दोस्तों आज एक नए विषय को ले कर अपने कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। विषय आत्म विश्वास और धैर्य है . कविता थोड़ी लम्बी है, पर पढियेगा . शायद आप को पसंद आयेगी ....
फिर क्यूँ न जियें हंस हंस कर हम .
एक अजब सी
बेचैनी ,
छायी क्यूँ है
तुझ में ?
ढूंढ रहे हो
क्या जीवन में
?
है तलाश किस
की तुम को
?
नहीं स्थिर हो
पाते हो .
कैसा है भ्रम
जाल तुम्हे ?
आओ बैठो , मेरे
पास ज़रा ,
कुछ तो धीरज
धरो मित्र तुम
!
है सब कुछ
तेरे ही भीतर
,
हूँ मैं
भी
तो
तेरे
उर
में
?
किया कभी प्रयास,
पाने का ?
देखा , फिर भी
मुंह फेर लिया
.
हंस पडा तुम्हारे
अल्हड़पन पर,
सोचा लौट आओगे
एक दिन .
भटक भटक कर
कुछ खो, पा,
कर ,
रह नहीं पाओगे
मेरे बिन
दुनिया तो रंग
विरंगी है ,
इंद्रधनुष सी
दिखती है,
पर यह एक
छलावा है .
इंद्रधनुष भी
तो भ्रम ही
है .
दिखता है जो
सुन्दर सुन्दर ,
होता नहीं
वह हरदम सुन्दर
रूप बदल कर
मार आते हैं
,
हर'दम छलते
ही रहते हैं
खुद को भी
तो परखो प्यारे
,
अन्दर अपने भी तो झांको ,
बाहर तो
सब
माया
है
.
भीतर किसे छिपा
रखा है ?
एक अनजाना सा
भय क्यूँ है
?
जीवन तो है नदी
समान .
कभी तो कल
कल बहती है
यह ,
और कभी निर्झर बन
, मन हरती
थक कर जब
रुक जाती है
यह
पा अवरोध कठिन
प्रस्तर का
तब कितनी गहरी
दिखती है ?
दुःख सब कुछ
सिखला देता है
!
पत्थर टूटा सोता
फूटा
कल कल का
स्वर फिर से
गूंजा
गतिमान हुयी सरिता
फिर से .
भूल गए पत्थर
अतीत के .
सागर तक तो
जाना ही है
,
लक्ष्य यही बस
याद रहे ,
उठो भूमि से
मित्र आज तुम
,
नहिं अलंघ्य जीवन
में कुछ भी
बस खुद को
जानो , खुद को
परखो
सागर तक तो
बहना ही है
,
जीवन तो
जीना
ही
है
.
फिर क्यूँ न
जियें हंस हंस
कर हम
फिर क्यूँ न
जियें हंस हंस
कर हम .
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