Wednesday, 17 August 2016

बलोचिस्तान, सिंध और पाक अधिकृत कश्मीर तथा द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत / विजय शंकर सिंह

एक और आन्दोलन चला था, पाकिस्तान के सिंध में, नाम था उसका जीये सिंध । अब क्या हुआ उसका यह पता नहीं । अभी कुछ जान उस आंदोलन में बाक़ी है या सब खामोश हो गया है । कुछ खबर इधर नहीं आ रही है ।  अब बलोच की आज़ादी का आंदोलन ज़ोरों पर है । और पाक के दमन ने उसे और गति प्रदान कर दी हैं। पर बलोचिस्तान के  इस आंदोलन से एक और सीख मिलती है, जिसका उल्लेख कुछ मित्र गण करने से कतरायेंगे । थोडा महठियाएंगे । और तुरंत बात घुमाएंगे । थोडा फ़्लैश बैक देखें ।

जब पाकिस्तान की बात चली तो एक जनाब थे चौधरी रहमत अली । वह लन्दन में थे और वहाँ पढ़ने गए थे । अंग्रेज़ो ने 1857 के विप्लव से एक सीख ग्रहण की थी कि देश पर राज करना है तो, हिन्दू मुस्लिम एकता को तोडना पड़ेगा और दोनों के बीच अविश्वास का वातावरण बनाना पड़ेगा । उन्होंने अपने एजेंडे पर काम करना शुरू भी कर दिया था । उन्होंने मुस्लिम नवाबों और ज़मीन्दारों को मुस्लिम लीग के गठन के लिए प्रेरित किया । शुरू शुरू में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन साथ साथ ही होते थे । पर धर्म की खटास बढ़ती गयी और दोनों में मतभेद पनपने लगे । उन्ही  रहमत अली ने जब अंतर्विरोध बढ़ने लगे तो, एक नक़्शा खींचा और बंगाल , आसाम, पूर्व में और पश्चिम में पंजाब, सिंध , नार्थ वेस्ट फ्रंटियर, को मिला कर एक प्रस्तावित मुस्लिम बहुल इलाके की पहचान की और उसका नाम रख दिया पाकिस्तान । पाक यानी पवित्र भूमि ।अल्लामा इक़बाल एक बड़े शायर थे और दार्शनिक सोच के भी थे । वे तीन पीढी पहले कश्मीरी पंडितों के खानदान से थे । कौमी तराना, " सारे जहां से अच्छा " उन्होंने ने ही लिखा था । फिर उन्हें मुस्लिमों का कष्ट दिखा तो उन्होंने ' शिकवा ' लिख दिया । शिकवा के बाद जब लगा कि अल्लाह से पंगा लेना उचित नहीं है तो, ' जवाब ए शिकवा ' लिखा । वे इस्लाम के दर्शन तौहीद , यानी अद्वैतवाद से बहुत प्रभावित थे । कश्मीर का सूफी मत भी उन पर हावी रहा । सनातन धर्म के संस्कार तो जीन में थे ही । उनकी कृति जावेदनामा पढ़िए, इक़बाल के अद्भुत अद्वैतवाद की सोच का पता चलता है । इक़बाल ने मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन में पाकिस्तान की अवधारणा को रखा । तब किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया । मुस्लिम लीग का गठन 1906 में ढाका के नवाब के सदारत में हो चुका था । इसमें आम मुस्लिम कम और मुस्लिम ज़मीनदार और नवाब बहुत थे । उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकाँश मुस्लिम ज़मीदार उस समय मुस्लिम लीग में थे । पाकिस्तान के इस अवधारणा की चर्चा जब मुहम्मद अली जिन्ना से की गयी तो उन्होंने कहा कि, यह कल्पना की बातें हैं और इकबाल तो एक शायर हैं , और शायर तो कल्पना में ही जीते हैं । जिन्ना ने इस बात को उड़ा दिया । वक़्त के साथ साथ इक़बाल भी दिवंगत हो गए , चौधरी रहमत अली भी कहीं खो गए और मुस्लिम लीग के नेता बन गए जिन्ना ।

