Saturday 14 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (3)

“सत्य यही है कि भारत में ईसाई धर्म का प्रसार बुरी तरह असफल रहा। दो हज़ार वर्षों तक धन, ताक़त, और मानव संसाधन लगाने के बाद भी ईसाई तीन-चार प्रतिशत तक सिमट कर रह गए।”
- टोनी जोसफ़, पत्रकार-लेखक

जब ब्रिटिश साम्राज्य पूरी दुनिया में स्थापित होने लगा, तो ईसाई झंडा बुलंद करने की भी चाहत हुई। अफ़्रीका, कैरीबियन और दक्षिण एशिया में उनको अच्छी सफलता मिली। लेकिन सनद रहे कि नयी दुनिया में बुतपरस्तों को ईसाई बनाने का प्रयास भारत से ही शुरू हुआ। इस कार्य के लिए ‘बैप्टिस्ट मिशनरी सोसाइटी’ की स्थापना हुई और इसके प्रणेता विलियम कैरी 1793 में कलकत्ता आए। वहाँ ब्रिटिश राज स्थापित हो चुका था, तो यह काम चुटकियों का खेल था।

सात साल तक भटकने के बावजूद वह एक ईसाई नहीं तैयार कर सके। वह गरीब बस्तियों में गए। निम्न वर्गीय समाज में गए। कहीं कुछ हाथ नहीं लगा। सात वर्ष बाद जब वह पहला ईसाई बनाने में कामयाब हुए, तो वह धर्मांतरित व्यक्ति कहीं गुम हो गए। उन्हें यह अहसास हो गया, कि भारतीय मन को भेदना टेढ़ी खीर है। उनकी पत्नी तो पागल ही हो गयीं।

दरअसल वह एक बाइबल लेकर घूम रहे थे, और भारत में उनके समक्ष ग्रंथों का अंबार था। वह उन्हीं में उलझ गए। मैं उनकी एक दैनिक डायरी पढ़ रहा था। वह लिखते हैं,

“आज पौने छह बजे नींद खुली तो हिब्रू बाइबल खोल कर बैठ गया और सात बजे तक ईश्वर में ध्यान लगाया। साथ में कुछ बंगाली नौकर भी प्रार्थना में शामिल हुए। चाय का प्याला सामने आया ही था कि मुंशी एक फ़ारसी और एक हिंदुस्तानी में लिखी ग्रंथ पढ़ाने लगे।

नाश्ते के बाद पंडित रामायण का संस्कृत से अनुवाद समझाने लगे। दस बजे तक रामायण ही चलता रहा, जब मैं कॉलेज (फोर्ट विलियम) के लिए निकला। डेढ़ बजे लौटा तो जेरेमिया और मैथ्यू अध्यायों का संस्कृत अनुवाद करने लगा, जो भोजन काल तक चलता रहा। 

छह बजे एक तेलुगु पंडित आ गए, जो तेलुगु भाषा के ग्रंथ पढ़ाने लगे। साढ़े सात बजे ही मैं पुन: अपने ईसाई वाचन में लौट पाया, और ग्रीक टेस्टामेंट पढ़ते हुए नींद आने लगी।”

एक ईसाई मिशनरी का यूँ भारत के धर्मग्रंथों में उलझना आश्चर्य नहीं। ऐसी समस्या अफ़्रीका या कैरीबियन में नहीं थी। ईसाई धर्म तो तकनीकी रूप से यीशु मसीह के सात दशक बाद ही आ गया था। भारत में इतने दर्शन, इतने ग्रंथ, और इतनी समृद्ध भाषाएँ थी कि कौन न उलझ जाए। सीरामपुर में एक मिशनरी स्थापित कर उनकी पहली रणनीति तो यही थी- ‘अपने शत्रु को समझो’। शत्रु यानी हिन्दू धर्म। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो यह पहले ही समझ चुका हो।

1817 के एक बैप्टिस्ट पत्रिका में एक सूचना जैसा कॉलम छपा,

“एक बहुत ही अमीर ब्राह्मण है, जिसे संस्कृत का बृहद ज्ञान है, फ़ारसी और अरबी का पर्याप्त अध्ययन है। इतना कि उसे मुसलमान मौलवी बुलाते हैं। अंग्रेज़ी भी वह इतना ही शुद्ध बोलता और लिखता है। गणित में वह प्रवीण है। उसका नाम है राम मोहन राय।”
( क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/2_13.html
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