Saturday 1 December 2012

अरुंधती राय : केजरीवाल के खुलासे...




अरुंधती राय : केजरीवाल के खुलासे...

पिछले साल अगस्त में अन्ना हजारे के आन्दोलन पर कई महत्वपूर्ण सवालों को उठाते हुए अरुंधती राय ने एक लेख लिखा था. तबसे गंगा में काफी पानी बह चुका है और अन्ना हजारे तथा अरविन्द केजरीवाल के रास्ते भी जुदा हो चुके हैं. अरविन्द केजरीवाल ने अपनी 'आम आदमी' पार्टी बना ली है और पिछले कुछ दिनों से उन्होंने ताकतवर नेताओं तथा उद्योगपतियों पर हमला बोल रखा है. इन्हीं सब मुद्दों पर चर्चा करता हुआ सबा नकवी द्वारा ई मेल के माध्यम से लिया गया अरुंधती राय का एक साक्षात्कार 'आउटलुक' में प्रकाशित हुआ है. प्रस्तुत है कुछ ख़ास अंश...

चुनाव के माध्यम से बदलाव की कोशिश करने वाले लोग चुनाव से खुद ही बदल जाते हैं : अरुंधती राय
(अनुवाद/ प्रस्तुति : मनोज पटेल)

भ्रष्टाचार के ये खुलासे मजेदार घटनाएं हैं. उनके बारे में एक अच्छी बात यह है कि वे हमें यह समझने की एक अंतर्दृष्टि मुहैया कराते हैं कि सत्ता के तंत्र कैसे जुड़ते और गुंथते हैं. चिंताजनक बात यह है कि हर घोटाला पिछले वाले को धकेल कर रास्ते से हटा देता है और ज़िंदगी चलती रहती है. यदि इनसे हमें एक अतिरिक्त-प्रचंड चुनाव अभियान ही मिल पाया तो यह उस सीमा को ही बढ़ा सकता है जो हमारे शासकों की समझ से हम बर्दाश्त कर सकते हैं, या जितना बर्दाश्त करने के लिए हमें बहलाया जा सकता है. कुछ लाख करोड़ से कम के घोटाले हमारी तवज्जो ही नहीं पाएंगे. चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों का एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप या कंपनियों से संदिग्ध सौदे करने का आरोप नया नहीं है. एनरान के खिलाफ भाजपा और शिवसेना की मुहिम याद है? आडवाणी ने इसे 'उदारीकरण के माध्यम से लूट' कहा था. महाराष्ट्र में वह चुनाव वे जीत गए थे, एनरान और कांग्रेस सरकार के बीच हुआ समझौता रद्द कर दिया था और फिर एक उससे भी खराब समझौते पर दस्तखत कर दिए थे.

यह तथ्य भी चिंताजनक है कि इनमें से कुछ 'खुलासे', अपने विरोधियों को पछाड़ने के मकसद से एक-दूसरे का राजफाश कर रहे नेताओं और कारोबारी घरानों द्वारा किए गए रणनीतिक लीक हैं. जिनके खुलासे किए गए --सलमान खुर्शीद, राबर्ट वाड्रा, गडकरी-- उन्हें उनकी पार्टियों ने और भी मजबूती से गले लगा लिया है. नेता इस सच्चाई से अवगत हैं कि भ्रष्टाचार के आरोपी या दोषी होने से हमेशा उनकी लोकप्रियता में फर्क नहीं पड़ता. अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों के बावजूद मायावती, जयललिता, जगमोहन रेड्डी अत्यंत लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. जहां आम लोग भ्रष्टाचार से व्यथित हैं वहीं यह भी लगता है कि मतदान का समय आने पर उनकी गणित अधिक चतुर, अधिक जटिल हो जाती है. जरूरी नहीं कि वे अच्छे लोगों को वोट दें.

अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने अहम भूमिका निभाकर मीडिया के लिए मुद्दे को बिसराना कठिन बना दिया है. लेकिन खुलासों की अचानक बाढ़ का सम्बन्ध नेताओं के विभिन्न गठबन्धनों, बड़े निगमों और उनके स्वामित्व वाले मीडिया घरानों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भी है. मसलन मुझे इन अटकलों में कुछ सच्चाई नजर आती है कि गडकरी के खुलासे का सम्बन्ध नरेंद्र मोदी द्वारा खुद को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत करने और विरोधी गुटों को रास्ते से हटाने से है. यह भ्रष्टाचार और बैलेंसशीटों का ज़माना है -खून पुराना पड़ चुका है. कितना अजीब है जब आप टिप्पणीकारों को अक्सर यह कहते हुए पाते हैं कि मुस्लिमों के खिलाफ संघ परिवार के 2002 के गुजरात जनसंहार से हटकर अब आगे देखने का वक़्त आ गया है. दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की अगुआई वाले 84 के सिखों के नरसंहार को भी भुला दिया गया है. यदि वे आर्थिक रूप से भ्रष्ट न हों तो क्या हत्यारे और फासिस्ट ठीक हैं? केजरीवाल और प्रशांत भूषण की अगुआई में चलाया जा रहा नया भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन जो कर रहा है, वह जरूरी काम है जो कि वास्तव में मीडिया और जांच एजेंसियों द्वारा किया जाना चाहिए था और जिसमें आम जनता बाहर से व्यवस्था पर दबाव बना रही होती. मुझे भरोसा नहीं है कि चुनाव लड़ने जा रही एक नई राजनीतिक पार्टी कोई सही तरीका है. इस बात का एक कारण है कि क्यों बड़े राजनीतिक दल सबको खुशी-खुशी चुनाव लड़ने का न्योता देते हैं. वे जानते हैं कि इस इलाके में उनकी चलती है. वे नए खिलाड़ियों को अपने सर्कस के जोकरों में बदल देना चाहते हैं.

