Monday 25 September 2017

एक कविता - सियासत / विजय शंकर सिंह

एक निर्मम सच यह भी है,
जिस मक़सद से कुछ लोग
इफ्तार आयोजित करते हैं ,
उसी मक़सद से कुछ लोग
इफ्तार से किनारा कर लेते हैं ।
मक़सद है,
अपने अपने लोगों को बांधे रखना,
उन्हें बांटे रहना,
उम्मीद उनकी बंधाये रखना ।

खुद को यह भी इत्मीनान दिलाना कि,
कि जब जब ढोरों की ज़रूरत हो,
वे थोक भाव में मिल जाएं,
ताकि उन्हें हांका जा सके,
उन पर सवारी कर के,
उन सीढ़ियों पर चढ़ा जा सके,
जहां स्वर्ग जैसा सब कुछ तो है,
मगर अमरता नहीं ।

और ढोर पहुंचा कर मंज़िल पर,
फिर से , रेंकते और कभी कभी,
मन्द आवाज़ में हिनहिनाते हुए,
मैदान में पड़े पड़े चरते रहें ।

सीढियों के पार,
पाषाड़ सौध मैं बैठे लोगों  में
अजीब दोस्ती रहती  है ।
यह बात अलग है कि ,
ढोर इसे समझ नहीं पाते और,
पाषाण सौध के बाशिंदे ,
और उनके भाट वृंद
उन्हें यह सब सियासी दांव बता
समझने भी नहीं देते ।

जिस दिन ये ढोर
यह सियासत समझने लगेंगे,
मुँह पर लगा जाब झटक कर उतार फेंकेंगे,
हर बात पर पूंछ हिलाने के बजाय
ज़मीन कुरेदने लगेंगे ,
वह ढोर नहीं रह जाएंगे ,
कुछ और बन जाएंगे ।
पर ढोरों का कुछ और बनना ,
कम ही लोगों को रास आता है दोस्त !!

© विजय शंकर सिंह

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