Monday, 29 August 2016

Ghalib.- 'Asad' band e qabaa e yaar hai, / 'असद' बंद ए कबा ए यार है / विजय शंकर सिंह




ग़ालिब - 16.
'
असद' बंद ए कबा ए यार है, फिरदौस का गुंचा,
अगर ना हो तो दिखला दूं, एक आलम गुलिस्तां है !!

असद - ग़ालिब का असली नाम असदुल्ला खान. 
बंद ए कबा - कोट या कुर्ते का बटन या बंद. 
फिरदौस - स्वर्ग की सबसे ऊंची श्रेणी. 

'Asad' band e qabaa e yaar hai, firdaus kaa gunchaa, 
Andar baa ho to, dikhlaa doon, ki yak aalam gulistaan hai !!
-Ghalib. 

स्वर्ग रूपी कली यानी प्रेम ईश्वर के वस्त्र का बंद हैबटन हैयदि वह कली खिल जाय तो मैं दिखला दूं किसारा संसार ही स्वर्गोद्यान है .

ग़ालिब ने संसार में ही स्वर्ग और नर्कजन्नत और दोजख की परिकल्पना की है. फिरदौस को स्वर्ग या जन्नत की अनेक श्रेणियों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है. इसे जन्नत उल फिरदौस भी कहा गया है. कलीपुष्प बन कर स्वर्गोद्यान को जीवंत कर देती है. लेकिन वह ईश्वर के वस्त्र का बंद है. जब वह बंद खुलता है तो कली खिलती है. और इससे उद्यान की आभा भी.स्वर्गिक हो जाती है।  ग़ालिब का यह शेर भी उनके विद्रोही मानस को ही बताता है. प्रेम ईश्वर का बंद हैजिसे प्रतीक रूप से कली कहा गया है. प्रेम के खिले बिना संसार स्वर्ग की तरह अनुपम नहीं बन सकता है. अतः जो कुछ भी स्वर्ग और नर्क हैपानाखोनाऔर भोगना हैवह सब इसी संसार में है. इसे स्वर्गातुल्य तभी बनाया जा सकता हैजब प्रेम की कली या पुष्प को जो स्वर्ग का आभास कराती हैपुष्पित और पल्लवित होने दिया जाय. 

संसार में ही सब है. स्वर्ग और नर्क की कल्पना केवल कल्पना है. ताकि हम अपना जीवन ढंग से जी सके. इसी से मिलता जुलताकबीर का यह दोहा पढ़ें .

माटी एक भेस धरि नानातामहि ब्रह्म पछाना
कहत कबीरा भिस्त छोड़करि दोजख स्यों मन माना !!

सब मिट्टी ही है. संसार के सारे रूप इसी मिट्टीएक ही मूल तत्व से गढ़े गए हैं. इसी मूल को ईश्वर या ब्रह्म समझ. यही स्वर्ग है. पर इसे न समझ कर तू नर्क के पचड़े में पडा हुआ है. 

( विजय शंकर सिंह )

राजनीतिक दलों की फंडिंग , चन्दे का मायाजाल और सूचना के अधिकार का प्राविधान / विजय शंकर सिंह

