Thursday, 11 August 2016

आज़ादी बरक्स द्रोपदी सिंघार की एक कविता / विजय शंकर सिंह

फेसबुक पर एक नयी कवियित्री छायी हुयी है । नाम है द्रोपदी सिंघार । यह आदिवासी है और एक विद्यालय की अध्यापिका भी । फेसबुक पर इनकी कवितायें कुछ मित्रो ने साझा की और थोड़ी निगाह मेरी भी गयी । कुछ कविताओं को पढ़ा और कुछ को बार बार पढ़ा । कुछ हैरान हुआ तो कुछ विचलित भी । कवितायें बिलकुल सपाट , बिना छंद और अलंकार के, जीवन के साथ साथ चलती हुयी , ज़िंदगी के पैबंद और उन्हें उघाड़ कर झांकती हुयी, गढ़े गए, आदर्शवाद को तोड़ते हुए लगीं । कुछ शब्द , हो सकता है , लोग कहें , कि अश्लील हैं और सभ्य समाज के बीच नहीं कहे जाने चाहिए । कुछ शब्द, अंगवस्त्रो को छूते और पाखण्ड को खंड खंड करते मिले । मैं कोई आलोचक नहीं हूँ और न ही कविता को उनके प्रतिमानों के आधार पर पढता हूँ । जो कविता, साहित्य मुझे रुचता है और जो पचता है वह मैं पढता हूँ । आक्रोश की अभिव्यक्ति भी अगर कोई सोचे कि, वह किसी तय शुदा मापदंडों पर ही होगी तो यह भ्रम है । आक्रोश को आप ज्वालामुखी जानिये । उबलता रहता है अंदर अंदर, और जब उबाल निर्बंध हो जाता है तो फट पड़ता है । फिर चाहे गाँव के गांव जल जाएँ या लावा जहां तक भी जाए, फैलता ही रहता है । ऐसी ही प्रवित्ति है, आक्रोश की । जब फूटता है तो वह भी शब्दों की मर्यादा तोड़ कर ही निकलता है । इन कविताओं में शब्दों की मर्यादा टूटी है और कुछ शब्द असहज कर सकते हैं । पर यह प्रलाप क्यों ? आक्रोश का ही तो परिणाम है । पर आक्रोश क्यों ?? बस हम सब इसकी खोज में नहीं पैठना चाहते हैं । क्यों कि यह सारे आदर्शों को बेनकाब कर देगा, सारे सुसंस्कृत शब्दों को अनाव्रित्त कर देगा । लोग मर्यादा याद दिलाएंगे और याद दिलाने लगेंगे संस्कृति की महानता । द्रोपदी ने कितना पढ़ा है यह मुझे नहीं मालूम पर उन्होंने अपने आस पास के समाज को बहुत ही पैनेपन से देखा है । उन्होंने सभ्य समाज की आँखें पढी हैं और उन आँखों के हलाहल भी देखे हैं जो अमिय और मद के बीच स्पष्ट दीखते हैं । और जो देखा है , जस की तस धर दिया है ।

यह कविता 15 अगस्त पर है । आज़ादी का सप्ताह और तिरंगा यात्रा चल रही है । पूरा देश लुटियन की दिल्ली नहीं पर द्रोपदी का लुटा पिटा समाज भी है । समाज तो यह हमारा भी है पर हम सब उस समाज में खड़े हो कर लुटियन में बसने का ख्वाब देखते हैं । बिलकुल कीचड़ में खड़े हो कर चाँद के मोहक सफर पर आह्लादित होते हैं ।

१५ अगस्त
- द्रोपदी सिंघार .

बासी भात खाके भागे भागे पहुँचे
ठेकेदार न इंजिनीर था
दो तीन और मजूर बीड़ी फूँक रहे थे
दो एक ताड़ी पीके मस्ताते थे

ठेकेदार बोला आज १५ अगस्त है
गांधी बाबा ने आजादी करवाई है आज
आज परब मानेगा आज त्योहार मनेगा

आज खुशी की छुट्टी होगी
आज काम न होगा

गाँठ में बँधा था सत्रह रूपैया
घर के भांडे खाली

'बाऊजी अदबांस दे दो कल की पगार
रोटी को हो जाए इतना दे दो
कुछ काम करा लो लाओ तुम्हारा पानी भर दूँ
लाओ तुम्हारा चिकन बना दूँ
लाओ रोटी सेंक दूँ'

डरते डरते बोली मैं तो वो बोला
'भाग छिनाल
रोज माँगने ठाढ़ी हो जाती है माथे पे

आजादी आज त्योहार है
खुशी की बात हो गई
ये मंगती भीख माँगने हमेशा आ जाती है

जा जाके त्योहार माना
गांधीबाबा ने आजादी जो करवाई है
उनको जाके पूज गँवार दारी'

सत्रह रुपए खरचके
मैंने आजादी का परब मनाया

सुना है दूर दिल्ली में नई लिस्ट आई है
सत्रह रूपैया जिनकी गाँठ है
उनको सेठ ठहराया है

सेठानी जी ओ दोपदी
तुमने  सत्रह रुपए का आटा नोन लेके
गजब मनाई आजादी।

1 comment:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 20 मार्च 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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