जिन्ना साहब एक बड़े और प्रतिभाशाली वकील थे । सूट बूट के शौक़ीन। सिगार और शराब के आदी । बड़े साहबों की महफ़िलों की जान । अंग्रेज़ी पर ज़बरदस्त अधिकार । एक घर लन्दन में एक बम्बई में । जिद्दी और नकचढ़े । आत्म सम्मान तो  उनमे था ही । सोच से सेकुलर । गांधी के सादगी को पाखण्ड समझते थे और उन्हें गांधी को महात्मा कहने पर ऐतराज था । सदारत मुस्लिम लीग की  की , पर इस्लाम से कोई प्यार नहीं । नमाज़ और रोज़े के प्रति कभी पाबन्द नहीं रहे । एक बार मौलाना हसरत मोहानी उनसे मिलने गए । महीना रमज़ान का था । जिन्ना साहब दोपहर में शराब पी रहे थे और सासेज़ खा रहे थे । मौलाना ने लाहौल पढ़ा और याद दिलाया कि यह तो माह ए रमज़ान है । जिन्ना ने उनकी बात पर गौर भी नहीं किया । उलटे उन्ही को साथ भोजन करने की दावत दे दी । मौलाना ठहरे धार्मिक व्यक्ति । कान छुए और सरक लिए । वह कांग्रेस में थे । गांधी के जीवनीकार एक अँगरेज़ पत्रकार लुइ फिशर ने उनकी जीवनी में लिखा है कि,
"यह भी एक विडंबना है कि गांधी जिन्होंने जीवन भर एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति की तरह आचरण किया , ने एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना पर ज़ोर दिया और धर्म निरपेक्ष राज्य स्थापित किया, वहीँ जिन्ना जो जीवन भर धर्म निरपेक्ष सिद्धांतों के पैरोकार रहे, उन्होंव धर्म आधारित राज्य की स्थापना की ।'"
जिन्ना ने गांधी के खिलाफत आंदोलन की मुखाफलत की थी । यह आंदोलन , राजनीति में धर्म के मुद्दे का अतिक्रमण था । यह एक भूल थी ।

जिन्ना ने एक नया सिद्धांत निकाला, धर्म ही राष्ट्र है । हिन्दू और मुस्लिम दो धर्म नहीं दो राष्ट्र हैं । एक काबिल वकील की तरह उन्होंने तर्क दिया,
" यह दो धर्म नहीं दो कौम है । ( कौम यहां नेशन के रूप में उन्होंने रखा ) इनके आराध्य अलग अलग है । इनके नायक अलग अलग हैं । एक का नायक, दूसरे के लिए खलनायक के रूप में जाना जाता है । एक एकेश्वरवाद पर विश्वास करता है तो दूसरा बहुदेववाद पर । एक मूर्तिपूजक है तो दूसरे के यहां मूर्तिपूजा हराम है । इनके खान पान, पहनावा और दर्शन सोच सब एक दूसरे के विपरीत और अलग अलग हैं । दोनों साथ कैसे रह सकते हैं । इस प्रकार यह दो राष्ट्र हैं और दो राष्ट्र एक साथ नहीं रह सकते । इन्हें बंटना ही होगा । "
यह बात जब लार्ड माउँटबैटन से कही गयी तो, उन्होंने कहा कि
" हिन्दू मुसलमान तो  हर गाँव गाँव शहर शहर में है । क्या यह दो राष्ट्र गाँव गाँव में होंगे । "
जिन्ना ने कहा
" जी । ऐसा है । "
माउंटबैटन ने कहा यह तो बहुत खतरनाक सोच है । जिन्ना ने कंधे उचकाए और चुप हो गए ।
यह पागलपन की पराकाष्ठा थी । इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया हिन्दू संगठनों में हुयी । और संघ , हिन्दू महासभा ने इसी सिद्धांत को पकड़ा और आगे बढ़ाया । पर जितना समर्थन मुस्लिम्स का मुस्लिम लीग को था, उतनी पैठ, हिंदुओं में संघ और सभा नहीं बना पायी थी । गांधी का जादू तोडना आसान नहीं था । पर खीज और कुंठा तो थी ही । परिणाम 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या हुयी । और संघ तथा सभा का गांधी विद्वेष जो आज भी दिख रहा है वह उसी कुंठा का परिणाम है ।