धन अत्यंत आवश्यक वस्तु है । चार पुरुषार्थों धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष में धन का स्थान दूसरा है ।धर्म तो मूल है । वह तो आधार है, धारण करता है । फिर अर्थ का स्थान आता है । इन चारों पुरुषार्थों में अर्थ का योगदान अन्य दो पुरुषार्थ भी उठाते हैं । मोक्ष को आप अलग रख सकते हैं । धर्म भी बिना अर्थ के शून्य ही है । पूरा का पूरा कर्मकाण्ड और यज्ञ विधान आदि सब अर्थ सापेक्ष ही तो है । उसी प्रकार राजनीति भी कितनी भी शुचिता की बात कर ले , कितना भी सेवा भाव का चोला पहन ले पर अर्थ के बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जाती है । राजनीति में अगर कोई इसे मिशन के रूप में ग्रहण कर आता है, तो वह भी राजनीतिक खर्चों के लिए धन की ज़रूरत महसूस करता है । धन का प्रबंध वह जनता के अंशदान यानी चंदे से ही करता है । पर कुछ लोग सेवा भाव का चोला ओढ़े सिर्फ और सिर्फ धन कमाने के लिए ही राजनीति में आते हैं । माफिया , धन अर्जन के बाद , समाज में अपनी साख बढ़ाने और सुरक्षा कवच ओढ़ने के लिए आते हैं । ऐसे ऐसे माफिया भी राजनीति में हैं जो अपने अपराध के दिनों में पुलिस के सिपाही को देख कर रास्ता बदल दिया करते थे, वे राजनीतिक चोला धारण कर एसपी डीएम के कार्यालय में बैठ कर चाय पर चर्चा करते रहते हैं और यह भी इशारों इशारों में बता देते हैं कि जब भी मुख्य मंत्री की उनसे मुलाक़ात होती है, तो मुख्य मंत्री ज़िले का हाल उन्ही से पूछते हैं और वे डीएम एसपी को वहाँ संभाले रहते हैं । पर हमें जन्नत की हकीकत मालुम रहती है । हम लोग भी निष्काम भाव से चाय पिला कर , उनकी लनतरानियाँ सुन, उन्हें, किसी काम का बहाना बना कर चलता कर देते हैं । यह नौकरशाही का लोकाचार है ।

राजनीतिक दल अक्सर कहते हैं कि उन्हें जनता से चन्दा मिलता है । पर जब भी उन चंदे के खुलासा करने की बात आती है तो वे कन्नी काट लेते हैं । सारे दल, और नेता, केवल दो ही मुद्दे पर एकजुट नज़र आते हैं । एक तो जन प्रतिनिधियों को मिलने वाली सुख सुविधाओं पर, दूसरे राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के खुलासा न करने पर । अन्ना आंदोलन से जब नए प्रकार की राजनीति करने का इरादा और दावा ले कर अरविन्द केजरीवाल निकले तो , लोगों को लगा कि यह एक नया अवतार है । हम हर किसी नए त्राता में अवतार ही ढूंढते हैं । कभी इंदिरा गांधी दुर्गा के रूप में नज़र आयी थी , कभी जेपी सम्पूर्ण क्रान्ति के ध्वजवाहक के रूप में, तो कभी मोदी , यदा यदा हि धर्मस्य... की भावना के अनुरूप , अवतार के रूप में देखे गए । भ्रम तब टूटा , जब इंदिरा , असुरों के बजाय अपनों का ही संहार करने लगीं,  जेपी भारत बदलने के सपने के स्थान पर जनता पार्टी ही एक जुट नहीं रख पाये, और मोदी जिन तेवरों को दिखाते  रहे वे अब नहीं दिखते, तो अवतार वाद के भ्रम का क्षरण भी होने लगा । उसी प्रकार केजरीवाल भी शुरू में दिखे । जनता ने हांथो हाँथ लिया और वे दिल्ली के मुख्य मंत्री अकल्पनीय बहुमत से चुने गए । एक पार्टी के रूप में  गठित होने पर आआपा में अंदरूनी टकराव हुआ । उस टकराव के कारण केजरीवाल ने अपने उन निकटस्थ सहयोगियों को भी किनारे कर के दल के लोकतांत्रिक स्वरूप को बदल दिया । शुरू शुरू में AAP ने अपने मिलने वाले चंदो को अपनी वेबसाइट पर डाला और पारदर्शिता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया । उसे मिलने वाले चंदो पर वाद विवाद भी हुये । हाल का  सबसे ताज़ा विवाद पंजाब से इस पार्टी पर यह लगा कि सुच्चा सिंह जो आप के संयोजक थे, ने दो दो करोड़ रूपये ले कर विधान सभा के चुनाव में टिकट लोगों को दिए । इस पर पार्टी नें उन्हें निकाल दिया । ऐसी शिकायत सभी दलों में चुनाव के दौरान आती है । सामान्य सी बात है, चुनाव के प्रचार का इतना ताम झाम , खर्च कहाँ से आएगा ? इसी लिए राज्य द्वारा चुनाव  फंडिंग की बात कभी उठती है तो कभी चंदे में पारदर्शिता लाने की चर्चा की जाती है ।

