Sunday 15 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (4)

       [चित्र: राम मोहन राय, ब्रिटिश लाइब्रेरी]

भारतीय पुनर्जागरण (रिनैशाँ) को मैं एक ब्रिटिश घोटाला या षडयंत्र नहीं कह रहा। लेकिन, कलकत्ता के हावड़ा ब्रिज पार कर, चितपुर से मैदान की ओर बढ़ते हुए, चौरंगी तक पहुँच कर जैसे कई राज खुलते जाते हैं। 

भद्रलोक (अभिजात्य) और मध्यबित (मध्यवर्ग) का विभाजन ब्रिटिश काल में ही उभरा, जो धीरे-धीरे पूरे भारत में पसर गया। उपनामों और पदवियों जैसे ठाकुर, चौधरी, रायचौधरी आदि का उपयोग बढ़ता चला गया। कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि उपनामों की प्रथा ब्रिटिश काल की ही देन है। उससे पहले पिता के नाम या मूल स्थान (गाँव) के नाम और कुछ उपाधियाँ उपयोग में थी। दक्षिण भारत में यह कुछ हद तक आज भी कायम है। जातिसूचक उपनाम लगाने की प्रतिबद्धता ब्रिटिश सर्वे के बाद शुरू हुए। 

प्राचीन ग्रंथों में तो उपनाम नहीं ही मिलते, मुगल काल में भी उनका प्रयोग कम ही था। मसलन, तुलसीदास ने उपनाम का उपयोग नहीं किया। यह किसी खोजी इतिहासकार ने ही ढूँढा होगा कि वह दूबे परिवार से थे। अन्यथा ‘तुलसीदास दूबे’ उन्होंने कभी लिखा न होगा।

आशीष नंदी इस विषय पर स्पष्ट राय रखते हैं- 

“आधुनिक उपनिवेशवाद ने फौजी या तकनीकी ताकत से उस तरह नहीं हराया, जितना एक वर्ग-व्यवस्था बना कर हराया जो पारंपरिक समाज संरचना से मेल नहीं खाती थी”

इस कथन को यूँ एक झटके में सत्यापित या ख़ारिज नहीं करना चाहिए। यह बात धीरे-धीरे खुलेगी। उनका एक निष्कर्ष मैंने अपनी किताब ‘कुली लाइंस’ में भी समाहित किया है कि ब्रिटिश एक स्थायी ‘हीनभावना’ देकर चले गए, जो आज तक है। जैसे कि ‘बंगाल पुनर्जागरण’ को आधुनिक भारत की नींव कहना कितना सही है? उससे पहले क्या भारत असभ्य, मध्ययुगीन और अवैज्ञानिक जीवन जी रहा था? 

सर विलियम जोन्स ने जब एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की, तो उन्होंने यह कहा कि यूरोपीय सभ्यता अधिक उन्नत है। उन्होंने जब कालिदास का अनुवाद किया तो उन्हें शेक्सपीयर के समकक्ष कहा। जबकि कालिदास शेक्सपीयर से हज़ार वर्ष पहले लिख चुके थे। जर्मन लेखक गोएथे ने कालिदास की शकुंतला के विषय में लिखा- ‘अगर स्वर्ग और पृथ्वी को मैं एक नाम से पुकारूँ तो वह नाम शकुंतला की होगी’। 

उनके बाद आए हेनरी कोलब्रुक इससे सहमत हुए कि भारत की सभ्यता सांस्कृतिक रूप से समृद्ध है। एशियाटिक सोसाइटी का ध्येय जितना भारत में पाश्चात्य ज्ञान लाना था, उससे अधिक भारतीय ज्ञान को पश्चिम ले जाना था। बल्कि अंग्रेज़ों से पहले पुर्तगाली पश्चिमी ज्ञान ला चुके थे। प्रिंटिंग प्रेस पहले ही आ चुका था, और तमिल से लेकर नागरी तक के अक्षरों की छपाई ब्लॉक बन चुके थे।

इसलिए, शासन करने के लिए भारत को ‘हीनभावना’ का इंजेक्शन देना ज़रूरी था। यह सिद्ध करना कि भारतीय संस्कृति एक कमजोर संस्कृति है। राममोहन राय के संबंध में बैप्टिस्ट जर्नल में आगे लिखा है,

“वह व्यक्ति कुछ हिन्दू रीतियों से नफ़रत करता है। यीशु को पसंद करता है, लेकिन ईसाई बनने को तैयार नहीं। समाज में उसे कुछ लोग बहुत सम्मान करते हैं, और कुछ उसे शातिर मानते हैं।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/3_14.html
#vss 

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