जिन्ना अकेले आज़ादी के संग्राम के नेता थे जो कभी जेल नहीं गए । किसी आंदोलन में भाग नहीं लिया । पर वे अंग्रेजों द्वारा हर कमेटी , गोष्ठी और वार्ता में बुलाये जाते । गांधी के कद का नेता तो और कोई था नहीं जो गांधी का विरोध कर सके, अतः जिन्ना को अंग्रेजों ने यह अवसर दिया । पाकिस्तान के लिए भी जिन्ना ने कोई जन आंदोलन नहीं किया, और न ही उन्होंने कोई धरना , सत्याग्रह आदि किया । हाँ किया तो 16 अगस्त 1946 को सीधी कार्यवाही यानी डाइरेक्ट एक्शन दे का एलान किया । 16 अगस्त 1946 को लाखों हिंदुओं की हत्या कलकत्ता में हुयी और वहाँ मुस्लिम लीग की सरकार थी, जिसने कोई भी प्राशासनिक इंतज़ाम इस संहार को रोकने के लिए नहीं किया । फिर इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुयी और दोनों ही धर्मों के लोगों ने एक दूसरे का गला काटा । यह एक भयंकर दंगा था । बंगाल का प्रीमियर सुहरावर्दी था । इसके बाद तो विभाजन के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा । जिन्ना ने खुद भी एक स्थान पर कहा है कि,
" उन्होंने पाकिस्तान केवल एक स्टेनो और पेटिशंस तथा बात चीत से ही लिया है । "
उनकी भूमिका एक अच्छे वकील की तरह थी । जिसने पाकिस्तान के गठन के लिये मुक़दमा लड़ा और जीता ।

जिस द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान बना , वह शुरू से ही गलत था । जिन्ना को उम्मीद ही नहीं थी कि उनकी ज़िद मान ली जायेगी। पर जब उन्माद की आग फैलती है तो वह कभी भी आग लगाने वालों के क़ाबू में नहीं रह पाती । पाकिस्तान बनने के पांच छः साल में भाषा का मुदा धर्म के ऊपर हो गया । बांग्लादेश सुलगने लगा और अनृतः 1971 में वह अलग हो गया । सिंध में जीए सिंध आंदोलन उठा और यह आंदोलन भी भाषा और संस्कृति को ले कर है । अब भी वह आग कही  न कहीं दबी हुयी है । सुलगेगी ज़रूर । पाकिस्तान की राजधानी कराची से इस्लामाबाद चली गयी । यह पंजाबी वर्चस्व की जीत थी । सेना में 80 प्रतिशत लोग पंजाब से थे ।  सिंध की संस्कृति, भाषा सब पंजाब से अलग । केवल धर्म एक था । समरसता और बहुलवादी संस्कृति जो भारतीय उपमहाद्वीप की जान  और पहचान है, वह जब भुला दी गयी तो संस्कृतियों में टकराव होना ही था । उधर नार्थ वेस्ट फ्रंटियर तो बंटवारे के पक्ष में ही नहीं था । खान अब्दुल गफ्फार खान , सरहदी गांधी ने कहा भी था गांधी जी से, बंटवारे की बात तय हो जाने पर कि,
" आप ने तो हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया । "
फ्रंटियर में मुस्लिम लीग, मुस्लिम बहुल होने के बाद भी बहुमत नहीं पा सकी थी । वहाँ कांग्रेस को सीटें मिली थीं।

