Saturday, 27 August 2016

एक कविता... कितने अरसे बाद मिले हो / विजय शंकर सिंह



पूछ रहे हो, हाल हमारा,
जुग बीते , तुमसे बात किये,
फिर भी, इतने रस्मी क्यों हो ।
कुछ अपनी भी बात कहो
तुम बिन , मेरा हाल क्या होगा,
सोचा है तुमने, कभी दिल से,
कितने अरसे बाद मिले हो !

कितने मौसम पार हुए,
अरमाँ कितने दफ़न हुए,
कितनीं रातें जग कर काटीं,
आज मिले तो पूछ रहे हो ,
मान नहीं और न उपालम्भ यह
द्वंद्व है मन के भीतर का ,
कितने अरसे बाद मिले हो !

आओ बैठो कुछ बात करें,
जग बीती अब आज न पूछो,
निशा दे रही अजब निमंत्रण
मस्त पवन छू छू कहता है,
रेत पर नाम,किसके थे वह,
चुप चाप जिसे तुम लिखते थे?
कितने अरसे बाद मिले हो !

हंस कर यूँ ही उड़ा दिया
जैसे धूल अक्सर उड़ती है,
मुट्ठी में रेत कहाँ टिकती है !
अब आँखों में नींद कहाँ,
सपने देखूं, यह ताब कहाँ,
तुम ही कहो , कैसे हो तुम,
कितने अरसे बाद मिले हो !

क्या तुम भी,इतने व्याकुल थे, ?
पहरों तारे गिनते रहते थे?
चाँद तुम्हे भी तड़पाता था?
सच कहना,ऐसा ही था न,
न हो ऐसा,तब भी कहना,
सुनो, आज फिर झूठ ही कह दो ,
कितने अरसे बाद मिले हो !

छोडो,सारे शिकवे गिले,
यह दुनिया तो फानी है,
कौन यहां रहता है बराबर,
किस को कहाँ, कब चैन मिला है !
आओ अब सब भूल प्रिये,
एक नया फिर ख्वाब बुनें,
कितने अरसे बाद मिले हो !!

© विजय शंकर सिंह

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