़ा हुआ है ।
दूसरा विन्दु गृह नीति और सुरक्षा बलों की भूमिका से जुड़ा हुआ है ।

पहले विन्दु के बारे में बलोचिस्तान का मामला बहुत ज़ोरों से उठ रहा है । बलोचिस्तान पर हमने आज चिंता व्यक्त की है पर बलोचिस्तान का मामला आज का नहीं है । जिस दिन से बलोचिस्तान का जबरन विलय पाकिस्तान में कराया गया उसी दिन से वहाँ असंतोष पनपने लगा, और इस असंतोष को पाक ने सेना द्वारा दबाना शुरू किया । भारत के बंटवारे में जिन्ना के साथ, मुस्लिम लीग के जो नेता बहुत प्रमुखता से शामिल थे उनमे उत्तर प्रदेश और बिहार के मुस्लिम जमींदार तो थे ही, पंजाब और बंगाल के बहुत मुस्लिम जमींदार भी थे । पंजाब और बंगाल के भूभागों पर तो यह संशय था कि, इन प्रांतों का कौन सा हिस्सा पाक में जाएगा और कौन सा भारत में रहेगा, पर उत्तर प्रदेश और बिहार को तो भारत में ही रहना था, उन्हें या उनके किसी भी भाग को पाक में जाने का तो प्रश्न ही नहीं था । ये मुस्लिम नेता झूठे ही उछल कूद रहे थे । जब बंटा तो यूपी और बिहार से भी कुछ लोग पाकिस्तान गए । कुछ वे लोग थे जो पाकिस्तान के इलाक़ों में ही काम कर रहे थे और मुस्लिम थे तो वे वहीँ बस गए । कुछ यहां से बेहतर भविष्य के लिए गए । सिंध बंटा नहीं था । सिंध से लगा राजस्थान का अधिकतर इलाक़ा देसी रियासतों का था तो उन का तो विभाजन हो नहीं सकता था, क्यों कि विभाजन तो ब्रिटिश भारत का ही होना था । रियासतों को तो भारत या पाक में किसी एक में मिलने अथवा स्वतंत्र रहने का विकल्प था । यहां से जो गए उन्होंने अपने विस्थापन या जलावतनी को हिजरत कहा और वे मुहाजिर कहलाये । ये मुहाजिर जहां जहां से हिन्दू आ रहे थे वही समाये और इनकी अधिकतर संख्या कराची या आस पास ही केंद्रित हुयी । कराची मुम्बई टाइप शहर था और उद्योगों तथा वाणिज्यिक केंद्र था, रोज़गार का अवसर वहाँ खूब था, तथा वह पाकिस्तान की राजधानी भी थी, तो यहां से गए लोग वहाँ अधिक पहुंचे और इनकी संख्या वहाँ बहुत हो गयी । पंजाब तो आधा आधा बंटा ही था । भारतीय पंजाब से मुस्लिम पाक पंजाब की ओर गए और पाक पंजाब से हिन्दू सिख इधर आये । बलोचिस्तान एक रेगिस्तानी और पहाड़ी इलाक़ा तथा वह रियासत था तो वहाँ कोई नहीं गया क्यों की बंटवारे के समय वह पाक का अंग ही नहीं था बल्कि स्वतंत्र राज्य था । ऐसी ही स्थिति नार्थ वेस्ट फ्रंटियर की भी थी । वहाँ के पठानों में मुस्लिम लीग का प्रभाव कम था । सरहदी गांधी का प्रभाव बहुत था ।

पाकिस्तान की राजनीति में सिंध और पंजाब का बोलबाला था । सेना में पंजाबी बहुत थे । कराची से जब राजधानी इस्लामाबाद गयी तो शासन और प्रशासन में पंजाबी हावी हो गए और फिर शुरू हुआ संस्कृति का टकराव । पंजाब, सिंध बलोच और पख़्तूनों की अलग अलग भाषा और संस्कृति थी । सिर्फ मजहब एक ही था । पाक ने अपनी राष्ट भाषा उर्दू बनायी जो वहाँ के किसी भी प्रांत की भाषा नहीं थी । सच तो यह है कि उर्दू पैदा ही हैदराबाद में हुयी और एक सामान्य बोलचाल की भाषा के रूप में लोकप्रिय हुयी । व्याकरण इसका हिंदी या खड़ी बोली या भाषा का है और पाकिस्तान के किसी भी प्रांत में यह प्रमुखता से नहीं बोली जाती थी । पंजाब में पंजाबी , सरायकी, सिंध में सिंधी, बलोचिस्तान में बलोची, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर में पश्तो , और उधर पूर्वी पाक में बांगला प्रमुख भाषा थी । जहां तक साहित्य का प्रश्न है बांग्ला का साहित्य सबसे अधिक समृद्ध, फिर पंजाबी का और तब सिंधी , बलोच और पश्तो का है । उर्दू मुख्यतः यूपी, बिहार, पंजाब के पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश, हैदराबाद रियासत और राजस्थान की ही भाषा थी । अंग्रेजों ने जब मुग़लों से सत्ता ली तो उन्होंने फारसी की जगह अंग्रेज़ी को राज भाषा बनाया और उर्दू निचले प्रशासन की भाषा बनी । कांग्रेस ने जब गांधी के नेतृत्व में हिंदी या उर्दू हिंदी के मेलजोल की भाषा देवनागरी लिपि में  हिंदुस्तानी को अपनी मुख्य भाषा घोषित किया तो, मुस्लिम लीग ने उर्दू को जो थोड़े अधिक फारसी शब्दों को लिए हुए पर फारसी लिपि में थी को अपनी भाषा मान लिया । पाकिस्तान बनने पर, उर्दू के ही राष्ट्र भाषा बनाये जाने पर सहमति बनी और वह नए राष्ट्र पाक की भाषा घोषित हुयी । इसका सबसे पहला विरोध बांग्लादेश में हुआ क्यों कि बांग्ला उर्दू की तुलना में अधिक समृद्ध और व्यापक प्रसार की भाषा थी ।

