Wednesday 20 September 2017

एक कविता - सेतु / विजय शंकर सिंह

बर्दाश्त न कर सका,
नदी का वह सेतु,
उसे रास न आयी
कालिमा के तंज,
और उठती हुयी उंगलियां ।
अचानक एक दिन,
अनावृत्त होना था जब,
खुल कर आसमां को ,
खुद को दिखलाना भी था ,
रात के अंधेरे पलों में,
ढह गया खामोशी से,
जैसे ढहता है कोई सपना ।
बात में पता लगा
बहुत संवेदनशील पुल था वह !!

© विजय शंकर सिंह

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