Sunday 7 August 2016

एक कविता.... यह एक खेल है / विजय शंकर सिंह

यह एक खेल है.
सभी इस में शामिल हैं,
वे भी ,
जो तुम्हे शरीफ दिखते हैं,
और वे भी
जिनके मुखौटे उतर चुके है !

सब किरदार इस नाटक के,
अपनी अपनी भूमिका के प्रति,
सजग है,
वैसे ही, जैसे,
ठगों का गिरोह किसी मेले में
घेरे रहता है
मासूम जनता को !

कोई डराता है,
कोई हिम्मत बंधाता है,
कोई पुचकारता है,
तो कोई देता है दिलासे,
कोई साथ खड़े रहने का ढोंग
करता है
तो कोई दुनिया भर का दर्शन,
बांचता है !

रात के अँधेरे में,
एक साथ अट्टहास करते,
ठगे हुए माल के साथ,
बंटवारा करते इन्हें
मैंने देखा है, कई बार ।

पढी है इनकी शातिर निगाहें,
जो टकटकी लगाए,
तजबीजती रहती हैं शिकार को
पंचतंत्र के दमनक की तरह !

अपने अपने फन में माहिर,
ये किरदार, 
नेपथ्य से मंच तक,
शातिराना और फुसफुसाहट भरी
प्रॉम्पटिंग के सहारे,
मौसम और अवसर के लिहाज़ से,
अपने मक़सद को पाने का
खेल खेलते रहते हैं !

इन्हें पहचानों,
और अपनी गठरी संभाल लो.
बलिहाज़ मंच, और बलिहाज़ किरदार,
ये दिखते हैं सिर्फ अलग, अलग,
पर सच में
ये सब एक ही हैं.
बस किसी  की जुबां शीरीं है,
तो किसी की तीखी !!

- विजय शंकर सिंह

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