Thursday 12 August 2021

1942 के आंदोलन से जुड़े कुछ अन्य रोचक तथ्य / विजय शंकर सिंह

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अरुणा आसफ अली और उषा मेहता लगातार अंडरग्राउंड रेडियो स्टेशन संचालित करती रहीं। इसके जरिए आंदोलनकारी देश के दूसरे हिस्सों में हो रही गतिविधियों को जान सकते थे। नवंबर 1942 में अंग्रेज सरकार ने इसे पकड़ लिया।

अंग्रेजों भारत छोड़ो का प्रस्ताव पास होने के कुछ घंटों के अंदर कांग्रेस के पूरे नेतृत्व को तो अंग्रेजों ने जेल में डाल ही  दिया था, शहर और गांवों के स्थानीय नेता भी गिरफ्तार हो गए थे। जिसके कारण आंदोलन का नेतृत्व करने के लिये  कोई नेता ही नहीं बचा था। लेकिन इसके बावजूद करीब डेढ़ साल तक आंदोलन लगातार चलता रहा। 

बंगाल के मिदनापुर, महाराष्ट्र के सतारा और उत्तरप्रदेश के बलिया में स्थानीय आंदोलनकारियों ने अपनी सरकार बना ली थी। बलिया में आंदोलनकारियों ने, चित्तू पांडेय के नेतृत्व में, कलेकरेट पर कब्जा कर लिया था और उन्होंने कांग्रेस के गिरफ्तार नेताओं को जो बलिया जेल में बंद थे, रिहा कर दिया। जबकि मिदनापुर की प्रांतीय सरकार तो 1944 तक चलती रही। महात्मा गांधी की अपील के बाद ही आंदोलनकारी इसे खत्म करने को राजी हुए।

आंदोलनकारियों ने अंग्रेजी सत्ता और उसके प्रतिष्ठानों के खिलाफ हिंसा का भी सहारा लिया। करीब 250 रेलवे स्टेशन, 150 पुलिस थाने और 500 से ज्यादा पोस्ट ऑफिस जला दिए गए। कांग्रेस भी इसे नियंत्रित नहीं कर पाई क्योंकि इसके सारे नेता जेल में थे।

आप सन बयालीस के किस्से पढिये, वह एक जुनून था। आज़ाद होने का जुनून। अभी नहीं तो कभी नहीं जैसी भावना बन गयी थी। करो या मरो। जब अंगेजो ने गांधी से कहा कि देश किसे दे कर जांय। यह बात है, जब धर्म के आधार पर, बंटवारे की बात चल रही थी, और कुछ तय नहीं हो पा रहा था। गांधी ने कहा, 'आप जाइये, जब कुछ समझ मे न आये तो, ईश्वर के भरोसे छोड़ कर जाइये, पर जाइये।'

पर आज़ादी के इस जुनून से आरएसएस, हिन्दू महासभा, सावरकर, डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी कैसे अपने को अलग कर के रह सके, यह बात मुझे बेहद अचंभित करती है। मुस्लिम लीग और जिन्ना तो एक अलग राष्ट्र की उम्मीद में अँगेजो के साथ थे ही, पर धार्मिक और आस्थागत मतभेद होने के बावजूद इनके साथ सावरकर किस उम्मीद में मिल गए ? 

यह इतिहास का एक विचित्र प्रहसन है कि, न तो जिन्ना को इस्लाम पर कोई विशेष आस्था थी और सावरकर तो नास्तिक ही थे, पर जब धर्म का नशा दोनो को चढ़ा तो, दोनो ही धर्मांधता के शिकार हो गए। मूल रूप से अधार्मिक, यह दोनो नेता, धर्म आधारित राज्य चाहते थे, और गांधी जो, पूरी तरह से, सनातन धर्म के प्रति आस्थावान थे, ने एक सेक्युलर राज्य के लिये अपनी जान गंवा दी। 

( विजय शंकर सिंह )

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