चुनाव सुधार, निर्वाचन आयोग का काम नहीं है । उसका काम स्थापित कानूनों के अंतर्गत चुनाव को निष्पक्ष और स्वतंत्र कराना है । चुनाव सुधार से जुड़े कानून बनाने का जिम्मा संसद का है । चुनाव आयोग चुनाव सुधार की सिफारिशें सरकार को भेजता रहता है । पर जिन मसलों पर राजनितिक दलों का स्वार्थ हावी रहता है वे मसले बस्ता खामोशी में चले जाते हैं । ऐसा ही एक मामला है, आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दलों की फंडिंग को लाना । हालांकि अभी भी चुनाव आयोग चुनाव के दौरान दिन प्रतिदिन के व्यय का व्योरा प्रत्याशी से मांगता है और इस पर नज़र रखने के लिए राजस्व सेवा के वरिष्ठ अधिकारीगण पर्यवेक्षक के रूप में भी रखे जाते हैं । फिर भी काले धन का बहुत प्रयोग चुनाव में होता है । इसे सभी जानते हैं , पर धन की ज़रूरत सभी को रहती है इस लिए इस मुद्दे पर केवल शोर होता है कार्यवाही नहीं ।

2013 में मुख्य सूचना आयुक्त , भारत सरकार ( सीआईसी ) ने एक निर्णय दिया कि, सभी राजनीतिक दल पब्लिक अथॉरटी हैं और इस कारण वे, सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गयी सूचना देने के लिये बाध्य हैं । सीआईसी ने सभी राजनितिक दलों को, इस अधिनियम के अंतर्गत सुचना अधिकारी और उनके आदेशों पर अपील की सुनवाई के लिए अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति करने की बात कही । आरटीआई अधिनियम की धारा 20 ( h ) के अंतर्गत पब्लिक अथॉरटी हर उस गैर सरकारी संगठन को माना गया है जिसे सरकार कोई न कोई सहायता देती है । सरकार भी जो धन देती है वह अंततः जनता का ही धन होता है जो उसे करों के रूप में मिलता है । इस पर सभी राजनीतिक दल एकजुट हो गए और उन्होंने सीआईसी के इस प्राविधान का विरोध किया । अब यह मामला अदालत में है ।

राजनीतिक दलों का तर्क यह है कि, अगर आरटीआई के दायरे में दलों को लाया जाएगा तो, उसके विरोधी भ्रामक सूचनाओं के आधार पर भ्रम फैलाएंगे जिस से राजनीतिक दल अनावश्यक विवाद में उलझ जाएंगे । इस से दलों की कार्यवाही पर असर पड़ेगा । साथ ही राजनीतिक अस्थिरता भी फैलेगी ।
इस पर सीआईसी ने तर्क दिया कि, सभी दल सरकार से कुछ न कुछ सहायता पाते हैं । वे अपने कार्यालय द्वारा रियायती दर पर या मुफ़्त ज़मीनें पाते हैं और उन्हें मिलने वाला चन्दा , आय कर अधिनियम की धारा 13 A के अंतर्गत कर मुक्त भी है । साथ ही आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपनी बात कहने के लिए मुफ़्त समय स्लॉट भी पाते हैं । इस कारण सभी दल सीआईसी के दायरे में आते हैं ।

