अनुच्छेद 370 मामले की सुनवाई के बारहवें दिन की सुनवाई समाप्त करते हुए संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने को लेकर, एक अहम सवाल उठाया। उन्होंने यूनियन ऑफ इंडिया के एडवोकेट से पूछा कि, "पिछले कुछ वर्षों में जारी किए गए विभिन्न संवैधानिक आदेशों ने भारतीय संविधान के प्रावधानों को जम्मू और कश्मीर में क्रमिक रूप से लागू किया है। इसलिए, उनहत्तर वर्षों में "पर्याप्त एकीकरण" हुआ था। इस संदर्भ में, क्या अगस्त 2019 में केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कदम एकीकरण हासिल करने के लिए "एक तार्किक कदम" थे?"
जैसे ही, बारहवें दिन की सुनवाई समाप्त होने वाली थी, सीजेआई ने कहा, "एक आखिरी बात, 26 जनवरी 1950 को मौजूद, "पूर्ण स्वायत्तता" और 5 अगस्त 2019 को लाए गए "पूर्ण एकीकरण" के बीच की जो व्यापक खाई थी, इस कालखंड के बीच में, जो कुछ भी हुआ, उससे वह खाई (स्वायत्तता और एकीकरण के बीच की) काफी हद तक पाट दी गई थी। उस अर्थ में, यह कहना कि, पूर्ण स्वायत्तता से पूर्ण एकीकरण की ओर स्थानांतरण, पूरा नहीं हो पाया था, गलत है। यह स्पष्ट है कि 1950-2019 के बीच 69 वर्षों में काफी हद तक, जम्मू कश्मीर राज्य का भारत संघ में, एकीकरण पहले ही हो चुका था। और इसलिए 2019 में जो किया गया, क्या वह वास्तव में उस एकीकरण को प्राप्त करने के लिए, एक तार्किक कदम था?"
सीजेआई का सवाल, उस दावे के संदर्भ में है, जिसे सरकार यह कह कर प्रचारित करती है कि, अनुच्छेद 370 को साल 2019 में संशोधित कर के, सरकार ने जम्मू कश्मीर राज्य का भारत में पूर्ण एकीकरण किया है। निश्चित रूप से, यह एक चुनावी वादा था, भारतीय जनता पार्टी का, जिसे उसने सरकार में आने के बाद पूरा किया पर यह भी एक तथ्य है और जैसा कि, सीजेआई ने अदालत में कहा है कि, 1950 से 2019 के बीच जम्मू कश्मीर राज्य का भारत संघ से पर्याप्त एकीकरण हो चुका था। 2019 में की गई राज्य पुनर्गठन की कवायद एक अनावश्यक कवायद थी। जम्मू कश्मीर आज भी एक लोकतांत्रिक और चुनी हुई सरकार का मुंतजिर है। बारहवें दिन अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के मामले की सुनवाई करने वाली पीठ में जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत भी शामिल हैं।
० क्या अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए संविधान सभा की 'सिफारिश' एक अनिवार्य शर्त थी?
भारत संघ की दलीलों के दौरान विवाद का एक दिलचस्प मुद्दा यह भी था कि, "क्या अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक थी।" यहां यह उल्लेखनीय है कि, अनुच्छेद 370(3) के अनुसार, राष्ट्रपति, अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय घोषित कर सकते हैं, बशर्ते कि, यह "राज्य की संविधान सभा की अनुशंसा (सिफारिश) " से किया गया हो।"
यह मुद्दा, पहली बार एसजी, तुषार मेहता की दलीलों के दौरान उठा जब, उन्होंने कहा कि अगर संविधान सभा अस्तित्व में रहती, तो भी इसकी सीमित भूमिका होती, क्योंकि इसका निर्णय प्रकृति में केवल "अनुशंसाजनक" यानी सिफारिशी होता और राष्ट्रपति, यदि संविधान सभा इस पर सहमत नहीं होती तो भी, कोई भी निर्णय ले सकते थे। ।"
अब बहस के केंद्र में सिफारिश या अनुशंसा की कानूनी स्थिति क्या है, यह विंदु आ गया। सॉलिसिटर जनरल के उपरोक्त दलील पर, सीजेआई ने कहा: "यह सही नहीं हो सकता है, क्योंकि जिस तरह से अनुच्छेद बनाया गया है उसे देखें - "सिफारिश...आवश्यक होगी"।
सीजेआई का कहना था कि, जम्मू कश्मीर के बारे में किसी भी संवैधानिक आदेश या संशोधन के लिए जम्मू कश्मीर की सिफारिश जरूरी थी।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने स्पष्ट किया कि, "यहां, अनिवार्य यह था कि राष्ट्रपति संविधान सभा से सिफारिश लें। हालाँकि, ऐसी अनुशंसा बाध्यकारी नहीं थी।"
उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए कहा, "अन्यथा संविधान कहता, उसके (सिफारिश के) अनुसार कार्य करें। जम्मू-कश्मीर का संविधान हमेशा भारतीय संविधान के अधीन रहेगा क्योंकि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का निर्माण ही अनुच्छेद 370 द्वारा हुआ था।"
इसी तरह का तर्क बाद में भारत के अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणी ने भी दिया। जिन्होंने तर्क दिया कि, "जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के विघटन का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि, राष्ट्रपति के हाथ, हमेशा के लिए बंधे हुए हैं।"
सीजेआई ने इस महत्वपूर्ण विंदु पर, सरकार के वकीलों से, स्पष्टीकरण मांगते हुए पूछा, "क्या सिफ़ारिश के लिए सकारात्मक सिफ़ारिश की आवश्यकता है या नहीं?"