अब पूर्वी पाक में तो जो हुआ उसका अंजाम तो 1971 में बांग्लादेश के रूप में निर्माण में हम देख ही चुके हैं इधर सिंध में भी एक आंदोलन जीए सिंध उठ खड़ा हुआ । यह आंदोलन भी पंजाबी वर्चस्व के कारण ही उठा । पर चूँकि यह भौगोलिक रूप से बंगाल के समान अलग और दूरी पर नहीं है अतः इस आंदोलन को दबा दिया जाना पाक के लिए आसान रहा । इसी के साथ बलोचियों का आज़ादी के लिए आंदोलन शुरू हो गया । बलोच, अपने मुल्क को,  पाक द्वारा कब्ज़ियाया हुआ इलाक़ा मानता है, और वह है भी । अतः उनका आंदोलन अपनी आज़ादी के लिए था । यह दोनों आंदोलन अपनी भाषायी और सांस्कृतिक अस्मिता के नाम पर संगठित हुए । मुहाजिर जो यूपी बिहार या भारत के अन्य भूभाग से गए थे, उनकी तो संस्कृति ही पंजाबी सिंधी बलोच या पख़्तूनों से बिलकुल अलग थी । उनकी संस्क़ति ही यूपी बिहार की थी । वे तो इस्लाम के नाम पर बरगलाये गए और पगलाये लोग थे । इन संस्कृतियों के समर में वे अलग थलग पड़ गए और उनका एक अलग आंदोलन चल पड़ा । यह आंदोलन मुत्ताहिदा क़ौमी मूवमेंट के रूप में चला और उनके नेता हैं अल्ताफ हुसैन । पहले इसका नाम मुहाजिर क़ौमी मूवमेंट था । पर बाद में इसका नाम मुत्ताहिदा हो गया ।  यह दल खुद को धर्म निरपेक्ष कहता है । अल्ताफ हुसैन आगरा के रहने वाले हैं और इस समय स्वतः निर्वासन के रूप में इंग्लैंड में है ।

इसी प्रकार बलोच आंदोलन पाक से अलग होने का आंदोलन है । वहाँ सेना का दमन लंबे समय से है । मानवाधिकारों का हनन वहाँ बहुत ही क्रूरतम रूप से हैं । पाकिस्तान का मनोबल तोड़ने के लिए बलोचों की आवाज़ उठाने में कोई हर्ज़ नहीं है । और इस अभियान में बांग्लादेश , अफगानिस्तान आदि को भी जोड़ने में कोई हर्ज़ नहीं है । यह क़दम पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से अलग थलग करने और उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बेनकाब करने के लिए काम तो आएगा पर इस क़वायद से कश्मीर की समस्या का समाधान होगा मुझे नहीं लगता है ।

दूसरा विन्दु है कश्मीर की भीतरी समस्या । हरि सिंह द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने में विलम्ब, पाक कबायलियों का हमला, सेना का अभियान, यूएनओ से गुहार आदि घटनाएं अचानक एक एक कर के घटती गयीं । आंदोलन से सरकार में आने वाले नेता जब सत्ता पाते हैं तो थोडा भ्रमित हो जाते हैं । आंदोलन आदर्शों और थोडा बहुत लफ़्फ़ाज़ी पर चलता है और सत्ता आदर्शों पर ही नहीं चलती है वह व्यावहारिक तरीके से चलती है । आज़ाद भारत की सेना भी इतनी संगठित नहीं थी और उस समय कमांडर इन चीफ भी अँगरेज़ ही था । आने जाने , संचार और युद्ध के अन्य संसाधन भी नहीं थे । यूएनओ जाना एक भूल थी पर हो सकता है उन परिस्थितियों में यही अच्छा निर्णय लगा हो । पर कश्मीर के 1948 के युद्ध विराम के बाद जब लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल खिंच गयी तब से ले कर लंबे समय तक कश्मीर में शान्ति रही ।

