Saturday 17 October 2020

विचारविमर्श - गाँधी, आम्बेडकर और मार्क्स

सन 2003 में जनसत्ता के अपने लेख में मैंने यह निवेदन किया था कि भारत में सामाजिक परिवर्तन के लिए गाँधी, आम्बेडकर और मार्क्स की वैचारिक धाराओं में सम्वाद अनिवार्य है। तब तीनों विचारों से जुड़े थोड़े से लोगों को छोड़कर अधिकांश ने विरोध किया था। लेकिन लगभग दो दशक बीतने से पहले ही इस दिशा में सोचने वाले लोग दृढ़ता से सामने आने लगे हैं। इनमें एक हैं हम सबके मित्र और मराठी के दलित लेखक सूर्यनारायण रणसुभे। 

सूर्यनारायण रणसुभे बहुत सुलझे हुए विचारक हैं। उनसे मेरी मित्रता 23-24 वर्ष पुरानी है। उन्होंने आम्बेडकर और गाँधी के विचार साम्य पर 'वागर्थ' अगस्त 2020 के अंक में अत्यंत महत्वपूर्ण लेख लिखा है। (संपादक: डॉ. शंभुनाथ, कोलकाता) आम्बेडकर रचनावली के मराठी संस्करण और मराठी में आम्बेडकर पर हुए शोधपूर्ण कार्यों का हवाला देते हुए रणसुभे ने हिंदी दलित विमर्श में प्रचलित बहुत-सी मान्यताओं को निरस्त किया है। उदाहरण के रूप में यह एक विस्तृत अंश देखा जा सकता है:

"अगर सचमुच आम्बेडकर के मन में गाँधी के प्रति अनादर होता तो वे महाड सत्याग्रह के अवसर पर मंच पर गाँधी की तस्वीर क्यों लगते? अपने लेखों में वे अनेक स्थानों पर उनका सम्बोधन महात्मा के रूप में क्यों करते? धम्म परिवर्तन के पूर्व बुलायी गयी पत्रकार परिषद में वे गाँधी जी को दिये गये अपने शब्दों का पुनरुच्चार क्यों करते? और अंत में सरदार वल्लभभाई के पत्र के उत्तर में यह क्यों लिखते कि बापू आज होते तो वे हमें (पुनर्विवाह के उपलक्ष्य में) निश्चित ही आशीर्वाद देते? वे दलित बन्धुओं से चरखा कातने औऱ खादी के कपड़े पहनने के लिए क्यों कहते? ये सारे प्रमाण उनके लेखन से ही लिए गए हैं।"  (पृ.100) 

गाँधी से अपने जिस वचन का ज़िक्र आम्बेडकर कर रहे हैं, वह है: "अस्पृश्यता के प्रश्न सम्बन्धी चर्चा करते समय मैंने एक बार गाँधीजी से कहा था कि अस्पृश्यता की समस्या को लेकर मेरे और आपके बीच भले ही मतभेद हों, तो भी समय आने पर मैं इस देश को कम से कम ख़तरा हो ऐसा मार्ग चुनूँगा। इस कारण बौद्ध धम्म को  स्वीकार कर मैं इस देश का अधिकाधिक हित कर रहा हूँ।" (पृ.99) 

हिंदी के दलित विमर्श की एक प्रभावशाली धारा इस सत्य से या तो अनभिज्ञ है या इसे सचेत रूप में झुठलाती है। ऐसा करने का एक उद्देश्य है। समाज में परिवर्तन की जगह अपनी शक्ति मज़बूत करना। गाँधी और आम्बेडकर दोनों अपने देश और समाज का भाग्य बदलने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनमें मतभेद भी थे और दोनों एक-दूसरे को समझकर परस्पर विकास भी कर रहे थे। इसका अच्छा परिचय रणसुभे के लेख में मिलता है। जो लोग इन दोनों महापुरूषों को भिड़ाने में रुचि रखते हैं, वे दलितों के अलग निर्वाचन के विरुद्ध गाँधी के अनशन को मुद्दा बनाते हैं और गाँधी-आम्बेडकर के बीच हुए पूना समझौते को पराजय की तरह देखते हैं। 

