Friday 27 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (16)

“बंकिम! तुम्हारे नाम का अर्थ है ‘झुका हुआ’। तुम्हें किसने झुकाया?”

“अंग्रेज़ों के जूतों ने ही झुकाया होगा”

(रामकृष्ण परमहंस और बंकिमचंद्र चटर्जी के मध्य संवाद)

हम अक्सर ब्रिटिश इतिहास के किसी किरदार पर आरोप लगा देते हैं कि फलाना अंग्रेज़ों के साथी थे, फलाना एजेंट थे, फलाना उनके लिए काम करते थे। अमुक ने मुखबिरी की, अमुक ने माफ़ीनामा लिखा। सच तो यह है कि कमो-बेश सभी भारतीयों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष, ब्रिटिशों के लिए काम किया होगा, उनके स्कूल-कॉलेज में पढ़ा होगा, या लाटसाहबों का आदर किया होगा। ऐसा नहीं कि अंग्रेज़ देखते ही हमारे पुरखे ढेला लेकर मारते होंगे। अंग्रेज़ों ने सैन्य आक्रमण कर भारत पर कब्जा नहीं किया, बल्कि वे शातिरी से धीरे-धीरे भारत में (और भारतीयों में) घुस गए। शायद यही कारण है कि इंग्लैंड में रह रहे तमाम भारतीय आज यह योजना नहीं बनाते कि बकिंघम पैलेस उड़ा दिया जाए, बल्कि उस लूट से बने महल के सामने तस्वीर खिंचा कर गर्व महसूस करते हैं।

बंकिमचंद्र चटर्जी राष्ट्रवाद के मूर्त रूप माने जाते हैं। उनका लिखा ‘वन्दे मातरम्’ उन प्रथम गीतों के रूप में माना जाता है जब भारत-भूमि को एक माता रूप में चित्रित किया गया। लेकिन, यह भी सत्य है कि जब 1857 में भारत में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, वह ब्रिटिश राज के कलकत्ता विश्वविद्यालय में एडमिशन ले रहे थे। वह ब्रिटिश राज के पहले ग्रैजुएट हुए। उन्होंने आजीवन अंग्रेज़ों की ही नौकरी की। एक प्रकरण है जब राजा राममोहन राय की तरह ही उनको पालकी से उतार कर बेइज्जत किया गया, क्योंकि उनकी पालकी क्रिकेट मैदान से गुजर गयी थी। फिर भी उन्होंने नौकरी जारी रखी। वह डिप्टी कलक्टर बने। उनको अंग्रेज़ों ने इस कार्य के लिए न सिर्फ़ ‘रायबहादुर’ बल्कि ‘कमांडर ऑफ ऑर्डर’ से भी सम्मानित किया। 

इसके बावजूद बंकिमचंद्र चटर्जी का नाम बंगाल रिनैशां के पहले मुखर राष्ट्रवादियों में है। कलकत्ता विश्वविद्यालय के विद्यार्थी उनसे प्रभावित थे। उनके जूनियर रहे सुरेंद्रनाथ बनर्जी, शिवनाथ शास्त्री और आनंद मोहन बोस ने मिल कर 1876 में भारत का पहला राष्ट्रवादी संगठन ‘इंडियन एसोसिएशन’ बनाया। ये भारतीयों की समस्या को ब्रिटिश सरकार के समक्ष उठाने लगे, और इन्हीं कोशिशों का बृहत रूप ‘इंडियन नैशनल कांग्रेस’ के रूप में आया। 

बंकिमचंद्र ने बंगाली राष्ट्रवाद जगाने के लिए बंगाली में लिखना आवश्यक माना। 

उन्होंने कहा, “हम कॉलेज से पढ़े लोग बंगाली में लिखना पसंद नहीं करते। हर लेखक अंग्रेज़ी से ही शुरुआत करता है, और बंगाली को दूसरा दर्जा देता है।”

उनका कथन माइकल मधुसूदन दत्त जैसों के लिए था। हालाँकि उन्होंने स्वयं भी शुरुआत अंग्रेज़ी उपन्यास ‘राजमोहन्स वाइफ़’ से ही की, लेकिन वह उपन्यास उन्होंने पत्रिकाओं के लिए शृंखला रूप में लिखा था। बंगाली में उनसे पहले दो ही उपन्यास लिखे गए थे। पहला उपन्यास हान्ना कैथरीन मुलेन्स ने लिखा था ‘फूलमणि ओ करुणार विवरण’ (1852), लेकिन ईसाई महिला होने के नाते उनका महत्व कमतर था। दूसरा उपन्यास प्यारे चंद्र मित्रा ने लिखा- ‘अलरेर घरेर दुलाल’ (1858)। 

बंकिमचंद्र का पहला उपन्यास ‘दुर्गेशनंदिनी’ (1865) कुछ इतिहासकार भारतीय भाषा का पहला उपन्यास मानते हैं। उन पर आरोप लगा कि यह वाल्टर स्कॉट की ‘इवानहो’ की नकल है, हालाँकि उन्होंने स्वयं कहा कि अमुक पुस्तक उन्होंने पढ़ी ही नहीं थी। 

जब उन्होंने ‘आनंदमठ’ (1882) लिखा, उस समय भारत के राष्ट्रवाद की कुछ कोपलें फूट रही थी। इस उपन्यास और ख़ास कर ‘वन्दे मातरम’ कविता ने जैसे इसमें जान फूँक दी। आनंदमठ में सिर्फ़ राष्ट्रवादी ही नहीं, बल्कि हिन्दू राष्ट्रवादी स्वर भी था। 

बंकिमचंद्र ने इसे मुखर होकर लिखा था, और बाद में धर्म पर अपने लेखों में उन्होंने स्पष्ट ही लिखा, “हिन्दू धर्म सकल धर्मेर मध्ये श्रेष्ठ धर्म।”

उस समय के भारत में उनके इन कथनों को राष्ट्रवादी चेतना के रूप में ही देखा गया, क्योंकि धर्म आधारित राष्ट्रवाद पहले इस कदर उभरा नहीं था। हालाँकि मुसलमान इससे खुश नहीं थे, और उसकी माकूल वजह भी थी। लेकिन यह भारतीयों के मध्य ‘हीनभावना’ को कुछ हद तक खत्म करने लगा। 

बंकिमचंद्र का यह कहना कि उनका धर्म, उनकी भूमि, उनकी संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है, यह ब्रिटिशों और ईसाई श्रेष्ठता पर एक चोट थी। मगर इस बात के तर्क क्या थे कि हिन्दू धर्म या कोई भी धर्म श्रेष्ठ है? इसका निर्णय कौन करेगा? हर व्यक्ति तो यही कहेगा कि उसी का धर्म श्रेष्ठ है। ऐसा कोई सम्मेलन हो, जिसमें सभी धर्म के लोग बैठ कर अपने विचार बाँटें तो संभवत: कुछ आदान-प्रदान हो। 

1893 में जब बंकिमचंद्र मृत्यु-शय्या पर थे, तो शिकागो में ऐसा ही एक सम्मेलन आयोजित हो रहा था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (15)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/15.html
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