Friday 27 May 2022

डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास - अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी (4)

सिनाई पर्वत पर जहाँ ईश्वर ने मूसा को अपना नाम बताते हुए कहा था "मैं वही हूँ जो मैं हूँ", वहीँ से उनके नाम को जेहोवा कहने की भी परम्परा है. ईश्वर ने कहा था कि मैंने अब्राहम को अपना नाम (जेहोवा) नहीं बताया था. इस तरह अब्राहम के ईश्वर (महाबली) और मूसा के ईश्वर जेहोवा एक हो गए.  करीब हजार वर्षों तक यहूदी अपने ईश्वर को जेहोवा कहते रहे.  

जिस काल से उनके ईश्वर जेहोवा कहलाने लगे लगभग उसी काल में सॉल ने इस्राएल राज्य स्थापित किया था. सॉल को विस्थापित कर तरुण दाऊद (डेविड) इस्राएल का राजा बना. दाऊद का शासन काल बहुत महत्वपूर्ण रहा. उससे भी अधिक महत्वपूर्ण रहा दाऊद का व्यक्तित्व. बाइबिल की किताब 'साम्स' (प्रार्थना गीत) में संकलित सारे डेढ़ सौ गीत दाऊद के लिखे माने जाते हैं, यद्यपि उनमे से कुछ बहुत स्पष्ट तौर पर उस काल के बाद के लिखे दीखते हैं.

दाऊद इतना ही महत्वपूर्ण था कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में ईसाइयों को लगा कि ईसा मसीह का दाऊद के साथ पारिवारिक सम्बन्ध होना ही चाहिए, और ईसा को दाऊद का पुत्र (सन ऑफ़ डेविड) कहा जाने लगा.

दाऊद ने अपने राज्य की राजधानी जेरूसलम में स्थापित की. यहीं उसने यहूदियों के सबसे बड़े धार्मिक प्रतीक 'आर्क ऑफ़ द कवेनेंट' को रखा. (बाइबिल के अनुसार यह आर्क, लकड़ी का एक चौकोर स्वर्ण मंडित बक्सा था, जिसे बनाने के निर्देश ईश्वर ने मूसा को तब दिए थे जब मिश्र से निकल कर यहूदी सिनाई पर्वत की तलहटी में शिविर गिराए हुए थे. बाइबिल कहता है, इसके अंदर वे दो शिलापट्ट थे जिनपर ईश्वर ने अपने निर्देश मूसा को दिए थे, साथ में मूसा के भाई आरों की छड़ी, और वह पात्र था जिस में मन्ना मिलता था जो दशकों तक मरुभूमि में भटकते यहूदियों का ईश्वर प्रदत्त आहार था.)

दाऊद के बाद उसका पुत्र सुलेमान (सोलोमन) राजा बना, जिसने यहूदियों के ईश्वर जेहोवा के सम्मान में जेरूसलम में एक विशाल मदिर बनवाया. इसी मंदिर के अंदर आर्क ऑफ़ द कवनेंट को रखा गया था जहाँ से सदियों बाद वह लुप्त होगया. सुलेमान के शासन काल में इस्राएल की आर्थिक और सामरिक सामर्थ्य इतनी बढ़ गयी थी कि यहूदी एक क्षेत्रीय शक्ति माने जाने लगे थे.

दाऊद और 'दाऊद के पुत्र' ईसा के बीच करीब हजार वर्षों का फासला था. इन सहस्त्र वर्षों को ईसाइयत के इतिहास की पहली सहस्त्राब्दि कहना बहुत गलत नहीं होगा. इसी काल में यहूदियों के ईश्वर जेहोवा के गुणों की पुष्टि हुई थी - जेहोवा एकमात्र ईश्वर बन कर उभरे, इतने परिपूर्ण कि उन्हें किसी साथी या संगिनी की आवश्यकता नहीं थी. इसी काल में जेरूसलम एक पवित्र क्षेत्र के रूप में जाना जाने लगा.

सुलेमान की मृत्यु के बाद उनका साम्राज्य रेत के किले के समान ढह गया. उसकी जगह यहूदियों के दो राज्य आए - दक्षिण में जुडाह या जूडीआ (या यहूदा) और उत्तर में इस्राएल. दोनों में इस्राएल बड़ा था. उस की स्थिति भी सामरिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण थी. 

केनन के पहाड़ों से होकर निकलने वाले रास्ते पर इस्राएल का आधिपत्य था. लेकिन जेरूसलम, और सुलेमान का बनवाया मंदिर, और इस तरह ईश्वर के आदेश पर बने आर्क ऑफ़ द कवनेंट अब जुडाह के पास थे. दोनों यहूदी राज्यों के बीच स्वाभाविक प्रतिस्पर्द्धा थी. इस्राएल का बाहरी दुनिया से अधिक संपर्क था. वहीँ जुडाह अंतर्मुखी होगया. व्यापार मार्ग पर स्थित होने के चलते इस्राएल की आर्थिक स्थिति समय के साथ जुडाह के मुकाबले अधिक सुदृढ़ होती गयी.

