Saturday 10 October 2020

इतिहास - बाँदा के नवाब


एक मुस्लिम नवाब जो क़ुरआन हाफ़िज़ भी थे, उन्होंने अपनी रियासत में गौ हत्या पर पाबंदी लगा दी थी और वो नवाब थे, बुंदेलखंड की बांदा रियासत के आख़री नवाब श्रीमंत अली बहादुर सानी(२) 1857। अफसोस कि ये इतिहास आज गिने चुने लोग ही जानते हैं। आज से कुछ तीस-पैंतीस साल पहले तक स्कूल और कॉलेज की इतिहास की किताबों में तो नवाब बांदा का ज़िक्र आता था, लेकिन अब तो सिरे से ही नाम हटा दिया गया है।

ये एक विडंबना ही है कि हमारे इतिहास का 80 फीसद हिस्सा लिखा नहीं गया है, बल्कि लिखवाया गया है। जो लोग उस वक़्त सत्ता पर, गादियों पर क़ाबिज़ हुआ करते थे, उन्होंने इतिहास को अपने हिसाब से लिखवाया। बावजूद इस सब के, जिस तरह मुश्क (कस्तूरी) की ख़ुशबू को क़ैद नहीं किया जा सकता, उसी तरह सच भी उस फ़र्ज़ी झूठ की नज़रों से बच कर खुद को लिखता रहता है। एक तरफ जहां ज़्यादातर इतिहासकार चाटुकारिता के क़लम से ग़लत इतिहास गढ़ते रहे, वहीं दूसरी तरफ सच भी समानांतर रूप से खुद को "कुछ" लेकिन ईमानदार इतिहास के लिखने वालों से लिखवाता रहा। ऐसा ही एक सच इतिहास में मिटाने की तमामतरर कोशिशों के बाद भी दर्ज हुआ। 13 जून 1857, भारत के इतिहास में ये बहुत बड़ा दिन था, जिसके पन्ने पहले अंग्रेजों ने और फिर "कहने को आज़ाद" मुल्क के बेताज रजवाड़ों(नेताओं) ने एक सोची समझी साज़िश के तहत इतिहास की किताब से निकाल कर फेंक दिए। 

जी हां ये सच है कि इसी दिन बांदा (बुंदेलखंड) की धरती से क्रांतिकारियों और आज़ादी के मतवाले सैनिकों ने अंग्रेजों को खदेड़ दिया था, श्रीमंत नवाब अली बहादुर २ के नेतृत्व में और नारा दिया "ख़ल्क़ खुदा का, मुल्क बादशाह का और हुक्म नवाब अली बहादुर का" ये उस वक़्त का सबसे मशहूर क्रांतिकारी स्लोगन था, जो बांदा से लेकर झांसी, ग्वालियर और दिल्ली तक मशहूर हुआ।

अंग्रेजों से सत्ता हथियाते वक्त नवाब अली बहादुर सानी की उम्र जून 1857 में मात्र 22 साल थी। इतिहासकारों के मुताबिक तत्कालीन कलेक्टर मेन ने बांदा छोड़ने के बाद लिखा था कि "नवाब मैदानी खेलों और पुरुषोचित व्यायामों का हमेशा शौकीन रहा है। वह राइफल और पिस्तौल का अच्छा निशानेबाज और श्रेष्ठ साहसी घुड़सवार है। बेहद व्यक्तिगत कष्ट झेल सकता है, इसलिए खतरनाक साबित हो सकता है"। 

दरअसल मई 1857 में मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह से उस वक़्त अंग्रेज़ बुरी तरह से बौखलाए हुए थे और डरे हुए भी। और दिल्ली से 83 बरस के बहादुर शाह ज़फर ने भी आज़ादी का बिगुल फूंक दिया था। इसी के मद्देनज़र अंग्रेजों ने पहले से अपने अधीन सभी छोटे-बड़े राज्यों और रियासतों के राजाओं-नवाबों को गद्दी से भी हटा कर पूरी तरह सत्ता अपने हाथों में ले ली थी। एक तरफ जहां क्रांतिकारी अंग्रेजों को ढूंढ ढूंढ कर मार रहे थे, तो दूसरी तरफ पूरे मुल्क में इस लड़ाई का फायदा उठा कर कुछ लोग लूटपाट में लगे हुए थे। चौतरफा मची मारकाट और लूटपाट को रोकने के लिए नवाब साहब(बांदा) ने एलान किया कि अब किसी का कत्ल, लूटपाट या रहज़नी हरगिज न की जाए। जो ऐसा करेगा उसकी चल-अचल संपत्ति जब्त करके आग के हवाले कर दी जाएगी। और ये वही नवाब थे, जिन्होंने सत्ता संभालते ही अपनी रियासत में गाय, बैल की हत्या पर भी पाबंदी लगा दी थी।