इस रास्ते पर बहुत से लोग पहले भी चल चुके हैं. उदाहरण के लिए यदि केजरीवाल की पार्टी कुछ ही सीटें जीतती है, या एक भी सीट नहीं जीतती, तो इसका क्या मतलब होगा? कि भारतीय जनता का बहुलांश भ्रष्टाचार समर्थक है?    

भ्रष्टाचार शक्तिशाली और शक्तिहीन लोगों के बीच बढ़ती खाई का एक लक्षण है. इसे संबोधित किया जाना जरूरी है. नैतिक पुलिसिंग या वास्तविक पुलिसिंग कोई समाधान नहीं हो सकती. उससे क्या हासिल हो सकता है? एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को अधिक साफ-सुथरा और अधिक कुशल बनाने का? नुक्ता यह है कि हम भ्रष्टाचार को कैसे परिभाषित करते हैं? यदि कोई औद्योगिक घराना किसी कोयला क्षेत्र का ठेका पाने के लिए एक हजार करोड़ रूपए रिश्वत देता है तो यह भ्रष्टाचार है. यदि कोई मतदाता किसी नेता विशेष को अपना वोट देने के लिए एक हजार रूपए लेता है तो यह भी भ्रष्टाचार है. यदि समोसे का एक खोमचे वाला फुटपाथ पर थोड़ी सी जगह पाने के लिए सिपाही को सौ रूपए की घूस देता है तो यह भी भ्रष्टाचार है. मगर ये सभी चीजें क्या एक ही हैं? मैं यह नहीं कह रही कि भ्रष्टाचार पर नजर रखने के लिए कोई शिकायत निवारण प्रणाली ही नहीं होनी चाहिए, बिल्कुल होनी चाहिए. लेकिन उससे असली समस्या का समाधान नहीं होगा क्योंकि बड़े खिलाड़ी अपनी करतूतें छिपाने में और बेहतर ही हो जाएंगे.

क्या भ्रष्टाचार के संकीर्ण और भंगुर लेंस से हम जाति और वर्ग की राजनीति को समझ और संबोधित कर सकते हैं? क्या उससे हम नस्ल, लिंग, धार्मिक उग्रराष्ट्रीयता, अपने सम्पूर्ण राजनीतिक इतिहास, पर्यावरण के विनाश की मौजूदा प्रक्रिया और भारत के इंजन को चलाने वाली या नहीं चलाने वाली अन्य अनगिनत चीजों को समझ सकते हैं?

बदलाव आएगा. उसे आना ही है. लेकिन इस बात में मुझे संदेह है कि वह किसी ऎसी राजनीतिक पार्टी के लाए आएगा जो चुनाव जीतकर व्यवस्था को बदलने की उम्मीद कर रही हो. क्योंकि जिन लोगों ने चुनावों के माध्यम से व्यवस्था को बदलने की कोशिश की थी उनका अंजाम यह हुआ है कि चुनावों ने खुद उन्हें ही बदल दिया है --देखिए कि कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ क्या हुआ. मुझे लगता है कि ग्रामीण इलाकों में हो रहे विद्रोह शहरों की ओर बढ़ेंगे. जरूरी नहीं कि किसी एक बैनर के तहत या किसी व्यवस्थित या क्रांतिकारी तरीके से ही. यह सुन्दर तो नहीं होगा, मगर यह अपरिहार्य है.

ये निगम और नेता यदि निष्ठापूर्वक ईमानदार हो जाएं तो भी किसी देश के लिए ऎसी स्थिति में होना बेतुका ही होगा. जब तक बड़े निगमों पर अंकुश नहीं लगाया जाता और क़ानून द्वारा उन्हें सीमित नहीं कर दिया जाता, जब तक उनके हाथों से ऎसी बेहिसाब ताकत (जिसमें राजनीति और नीतिनिर्धारण, न्याय, चुनाव और ख़बरों को खरीदने की ताकत शामिल है) का नियंत्रण वापस नहीं ले लिया जाता, जब तक कारोबार के क्रास-ओनरशिप का नियमन नहीं होता, जब तक मीडिया को बड़े व्यवसायों के पूर्ण नियंत्रण से मुक्त नहीं करा लिया जाता, हमारे जहाज का डूबना तय है. कितना भी शोर, कितना भी भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन, कितना भी चुनाव इसे रोक नहीं सकता.
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(आउटलुक से साभार)

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