राजनीतिक दलों को अगर सीआईसी के दायरे में लाया जाता है तो, इस से उनकी फंडिंग पारदर्शी रहेगी और काले धन का जो प्रवाह राजनीतिक जीवन में बढ़ रहा है , उस पर अंकुश भी लगेगा । जब काले धन का प्रवाह बाधित होगा तो, इसका प्रभाव भ्रष्टाचार पर भी पड़ेगा । और थोड़ी बहुत ही सही राजनीति में शुचिता का समावेश होगा । लोक सभा में इस पर बहसें भी हुयी । संसद ने यूपीए  - 2 के कार्यकाल में आरटीआई अधिनियम का एक संशोधन पास किया । इस संशोधन में राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने का प्राविधान रखा गया । 2013 घोटालों का साल था । भाजपा सहित सभी दल कांग्रेस पर हमलावर थे । कांग्रेस रिंग के कोने में धकेली जा रही थी । पर यह बिल सबकी सहमति से पास हुआ । इसे चुनौती दी गयी और अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है । सुप्रीम कोर्ट में कई तारीखों के बाद भी भाजपा और कांग्रेस जो , दोनों एक दूसरे से मुक्त भारत की योजना बनाती रहती है, इस मसले पर एक दूसरे से युक्त हो गयी है । दोनों में से किसी भी दल ने अदालत में अपना पक्ष नहीं रखा । अदालत की कार्यवाही अभी जारी है । यह याचिका प्रसिद्ध आरटीआई एक्टिविस्ट सुभाष अग्रवाल ने दायर की है और प्रशांत भूषण उनके वकील हैं । सभी राजनीतिक दलों को अदालत ने नोटिस जारी कर जवाब माँगा है । याचिका में यह तर्क दिया गया है कि, संविधान के शेड्यूल 10 के अनुसार सभी सांसद और विधायक आते है । यह शेड्यूल, सभी सांसदों और विधायकों को बाध्य करता है कि वे अपने राजनीतिक दलों के प्रति प्रतिबद्ध रहें । दल बदल विरोधी कानून भी इसी के आधार पर है । यह मतदाता का भी मौलिक अधिकार है कि वह जिस  व्यक्ति और जिस दल को चुन रहा हैं उसके आर्थिक श्रोतों को वह खुले रूप में जाने । यह भीं जानने का उसे अधिकार हैं कि उस धन का श्रोत , भी देश के कानून का उल्लंघन कर के नहीं कमाया गया है । जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 A के अनुसार सभी दलों को संवैधानिक मान्यताओं को मानना अनिवार्य है । यह सारे तर्क मूल अधिकार धारा 19 ( 1 ) ( a ) के अंतर्गत अभिव्यक्ति के अधिकार से भी आच्छादित होते हैं ।

राजनीति में शुचिता की बात सभी करेंगे, पर जब ठोस कार्यवाही की बात आएगी तो सभी बगलें झाँकने लगेंगे । हर राजनीतिक दल पर, जब जिसका भविष्य थोडा सा भी अच्छा दिखने लगता है तो कुछ  प्रत्याशी खुद ही थैली ले ले कर दौड़ने लगते हैं । राजनीतिक दल भी यह अवसर भी चूकना नहीं चाहते । इस से उस छोटे से वर्ग में जो राजनीति में शुचिता को खोजते हुये देशहित और समाज सेवा के लिए आगे आने लगता है को यह थैली दौड़ निराश और कुंठित करती है । बहुत से अच्छे और विद्वान तथा योग्य लोगों को जिन्हें सच में संसद या विधान सभा में होना चाहिए के मुंह से मैंने स्वयं सुना है कि, अब चुनाव उनके बस का नहीं रहा । इसी धन के लालच के कारण राज्य सभा और विधान परिषदें जो उन लोगों को सदन में लाने के लिए बनायी गयी थीं, जो अपने अपने क्षेत्र में योग्य तो हैं पर किन्ही कारणों से प्रत्यक्ष चुनाव नहीं लड़ सकते हैं को यहाँ ला कर उनकी मेधा तथा प्रतिभा का लाभ उठाया जा सके, को दरकिनार कर पूँजीपतियों को केवल धन के बल पर सदन में लाया जा रहा है । यह लोकतंत्र के कैचमेंट एरिया का संकुचन है । धीरे धीरे जनता की प्रतिभागिता, कुछ ख़ास वर्ग से सिमटते सिमटते , कुछ ख़ास परिवारों तक सिमटने लगी है । इसे आप लोकतंत्र की विडंबना भी कह सकते हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 27 August 2016

एक कविता... कितने अरसे बाद मिले हो / विजय शंकर सिंह



पूछ रहे हो, हाल हमारा,
जुग बीते , तुमसे बात किये,
फिर भी, इतने रस्मी क्यों हो ।
कुछ अपनी भी बात कहो
तुम बिन , मेरा हाल क्या होगा,
सोचा है तुमने, कभी दिल से,
कितने अरसे बाद मिले हो !