सॉल यहूदियों का राज्य बना पाए, दाऊद और सुलेमान उसे नयी दिशा दे पाए इसमें उनके अध्यव्यवसाय के साथ साथ परिस्थितियों के भी हाथ थे. केनन के दक्षिण के मिश्र और उत्तर के असीरियन साम्राज्य अपनी समस्याओं से उलझे रहने के चलते इस नए बने राज्य इस्राएल पर ध्यान नहीं दे पाए थे. यह स्थिति हमेशा नहीं रह सकती थी. सुलेमान की मृत्यु के कुछ दशकों बाद असीरियन साम्राज्य ने केनन पर अपनी गृद्ध दृष्टि डाली. बाइबिल और असीरियन अभिलेख, दोनों से पता चलता है कि ई.पू. 722 में उत्तर में स्थित इस्राएल को तहस नहस कर के वे जुडाह की तरफ बढ़ने वाले थे किन्तु तब तक उनके किसी और क्षेत्र में विद्रोह हो जाने के चलते वे उसे दबाने वापस चले गए.

जुडाह वासियों ने, जैसा स्वाभाविक था, इसमें अपने ईश्वर का हाथ देखा. इस काल के वृत्तांत बाइबिल की किताब 'प्रॉफेट्स' में मिलते हैं. अंग्रेजी शब्द प्रॉफेट का अर्थ आज कल हम 'प्रॉफेसी' यानी भविष्यवाणी से सम्बद्ध करते हैं. प्राचीन यूनानी में प्रॉफेट भविष्यवक्ता नहीं होते थे. वे ईश्वर / देवताओं के दिए संकेतों को समझने और समझाने वाले होते थे. ऐसे प्रॉफेट प्रायः सभी समुदायों में मिलते थे. प्रमाण हैं कि उसी काल में बेबीलोन में भी प्रॉफेट हुए थे. लेकिन आज लोग ऐसा समझते हैं कि प्रोफेट बस यहूदियों में और उसके अनुसार ईसाइयत के इतिहास में हुए.

ये प्रॉफेट मुख्यतः इस्राएल (और जुडाह) को बाहरी खतरों से आगाह करते थे लेकिन वे अंदरूनी खतरों के प्रति भी सजग थे. ये खतरे मुख्यतः जेहोवा की अवमानना लेकर थे. केनन में दूसरे देवों को मानने वाले भी थे. विशेषकर 'बाल' के भक्त. बाल के कृपा-क्षेत्र में उर्वरता प्रमुख थी. एक फ़ीनिशियन राजकुमारी जेज़ेबल, जिसका विवाह इस्राएल के राजा अहब से हुआ था, अपने साथ बाल का पंथ लेकर इस्राएल आयी थी. जेज़ेबल और यहूदियों के एक प्रॉफेट एलिजाह के बीच पुरजोर मतभेद / संघर्ष चला. दोनों ने एक दूसरे के समर्थकों की हत्या करवाई. बाल और जेहोवा के बीच होते इस संघर्ष में सैकड़ो मारे गए थे.

प्राचीन काल की राजनीति देखते हुए बाहरी शक्तियों से पराजित और फिर अपनी भूमी से निर्वासित के बाद यहूदियों का अस्तित्व मिट जाना चाहिए था. यह उनके पड़ोस के सभी समुदायों के साथ हुआ. रानी जेज़ेबल फ़ीनिशियन थी. फ़ीनिशियन नाविक थे, व्यापारी थे, उन्होंने यूनानियों से पहले अपनी भाषा के लिए अक्षर बना लिए थे. आज वे कहीं नहीं दीखते. न फिलिस्तीनी दीखते हैं, न केननाइट. यहूदियों के  समुदाय के आज भी बने रहने के पीछे जेहोवा में उनका विश्वास रहा और इस विश्वास को जगाने में, जगाए रखने के पीछे उनके प्रॉफेट रहे.

यहूदियों का उत्तरी राज्य इस्राएल पहले ही असीरियन साम्राज्य द्वारा जीता जा चुका था. दक्षिणी राज्य जुडाह को भी ई.पू. 586 में बेबीलोन के सैनिकों ने रौंद दिया. लेकिन उसके करीब साठ साल पहले जुडाह में एक विद्रोह हुआ था जिसमे तत्कालीन राजा आमोन की हत्या कर उसके अनुज जोसिआ को कठपुतली बनाकर गद्दी पर बिठाया गया था. वयस्क होने पर जोसिआ ने एक सुधार आंदोलन चलाया, जो प्राचीन काल की चलन के अनुरूप, एक नयी नियमावली की खोज के रूप में रखा गया. इस नयी नियमावली को मूसा द्वारा लिखा हुआ बताते हुए प्रमुख पुजारी के हाथों जेरूसलम के मदिर में इसके पाए जाने की बात बतायी गयी. हिब्रू बाइबिल के यूनानी अनुवादकों ने इसका नाम रखा 'ड्यूटरोनॉमी', शब्दार्थ है दूसरी नियमावली. 

ये नियम जेहोवा के असाधारण, सर्वोच्च स्थान को बनाए रखने पर केंद्रित थे और जैसा हम देखेंगे पराजय और विस्थापन के बाद अपने ईश्वर के प्रति वचनबद्धता के चलते ही यहूदी समुदाय आज तक बचा रह सका है.
(क्रमशः) 

ईसाइयत का इतिहास (3) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/05/3_26.html
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