बलोचिस्तान का तो मामला ही अलग था । वह तो रियासती क्षेत्र था । और इसे तीन विकल्पों , या तो खुद आज़ाद हो जाए, या तो पाक में शामिल हो जाए या भारत में मिल जाए । बलोच, पाकिस्तान में मिलना नहीं चाहते थे । भारत में मिलना सीमागत दूरी के कारण संभव नहीं था, अतः उसने खुद ही आज़ाद रहने का निर्णय किया । इस विषय पर अलग से लिखूंगा ।

आज पाकिस्तान के पास जो कुछ भी इलाक़ा है उनमें सिर्फ एक बात  साझी है कि, उनका मजहब एक है और वे सभी इस्लाम को मानने वाले हैं । एक ही सफ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़ की एक इमोशनल फीलिंग ने मजहब को राष्ट्र का रूप दिया । पर मजहब और मुल्क समानार्थी हैं, की बात कहने वाले जिन्ना और उनके अनुयायी यह भूल गए, इस्लाम की बहुलता वाले या शत प्रतिशत मुसलमान आबादी वाले कुल 53 मुल्क दुनिया में आबाद है, जो कभी भी एक साथ नहीं रहे हैं बल्कि कुछ तो एक दूसरे के दुश्मन भी रहे हैं और हैं । अरब की ईरान से नहीं बनती, ईराक की ईरान से नहीं बनती, अफ़्रीकी इस्लामी देश आपस में ही जूझते रहते हैं । काबा की तरफ मुंह कर के सब इबादत करते है पर सब एक दूसरे से भाषायी और सांस्कृतिक रूप से बिलकुल अलग हैं । यहां तक की एक ही धर्म में भी, फिर्केवार अलग अलग हैं । मजहब हममजहब को जोड़े रखता है यह एक भ्रम था और है । दोनों महायुद्ध जिन ताक़तों के बीच हुए वे सभी ईसाई थे । साथ रहने और निभाने का जो भाव होता है वह धर्म से अधिक क्षेत्र, सोच, भाषा, सभ्यता और संस्कृति के आधार पर अधिक होता है, बनिस्बत धर्म के आधार पर । धर्म की एकजुटता का नारा और उसे बचाने की गुहार केवल राज्य विस्तार की एक शातिर चाल है । और कुछ नहीं । आज भी पाक अधिकृत कश्मीर, बलोचिस्तान, और मुहाजिरों पर जो मजहब के आधार पर ही पाकिस्तान में हैं के ऊपर जब जुल्म होता है, उनकी हत्या होती है, तो, मजहब का मुद्दा कहाँ खो जाता है ?

सिंध, बलोच और पीओके के असंतोष से सबसे बड़ी सीख यह मिलती है कि धर्म और राष्ट्र बिलकुल अलग अलग चीज़ें हैं और, केवल किसी धर्म के आधार पार किसी राज्य का गठन , बहुलतावादी संस्कृति की परम्परा वाले देश में संभव ही नहीं है । मैं इसी लिए हर प्रकार के धार्मिक अन्धवाद या थीयोक्रेटिक राज्य की अवधारणा के विरुद्ध हूँ । भारत एक बहुलतावादी धर्म और बहुसंस्कृति का देश है । अनेकता में एकता इसकी विशिष्टता है । इस मूल चरित्र को जिस दिन हम छोड़ देंगे उसी दिन से हम पाक का मरा हुआ द्विराष्ट्रवाद जीवित कर देंगे । पाकिस्तान का विघटन उसके जन्म के समय ही तय हो गया था । उन्माद किसी देश के गठन का आधार न तो कभी रहा है और न कभी रहेगा । धर्म और ईश्वर के अवधारणा की खोज ही मनुष्य के कल्याण के लिए की गयी है न कि मानव संहार के लिए ।

( विजय शंकर सिंह )

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