नवाब साहब के इस एलान पर निम्नीपार स्थित अपने महल में रह रहे रनजोर सिंह दउवा ने उपद्रवियों और अजयगढ़ की फौज की मदद से बांदा में अपना राज कायम करने का एलान कर दिया लेकिन इससे पहले कि अजयगढ़ और नवाब की फौज आमने-सामने आएं, नवाब अली बहादुर ने सूझबूझ से काम लेते हुए रनजोर सिंह दउवा को बुलाया और समझाया कि इस वक्त उपद्रवियों का ज़ोर है, वह हंगामा कर रहे हैं। बवाल खत्म होने दो फिर नाना साहब पेशवा(बिठूर) जो फैसला करेंगे हम दोनों मान लेंगे। दउवा मान गया और अजयगढ़ की फौज निम्नीपार लौट गई। 

ऐसे वक्त में बांदा के नवाब अली बहादुर को दो तरफा आदेश और स्वीकृति मिली, जिसमें बहादुर शाह का संदेशा भी था और तत्कालीन पेशवा नाना साहेब का आग्रह भी। नवाब अली बहादुर मराठा साम्राज्य के सबसे पराक्रमी पेशवा वाजीराव व मनस्तानी की पांचवी पीढ़ी की संतान थे(यानी श्रीमंत बाजीराव का असल खून, कोई दत्तक नहीं)। इसी नाते वे नाना साहेब( पेशवा बाजीराव 2 के दत्तक पुत्र) की ना सिर्फ इज़्ज़त करते थे बल्कि उन्हें काका साहेब बुलाते थे। लेकिन इस सब से ज़्यादा बड़ा काम किया एक चिट्ठी ने जिसे एक डाकिया (दुलारे लाल) झांसी से लेकर आया था। ये कोई मामूली चिट्ठी नहीं थी, इसमें शब्दों के साथ एक बहुत ही पवित्र रिश्ता भी बंधा हुआ था। जी हां लिफाफे में ख़त के साथ एक राखी भी थी, जिसे देख कर नवाब साहब का हाथ सीधे अपनी तलवार पर गया...उस राखी के बंधन की रक्षा के लिए...और ये चिट्ठी थी, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की।

भाई-बहन के पवित्र रिश्तों का त्योहार रक्षाबंधन आज भी बुन्देलखण्ड के इस हिस्से में 'साम्प्रदायिक सौहार्द' की मिसाल है। बुन्देलखण्ड में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने भी हमेशां इस त्योहार को बढ़-चढ़कर मनाया। 
इतिहास बताता है कि जब अंग्रेज सेना ने झांसी के किले को घेर लिया था और रानी के पास बचाव का कोई रास्ता नहीं था। तब रानी ने ये चिट्ठी नवाब बांदा को लिखी थी।

इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली ने इस सम्बंध में अपनी किताब में लिखा है, कि "यह पत्र रानी झांसी का हस्तलिखित था। पत्र और राखी मिलते ही नवाब अली बहादुर अपनी दस हजार सैनिकों की फौज लेकर बहन की रक्षा हेतु झांसी कूच कर गए थे, मगर नवाब के पहुंचने से पूर्व रानी किले से कूद कर कालपी की ओर निकल गईं थीं। नवाब और फिरंगी सेना में भीषण संग्राम हुआ था, भारी तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए थे।" उधर बांदा में भी फिरंगियों ने बांदा के 3000 सैनिकों को शहीद कर दिया था। जिनकी लाशें पेड़ों पर लटका दी गई थीं।

इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली लिखते हैं कि रानी ने शुद्घ बुंदेली भाषा में अपने डाकिए लाला दुलारेलाल के हाथ चैत्र सुदी संवत्सर 1914 (जून, सन् 1857) को बांदा के नवाब अली बहादुर को राखी के साथ जो चिट्ठी भेजी थी। उस चिट्ठी में लिखा था कि "हमारी राय है कै विदेसियों का सासन भारत पर न भओ चाहिजे और हमको अपुन कौ बड़ौ भरोसौ है और हम फौज की तैयारी कर रहे हैं शो अंगरेजन से लड़वौ बहुत जरूरी है पाती समाचार देवै में आवे" यह पत्र कलम और स्याही से लिखा प्रतीत होता है, इसमें न तो कोई विराम है और न ही शब्दों में जगह छूटी है। 

बस यहीं से शुरू हुआ नवाब अली बहादुर का पराक्रम और अपनी मिट्टी के लिए संघर्ष। 13 जून को उन्होंने अंग्रेजों से बग़ावत का ऐलान कर दिया और सत्ता पूरी तरह अपने हाथों मे ले ली। न सिर्फ बग़ावत की, बल्कि अंग्रेज़ों को अपनी रियासत से बाहर भी कर दिया। जो नहीं माना, उसे मार गिराया। इतिहासकारों ने लिखा है कि यह विद्रोह नहीं बल्कि इंकलाब था। इस लेख का मक़सद यही है कि हम अपना सही इतिहास जानें और आने वाली नस्लों तक पहुंचाएं।




नूह आलम
( Nooh Alam )

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