एजी, आर वेंकटरमणी ने यह कहते हुए जवाब दिया कि, "सिफारिश केवल "एक सलाह" थी और अनुच्छेद 370 को लागू रखने की सिफारिश करने की शक्ति, विधानसभा के पास उपलब्ध नहीं थी।"
एजी ने कहा, "इसे केवल 370 को निष्क्रिय करने की सिफारिश करनी है।"
इस पर सीजेआई ने, सिफारिश शब्द की कानूनी व्याख्या करते हुए कहा, "सिफारिश सिर्फ एक राय नहीं है। जब संविधान "सिफारिश" शब्द का उपयोग करता है, तो इसका मतलब एक सकारात्मक निर्णय होता है क्योंकि अनुच्छेद 370 विभिन्न वाक्यांशों का उपयोग करता है। यह परामर्श, सहमति, निर्णय और सिफारिश, शब्दों का उपयोग करता है।"
एजी ने जोर देकर कहा कि, "सिफारिश', राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी नहीं है। इसलिए, यह सिफारिश है। यह सहमति नहीं है।"
सीजेआई ने तब स्पष्ट किया कि, "जब भी सिफारिश बाध्यकारी नहीं होती है, तो संविधान इसे स्पष्ट रूप से, (उचित जगह पर) निर्दिष्ट करता है।"
उन्होंने विस्तार से बताया, "अनुच्छेद 109, वित्त विधेयक (मनी बिल) से संबंधित है। वित्त विधेयक राज्यसभा में पेश नहीं किया जाता है। इसे हमेशा लोकसभा में ही पेश किया जाता है। लोकसभा में विधेयक पारित होने के बाद, इसे सिफारिश के लिए राज्यसभा में भेजा जाता है। लेकिन, वे सिफारिशें, (लोकसभा के लिए) बाध्यकारी नहीं हैं। यह (लोकसभा) या तो उन्हें (वित्त विधेयक को) स्वीकार कर सकती है या उन्हें आंशिक रूप से स्वीकार कर सकती है, या उन्हें अस्वीकार कर सकती है। यह अनुच्छेद 109 (2) में स्पष्ट किया गया है। यह अनुच्छेद कहता है कि, राज्यसभा (में वित्त विधेयक को भेजे जाने) की सिफारिश लोकसभा को बाध्य नहीं करती है। अब अनुच्छेद 117 देखें। यह कहता है कि, एक धन विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के अलावा इसे पेश नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 117 में, एक ही शब्द 'सिफारिश' का उपयोग किया गया है, लेकिन यहां सिफारिश अनिवार्य है। आप राष्ट्रपति की सिफारिश के अलावा वित्त विधेयक को आगे नहीं बढ़ा सकते हैं।"
सीजेआई के अनुसार, संविधान में जहां सिफारिश बाध्यकारी प्रकृति की है, वहां कोई अलग से निर्देश नहीं है। जहां वह बाध्यकारी प्रकृति की नहीं होनी चाहिए, वहां स्पष्ट इसका उल्लेख कर दिया गया है। इसे एक उदाहरण के रूप में उपयोग करते हुए, सीजेआई ने कहा कि, "अनुच्छेद 370 के तहत प्रदान की जाने वाली 'सिफारिश,' निरस्तीकरण से पहले की एक शर्त थी और समय के संदर्भ में भी एक शर्त थी, जिसका अर्थ है कि, निरस्तीकरण से पहले सिफारिश की जानी चाहिए थी।"
अटॉर्नी जनरल, अपनी बात पर अड़े रहे और यह तर्क दिया कि, "(यहां) अभी भी केवल एक सिफारिश की आवश्यकता थी।"
उन्होंने आगे इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि, "सिफारिश की आवश्यकता, सिफ़ारिश की भूमिका में कोई और सामग्री नहीं जोड़ती है। क्या जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा जैसी संस्था, अनुच्छेद 370 पर अंतिम निर्णय ले सकती है? यह भारत की संसद का एक घटक निकाय नहीं है। इसमें सभी गुण और शक्तियाँ नहीं हैं।"