1971 में पाक टूट गया और बांग्लादेश बन गया था । तब पाक ने हार और बिखराव की खीज, निकालने के लिये, कश्मीर और पंजाब दोनों को अशांत करने का षडयंत्र रचा। पंजाब में उसने खालिस्तान को हवा दी और कश्मीर में पाक के ही शह पर 29 मई 1977 को बर्मिघम , इंग्लैण्ड में अमानुल्ला खान और मक़बूल बट्ट के नेतृत्व में जेकेएलएफ , जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की स्थापना हुयी । यह एक आतंकी संगठन है । इसका उद्देश्य पाक के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के आधार पर , कश्मीर को मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा मानते हुए ,पाक में मिलाना था । इस आतंकी संगठन की शाखाएं इंग्लैंड, यूएसए, तथा मध्य पूर्व के खाड़ी देशों में खुली थी । मक़बूल बट को एक आतंकी घटना में हत्या का दोषी पाये जाने के कारण 11 फारवरी 1984 को फांसी दे दी गयी । 1994 में इस संगठन में दरार पड़ गयी । इसके मुखिया यासीन मलिक ने इसे भूमिगत गतिविधियों से अलग कर लिया और राजनीतिक रास्तों से कश्मीर की आज़ादी का आंदोलन चलाने लगा । जेकेएलएफ की आतंकी गतिविधियां चलती रहीं और 9 मार्च 1993 में जम्मू कश्मीर के 26 राजनीतिक और धार्मिक संगठनों ने मिल कर आल पार्टी हुर्रियत कांफेरेंस का गठन किया । हुर्रियत का शाब्दिक अर्थ ही आज़ादी होता है और इनका गठन ही पाकिस्तान के इशारे पर उसी की योजना और उसी के दिए धन से किया गया। हुर्रियत ने चुनाव का विरोध किया और घाटी में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हमेशा बनाये रखने में जाल साज़ी और अफवाहें भी फैलायी । लेकिन धीरे धीरे इनकी कलई उतरती गयी और ये अप्रासंगिक होते गए। आज भी हुर्रियत का बहुत प्रभाव वहाँ नहीं है और अपने गठन के बाद यह कई फांकों में बंट चुकी है ।

कश्मीर में आज की सबसे बड़ी समस्या है वहाँ की जनता से संवाद और उनका विश्वास जीतना । अविश्वास के माहौल में कभी भी शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती है । सेना के बल पर तात्कालिक शान्ति भले स्थापित हो जाय पर स्थायी शान्ति असंभव है । अभी उत्तरी कमान ने आर्मी कमांडर ले. जनरल डी एस हूडा ने एक महत्वपूर्ण बात कही है कि, राजनीतिक समाधान से ही कश्मीर की समस्या का हल हो सकता हैं। यह एक अच्छी बात है कि वहाँ और केंद्र में एक ही दल की सरकार है । कुछ मित्र इसे साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से देखते हैं । पाकिस्तान और हुर्रियत यही चाहता है कि यह सारा मामला ही हिन्दू मुस्लिम एंगल पर बँट जाय । वह कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के कारण ही अपना असमाप्त कार्य unfinished agenda कहता है । इस ट्रैप में अगर हम फंस गए तो कश्मीर की समस्या और बिगड़ जायेगी ।

बलोचिस्तान के मानवाधिकार उल्लंघनों की आवाज़ उठाते समय हमें यह भी सतर्क रहना होगा कि, कश्मीर में सुरक्षा बलों से भी कोई ज्यादतियां न हो । पेलेट गन के विवाद ने इस मोर्चे पर हमारी किरकिरी कराई है । क़ानून व्यवस्था लागू करते समय सुरक्षा बलों द्वारा या छिटपुट जवानों द्वारा ज्यादती की घटनाएं हो जाती है । ये घटनाएं जिस दिन संस्था की ज्यादतियां बन जायेगी उसी दिन से और समस्या उलझेगी । इसे व्यक्ति विशेष की ज्यादतियों के रूप में लेते हुए, उस आरोपित व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिए और जनता तथा को मिडिया को भी ऐसी कार्यवाही से अवगत कराना चाहिए ।  कश्मीर में फिलहाल ऐसा कोई नेतृत्व नहीं है जो सब पर असर रखता हो । कुल मिला कर यह साख का संकट है और साख बनाये बिना वहाँ शान्ति स्थापित नहीं होगी । बलोचिस्तान के मामले से हम पाकिस्तान को घेर सकते हैं , उसे बेनकाब कर सकते हैं पर कश्मीर की समस्या का समाधान और वहाँ शान्ति बहाली , बिना वहाँ की जनता का विश्वास जीते असंभव है ।

( विजय शंकर सिंह )

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