ऐसे विचारक दलित हित और देश हित मे सम्भवतः विरोध मानते हैं। गाँधी के अनशन के आगे आम्बेडकर का झुकना और पूना समझौता करना दलित हित और देश हित  का सामंजस्य व्यक्त करता है।  रणसुभे ने उदाहरण देकर बताया है कि अगर अनशन में गाँधी की मृत्यु हो जाती तो सवर्ण और बहुजन (पिछड़ी जातियाँ) दलितों पर हमले करते, जैसा चितपावन ब्राह्मण नाथूराम गोडसे द्वारा गाँधी की हत्या के बाद हुए हमलों में दिखायी दिया; इन हमलों से गृहयुद्ध भी छिड़ सकता था जिससे अंग्रेजों को बहाना मिल जाता कि  "वह घोषित कर सकें ऐसी स्थिति में वे स्वतंत्रता नहीं देंगे।" जो गैर-दलित' 'प्रगतिशील' बुद्धिजीवी आम्बेडकर को अंग्रेजों का हिमायती मानते हैं, यह उनके लिए भी शिक्षाप्रद है। 

संविधान का लेखन आम्बेडकर ने किया। संविधान समिति में कुल 324 सदस्य थे। इनके बीच व्यापक बहसें हुई थीं। इन सदस्यों में 82% गाँधी और नेहरू का नेतृत्व मानते थे। रणसुभे ने सही कहा है कि यदि वे न चाहते तो आम्बेडकर संविधान में अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप प्रावधान नहीं कर सकते थे। गाँधी हत्या से पहले वे जो प्रावधान स्वीकृत करा चुके थे, उनमें "मुख्य रूप से अस्पृश्यता निर्मूलन, आरक्षण, राष्ट्रध्वज पर धम्मचक्र आदि" उल्लेखनीय हैं। उनकी इस सफलता का "एकमात्र कारण उन्हें इस कार्य में गाँधी और नेहरू का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।" (पृ.107) रणसुभे यहाँ तक कहते हैं कि "अगर गाँधी जीवित होते तो हिन्दू कोड बिल भी आसानी से पारित हो सकता था।" (पृ.107)

इस लेख का अंतिम हिस्सा और भी महत्वपूर्ण है। रणसुभे ने बताया है कि "दक्षिण भारत में मार्क्स और आम्बेडकर के विचारों में साम्य बतलाने की दृष्टि से कार्य हो रहा है। उसका भी अपना महत्व है। सवाल यह है कि हिंदी पट्टी के दलित नेता, कवि, बुद्धिजीवी इस दिशा में क्या कर रहे हैं।"(पृ.109) 

यदि गाँधी और आम्बेडकर में अनेक समानताएँ थी, आम्बेडकर और मार्क्स के विचारों में समानता की पहचान की जा रही है, तो यह मानना चाहिए कि तीनों के बीच अनेक ऐसे वैचारिक सूत्र हैं जिनसे वर्तमान भारत की नियति का सम्बंध है। तीनों मनीषी यथास्थिति को स्वीकार न करके उसे मानव हित में बदलने के लिए तत्पर थे। रणसुभे ने बहुत सुलझे हुए रूप में कहा है कि "तीनों का लक्ष्य एक ही थे--समाज की आखिरी सीढ़ी पर बैठे हुए मनुष्य को अधिक समृद्ध, अधिक सुदृढ़ और अधिक स्वाभिमानी बनाना।" (पृ.110) 

मुझे सूर्यनारायण रणसुभे के इस निष्कर्ष पर बहुत सन्तोष है क्योंकि जैसा पहले बताया कि 2003 से ही मैं इस विचार की प्रस्तावना करता आ रहा हूँ। 

इतना मूल्यवान लेख लिखने के लिए रणसुभे को और उसे प्रकाशित करने के लिए शंभुनाथ को साधुवाद। 

अजय तिवारी
( Ajay Tiwari )

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