Sunday, 16 December 2012

A poem...फिर क्यूँ न जियें हंस हंस कर हम .


दोस्तों आज एक नए विषय को ले कर अपने कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। विषय आत्म विश्वास और धैर्य है . कविता थोड़ी लम्बी है, पर पढियेगा . शायद आप को पसंद आयेगी ....

फिर क्यूँ जियें हंस हंस कर हम .


एक अजब सी बेचैनी ,
छायी क्यूँ है तुझ में ?
ढूंढ रहे हो क्या जीवन में ?
है तलाश किस की तुम को ?

नहीं स्थिर हो पाते हो .
कैसा है भ्रम जाल तुम्हे ?
आओ बैठो , मेरे पास ज़रा ,
कुछ तो धीरज धरो मित्र तुम !

है सब कुछ तेरे ही भीतर ,
हूँ  मैं  भी  तो  तेरे  उर  में ?
किया कभी प्रयास, पाने का ?
देखा , फिर भी मुंह फेर लिया .

हंस पडा तुम्हारे अल्हड़पन पर,
सोचा लौट आओगे एक दिन .
भटक भटक कर कुछ खो, पा, कर ,
रह नहीं पाओगे मेरे बिन 

दुनिया तो रंग विरंगी है ,
इंद्रधनुष सी दिखती है,
पर यह एक छलावा है .
इंद्रधनुष भी तो भ्रम ही है

दिखता है जो सुन्दर सुन्दर ,
 होता नहीं वह हरदम सुन्दर 
रूप बदल कर मार आते हैं  , 
हर'दम छलते ही रहते हैं

खुद को भी तो परखो प्यारे ,
अन्दर अपने  भी  तो  झांको ,
बाहर  तो  सब  माया  है .
भीतर किसे छिपा रखा है ?

एक अनजाना सा भय क्यूँ है ?
जीवन तो  है नदी समान .
कभी तो कल कल बहती  है यह  ,
और कभी निर्झर  बन , मन हरती 

थक कर जब रुक जाती है यह 
पा अवरोध कठिन प्रस्तर का 
तब कितनी गहरी दिखती है ?
दुःख सब कुछ सिखला देता है !

पत्थर टूटा सोता फूटा 
कल कल का स्वर फिर से गूंजा 
गतिमान हुयी सरिता फिर से .
भूल गए पत्थर अतीत के .

सागर तक तो जाना ही है ,
लक्ष्य यही बस याद रहे ,
उठो भूमि से मित्र आज तुम ,
नहिं अलंघ्य  जीवन में कुछ भी 

बस खुद को जानो , खुद को परखो 
सागर तक तो बहना ही है ,
जीवन  तो  जीना  ही  है .
फिर क्यूँ जियें हंस हंस कर हम 
फिर क्यूँ जियें हंस हंस कर हम .

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