कितने मौसम पार हुए,
अरमाँ कितने दफ़न हुए,
कितनीं रातें जग कर काटीं,
आज मिले तो पूछ रहे हो ,
मान नहीं और न उपालम्भ यह
द्वंद्व है मन के भीतर का ,
कितने अरसे बाद मिले हो !

आओ बैठो कुछ बात करें,
जग बीती अब आज न पूछो,
निशा दे रही अजब निमंत्रण
मस्त पवन छू छू कहता है,
रेत पर नाम,किसके थे वह,
चुप चाप जिसे तुम लिखते थे?
कितने अरसे बाद मिले हो !

हंस कर यूँ ही उड़ा दिया
जैसे धूल अक्सर उड़ती है,
मुट्ठी में रेत कहाँ टिकती है !
अब आँखों में नींद कहाँ,
सपने देखूं, यह ताब कहाँ,
तुम ही कहो , कैसे हो तुम,
कितने अरसे बाद मिले हो !

क्या तुम भी,इतने व्याकुल थे, ?
पहरों तारे गिनते रहते थे?
चाँद तुम्हे भी तड़पाता था?
सच कहना,ऐसा ही था न,
न हो ऐसा,तब भी कहना,
सुनो, आज फिर झूठ ही कह दो ,
कितने अरसे बाद मिले हो !

छोडो,सारे शिकवे गिले,
यह दुनिया तो फानी है,
कौन यहां रहता है बराबर,
किस को कहाँ, कब चैन मिला है !
आओ अब सब भूल प्रिये,
एक नया फिर ख्वाब बुनें,
कितने अरसे बाद मिले हो !!

© विजय शंकर सिंह

Friday, 26 August 2016

दही हांडी और सुप्रीम कोर्ट का निर्देश / विजय शंकर सिंह



कल दही हांडी पर मैंने एक पोस्ट डाली थी और एक जिज्ञासा की थी कि ' क्या ठाकरे परिवार या इस आयोजन के आयोजकों में से किसी सज्जन के घर परिवार के चार पांच साल के बच्चे भी गोविंदा बन कर  मानव पिरामिड के शीर्ष पर चढ़ें हैं ?' इस जिज्ञासा का समाधान नहीं हुआ बल्कि एक और जिज्ञासा उछाल दी गयी, कि 'क्या मुहर्रम के बारे में ऐसा कोई आदेश हुआ है क्या ? 'यह जिज्ञासा स्वाभाविक थी । मैंने कुछ जानकारों से ज्ञात किया तो पता चला कि ऐसा कोई आदेश नहीं है कि मुहर्रम के अवसर पर कोई हिंसक शोक प्रदर्शन न किया जाय । धर्म एक बेहद संवेदनशील मामला है । आस्थावान भी आस्था क्यों है इस पर कोई तर्क नहीं देता है और न ही तर्क पसंद करता है । वह बहुत ही नाज़ुक दिल होता है, ईश्वर से अधिक वह आहत हो जाता है । दही हांडी पर भी जिसे आहत होना था सो आहत हुआ। आहत होने का भी एक विचित्र कारण यह था कि, क्या मुहर्रम के बारे में कोर्ट ने दखल क्यों नहीं दिया । बात तो सच है , तुम खतरा उठा कर अपनी परम्पराएँ जीवित रख सकते हो तो हम क्यों नहीं ।

