Saturday 31 October 2020

शब्दवेध (8) पारिभाषिक शब्द

अपने आगे की चर्चा में हम भारोपीय क्षेत्र में फैली भाषा के लिए भारोपीय का ही प्रयोग करेंगे, क्योंकि, जिस भाषा का प्रसार हुआ था वह न तो वह भाषा थी जिसके नमूने ऋग्वेद की ऋचाओं में मिलते हैं, न ही संस्कृत थी। यह बोलचाल की वह भाषा थी जिसमें उन बोलियों के लक्ष्मण भी विद्यमान थे जिन्हें हम आजकल भारत के दूसरे भाषा-परिवारों में गिनने के अभ्यस्त हैं।

सारस्वत क्षेत्र की भाषा सही प्रतिनिधित्व बांगरू करती है जिसे हरयाणवी ने संभाल रखा है। प्राकृतों के लिए मागधी, आर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री नाम स्वयं प्राकृतों की ध्वनि-प्रकृति से मेल नहीं खाते। ये नामकरण बोलियों के उसी संस्कृतीकरण के प्रमाण हैं, जिनके दबाव या प्रभाव से मगही बोली का प्राकृत रूप बना था। इसका पहले भी मगही/मगी जैसा कोई नाम था और आज भी मगही ही प्रचलित है। इसका नामकरण मग जनों की बोली होने के कारण किया गया था। ऐसा लगता है, मगध में इन जनों की आनुपातिक उपस्थिति अधिक थी, परंतु भोजपुरी और अवधी क्षेत्र में भी इनका निवास या विचरण क्षेत्र था, इसके प्रमाण मध्य पाषाण काल से ही देखने में आते हैं जो महगरा (यहाँ मगों का निवास- *मगघर>मगहर में वर्णविपर्यय हुआ है) से प्रकट है। पहले संभवतः मैदानी भाग में इन्हीं की उपस्थिति प्रमुख थी।

अपनी शक्ति बढ़ा लेने के बाद उत्तर के पहाड़ी क्षेत्र से जिसे आज भी देव भूमि कहा जाता है, और जिसका विस्तार पूरे पर्वतीय क्षेत्र के लिए हो गया, उतर कर देवों ने नदियों के कछार में अपना अधिकार इनके बीच ही जमाया था, और उन स्थानों का नाम देव- पूर्वपद के साथ रखा था जो देवरिया, देवकली, देवार आदि में बचा हुआ है। लहुरा देवा ( देवों की छोटी/ नई बस्ती) जहां से लगभग 7000 ईसा पूर्व के आसपास स्थाई बस्ती के प्रमाण मिले, वह भी मग-बहुल क्षेत्र में ही बसा था।

देवों का इनसे सैद्धांतिक विरोध था। ये मंत्र तंत्र जादू टोना में विश्वास करते थे, जिससे वैज्ञानिक सूझ रखने वाले देवों का विरोध था। सबसे पहले उन्हें इन्हीं से टकराना पड़ा था और यह टकराव हजारों साल तक बना रहा था।

देव समाज के सामने कमजोर पड़ने के बाद मगों को पश्चिमोत्तर की ओर पलायन करना पड़ा था, वे ईरान पहुँचे थे। इनका प्रभाव पश्चिम में दूर तक फैला था और यह माना जाता है अंग्रेजी का मैजिक शब्द मगों/मागियों के चमत्कार के दावे का ही परिणाम है। देवों से शत्रुता की यह गांठ बाद में भी बनी रही, और वैदिक कालीन विस्तार के चरण पर ईरान में देव समाज को अपने प्रभुत्व के बाद भी, जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसी का नतीजा था देव शब्द का अवेस्ता में निंदा परक प्रयोग जो अंग्रेजी के डेविल शब्द में भी देखा जा सकता है।

हम भाषा की बात कर रहे हैं, इसलिए याद दिलाना जरूरी है कि अपने प्रभाव क्षेत्र से भगाए जाने के बाद भी न तो इनका पूरा उन्मूलन हुआ, न इनकी ओर से विरोध कम होने के बाद इसकी जरूरत थी। अब वे विघ्नकारी नहीं रह गए थे। इनकी बोली का गहरा प्रभाव भोजपुरी के निर्माण पर पड़ा। मागधी और अर्धमगधी के आपसी संबंध इसी सूत्र से जुड़े हुए हैं। इनके लिए हम आगे पूरबी बोली का ही प्रयोग करेंगें, यद्यपि इनके भीतर कई रंग है। यह ध्यान देने की बात है कि जैन प्राकृत/ आर्ष प्राकृत का आधार अर्धमागधी है जिसमें श-कार से विरक्ति है, और ल-कार की तुलना में र-कार प्रेम पाया जाता है। "जैन धर्म के प्राचीन सक्त अद्धमागह  भाषा में रचे गए है।" (हेमचन्द्र, अभिधान चिंतामणि की टीका; पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा 16 )

भोजपुरी की तरह ब्रज में भी तालव्य सकार (श) नहीं पाया जाता। जिस मथुरा को सूरसेन जनपद की राजधानी बताया जाता है उसकी भाषा के लिए सूरसेनी का प्रयोग अधिक सही है। परन्तु सूरसेनी प्राकृत का प्रसार क्षेत्र कौरवी तक था और बोलियों के मानकीकरण या संस्कृतीकरण को समझने की दृष्टि से यह नाम कुछ भ्रामक है। जो भी हो इस नाम से अभिहित प्राकृत का ही प्रसार महाराष्ट्र में हुआ था, और यही जैनियों के बीच भी प्रचलित हुई थी। परंतु महाराष्ट्री शब्द का ध्वनिविन्यास प्राकृत के अनुरूप नहीं है।

सचाई यह भी है कि प्राकृतों में बहुत मामूली भिन्नताएं हैं, एक बार प्रतिष्ठा पाने और संस्कृत की तरह बोलियों से लुकाछिपी खेल में प्राकृतों के भी शामिल होने के कारण भारत की बोलियाँ प्राकृतों से और इसी तरह अपभ्रंश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती थी, परंतु जैसे संस्कृत से प्राकृताें का जन्म नहीं हुआ, उसी तरह अपभ्रंशों का जन्म प्राकृतों से नही हुआ। अपभ्रंशों (सच कहें तो अपभंसो) का उदय चारणजीवी आभीरों के संगठित हो कर शक्तिशाली बनने का परिणाम था जिसमें कवियों ने अपनी रचनाओं में उनकी ध्वनि प्रवृत्ति को सचेत रूप में पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया और अब प्राकृत से आगे बढ़ कर इसका व्यवहार करने लगे। महत्वपूर्ण बात है एक बार चलन में आ जाने के बाद कवियों का इन पर अधिकार करना। स्थानीय बोलियों से इन्हें ताे प्रभावित होना ही था, इनकी कृत्रिमता का या कहें इनके कतिपय प्रयोगों का प्रवेश बोलियाों में भी हुआ।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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