एक कविता .....
याद नहीं यह कब सोचा था.
याद नहीं यह कब सोचा था ,
लहरों का जब रेला उमड़े ,
साहिल तोड़ कर बाहर आये ,
बस्ती बस्ती डूबती जाए
जब यह लहरें बंद समेटें
रोशनियों का रेला आये
जग मग सा फैलता जाए ,
याद नहीं यह कब सोचा था .
लेकिन इतना याद है ,उस पल
आँखों में बादल सा उमड़े
नीर बहे बरबस नैनों से
कितना टूट के तुम याद आये
कितना टूट के तुम याद आये .
-vss
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