दही हांडी, कृष्ण के माखन चोरी के प्रकरण का एक स्वांग है जिसे जन्माष्ठमी के अवसर पर मनाया जाता है । मुम्बई में जन्माष्ठमी को गोकुलाष्ठमी भी कहते हैं । मुम्बई और उसके उपनगर थाणे में यह उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है , और इस आयोजन पर बहुत ईनाम आदि भी दिए जाते हैं । मानव पिरामिड कई स्तरों का बनाया जाता है जिसके शीर्ष पर हल्का होने पर सबसे छोटा बच्चा चढ़ाया जाता है । कृष्ण बचपन में अपने संगी गोपों के कंधे पर बैठ कर छींके में रखे मिटटी के पात्र से दही या माखन चुरा कर खाया करते थे, यह उसी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन है । बाद में जब इस पर इनाम आदि घोषित होने लगे तो, इसका रूप व्यावसायिक हो गया और टीवी के चलन ने इसे आकर्षक और लोकप्रिय भी बना दिया । पुरस्कार की राशि भी एक लाख से लेकर 12 लाख तक हो गयी । मुम्बई का मुख्य आयोजन होने के कारण शिव सेना और राज ठाकरे का इस से जुड़ना स्वाभाविक है । अब यह मुम्बई और थाणे के सड़कों से उठ कर हम सब के ड्राइंग रूम में आ गया । दही हांडी का एक कीर्तिमान गिनीस बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में भी शामिल है । जोगेश्वरी के एक जय जवान गोविंदा पाठक मंडल ने 13.35 मीटर यानी 43.79 फ़ीट ऊंचाई पर रखी दही हांडी को 9 स्तरीय मानव पिरामिड बना कर फोड़ा था । यह कीर्तिमान 2012 का है । यह अभी टूटा नहीं है ।

पर दही हांडी उत्सव एक अन्य कारण से अभी खबरों में है । सारे उत्सव प्रारम्भ में धार्मिक श्रद्धा से आयोजित होते हैं पर जब वह लोकप्रिय होने लगते हैं तो उनमे व्यावसायिकता भी घुस जाती हैं । धर्म का यह अर्थशास्त्र है । इनाम आदि जब बहुत घोषित होने लगे तो विभिन्न गोविंदा मंडलों में प्रतियोगिताएँ भी बढ़ने लगी और दही हांडी और ऊपर सरकने लगी । परिणामस्वरूप मानव पिरामिड के आवश्यकता से अधिक ऊपर होने और शीर्ष पर खड़े चार पांच साल के बच्चों के कारण दुर्घटनाएं भी अधिक होने लगी । यह प्रवित्ति वर्ष 2000 ईस्वी के बाद से अधिक बढ़ गयी है । 2012 में जर्नल ऑफ़ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिसिन ने एक अध्ययन प्रकाशित किया जिसमें यह निष्कर्ष छापा कि, मानव पिरामिड के बढ़ने और कई स्तरीय होने के कारण , इसका कारण इसमें भाग लेने वाले गोविंदाओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । अकेले वर्ष 2012 में ही 250 से अधिक गोविंदा घायल हुए और कुछ को उनके मेरुदंड पर गहरी चोट पहुंची जिस से उनके स्नायु तंत्र को नुकसान पहुँचा । जब कि 2011 में घायल होने वालों की संख्या 205 थी । इस अध्ययन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों को इस आयोजन में भाग लेने पर प्रतिबंधित कर दिया । बाद में एक याचिका पर सुनवाई कर के महाराष्ट्र हाई कोर्ट ने आयु सीमा 18 वर्ष की कर दी । और दही हांडी की ऊंचाई 20 फ़ीट से अधिक करने पर रोक लगा दी । हाई कोर्ट के इस आदेश के बाद दही हांडी के आयोजक अपील में सुप्रीम कोर्ट गए । सुप्रीम कोर्ट ने 17 अगस्त 2016 को इस अपील पर अपना फ़ैसला सुनाया और उसने हाई कोर्ट के फैसले को बहाल रखा । अब इसी फैसले को धर्म में हस्तक्षेप और आस्था का प्रश्न बताया जज रहा है । यह याचिका मुम्बई स्थित एक ट्रस्ट ने दायर की थी । महाराष्ट्र सरकार ने भी ऊंचाई 20 फ़ीट के बजाय 25 फ़ीट रखने की मांग पर पुनर्विचार करने की मांग सुप्रीम कोर्ट से की पर कोर्ट ने 20 फ़ीट की ऊंचाई को बढ़ाने से इंकार कर दिया । मुम्बई में कल जन्माष्ठमी के दिन 25 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के दोनों आदेशों , 18 साल से कम के गोविंदा के भाग लेने और दही हांडी की ऊंचाई 20 फ़ीट से अधिक न करने  ,  का उल्लंघन किया है । अब कोर्ट इस पर क्या करती है यह देखना है ।

दही हांडी परम्परा है पर कोर्ट की रोक इस परम्परा पर नहीं बल्कि इसके खतरनाक होते जाते स्वरूप को ले कर है । मुहर्रम में भी ताजिये और आग का मातम, और तलवार बरछी आदि का मातम शिया समुदाय मनाता है । यह भी एक खून खराबे वाला मातम होता है । पर संभवतः ऐसा मातम शिया बाहुल्य ईरान में भी नहीं मनाया जाता है । अगर किसी को ऐसे खूनी मातम से दुःख पहुंचा हो, और कोई ऐसा अध्ययन कि ऐसे मातम के समय लोग घायल हो गए हों तो वह भी कोर्ट जा सकते हैं । यह मामला भी कोर्ट नहीं गया होता तो ऐसा निर्देश नहीं आता । उत्सव आनंद की एक अभिव्यक्ति है । वह बाज़ार नहीं है । वह आस्था का प्रश्न है । आस्था और एडवेन्चर में अंतर है । एडवेंचर हमारी क्षमता को नापने का एक माध्यम है । आस्था , आराध्य के प्रति समर्पण है और उस से तादात्म्य स्थापित करने का एक साधन है । कृष्ण की बाल लीलाओं के स्वांग में कोई बुराई नहीं हैं । स्वांग हमारी संस्कृति का एक अंग है । रामलीलाएं, कथक, सहित सारे भारतीय शास्त्रीय नृत्य राम कथा और महाभारत सहित अनेक पुरा आख्यानों के स्वांग की ही अभिव्यक्ति हैं । पर वे एडवेंचर नहीं है । इसी प्रकार दही हांडी जब तक एक उत्सव और परम्परा का निर्वाह बना रहा तब तक कोई बात नहीं हुयी । पर जब यह प्रतियोगिता , और घातक होने लगा तो सरकार और कुछ लोग जाग्रत हुए और अदालतों को दखल देना पड़ा ।

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 24 August 2016

एक कविता तुम ने तो कहा था / विजय शंकर सिंह


तुम ने तो कहा था ,
भेजोगे ,
वे लम्हे , घड़ियाँ , सालसभी
होगा नहीं , जिन का ,
अंत कभी .

सावन की ,
काली घटायें भी ,
फूलों की ,
शोख अदाएं भी ,
अधरों से छू कर ,
पुष्प कोई ,
मीठी सी गुड की
डली कोई !

सभी किस्से , गीत
और बातें भी ,
वे प्रेम भरी ,
सौगातें भी .
तुम ने तो कहा था ,
भेजोगे !

पा कर इन को हम ,
झूमेंगे ,
दुनिया , इन में हम ,
ढूंढेंगे !
एक दीप आस का ,
कब से जला कर ,
चुप चाप प्रिये , हम
बैठें हैं !

कुछ याद करो ,
वे बीते पल ,
तुम को है , क़सम ,
अब भेजो भी !
लुछ मोल , प्यार का
रखो भी !

इक बात सुनो ,
खुद  जाओ !
बन के घटा , तुम
छा जाओ !!
जीवन के इस मरू थल में ,
कुछ पुष्प बिखेरो आज प्रिये !!
 - vss