एसजी तुषार मेहता ने, अटॉर्नी जनरल की दलील को आगे बढ़ाते हुए कहा, "भारत के राष्ट्रपति का, भारत के संविधान से बाहर किसी संस्था से बंधा होना, शायद हमारे संविधान की सही व्याख्या नहीं हो सकती है। जम्मू-कश्मीर का संविधान हमारे संविधान से परे और बाहर है।"
हालाँकि, पीठ इस तर्क को स्वीकार करने में विफल रही कि, "जम्मू-कश्मीर संविधान सभा एक "बाहरी निकाय" थी।" न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कहा कि "जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा में अनुच्छेद 370 का उल्लेख स्वयं मिलता है।"
सीजेआई ने यह भी बताया कि केंद्र ने "संविधान सभा" का अर्थ "विधान सभा" बदलने के लिए अनुच्छेद 367 का इस्तेमाल किया था।"
पीठ ने तब पूछा, "तो क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि, केंद्र स्वयं 370 को निरस्त करने के लिए संविधान सभा की सिफारिश की आवश्यकता के प्रति सचेत था।"
इस मुद्दे पर चर्चा जारी रही और इसी बीच, सीजेआई ने पूछा, "यदि अनुच्छेद 370(3) का प्रावधान लागू नहीं हो सकता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि, अनुच्छेद 370 के अंतर्गत निहित मूल शक्ति समाप्त हो गई है या खो गई है? यदि वह शक्ति समाप्त नहीं हुई है, तो क्या यह एकतरफा शक्ति है जिसका प्रयोग राष्ट्रपति द्वारा किया जा सकता है? अनुच्छेद 367 था, इसका पालन किया गया, क्योंकि संविधान सभा का अभाव था और कोई विधान सभा नहीं थी, लेकिन इस प्रक्रिया में, एक कमज़ोरी है - यह अनुच्छेद 370(3) द्वारा निर्धारित भूमिका है। आप कहते हैं कि, भूमिका केवल अनुशंसात्मक (सिफारिशी) है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि, (अनुशंसा / सिफारिश के प्राविधान को) ओवरराइड किया जा सकता है।"
इस सवाल का जवाब एसजी ने दूसरे सवाल के जरिए दिया। एसजी तुषार मेहता ने कहा, "मेरे पास एक प्रश्न है जिस पर आप छुट्टी के दिन विचार कर सकते हैं - जब संविधान सभा को भंग किया जा रहा था, मान लीजिए कि सदस्य कहेंगे कि अब जम्मू-कश्मीर का संविधान एक राजतंत्र की तरह है और अब अनुच्छेद 370 को हटाया जा सकता है - क्या राष्ट्रपति को इस पर कार्रवाई करनी होगी ? इसका कोई साधारण कारण नहीं हो सकता है कि, संविधान सभा की बहसों में, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था।"
० क्या संसद किसी मौजूदा राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदल सकती है?
बहस के दौरान एक और बहस यह उठी कि, क्या संसद के पास मौजूदा भारतीय राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने की शक्ति है। संदर्भ के लिए, अनुच्छेद 3(1) में प्रावधान है कि, संसद किसी राज्य से एक क्षेत्र को अलग करके या दो या दो से अधिक राज्यों को एकजुट करके या किसी राज्य के किसी हिस्से को किसी क्षेत्र को एकजुट करके एक नया राज्य बना सकती है। बाद में एक संशोधन द्वारा 'राज्य' शब्द में 'केंद्र शासित प्रदेश' भी शामिल करने की घोषणा की गई। इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने पूछा कि, "क्या अनुच्छेद 3(1) में ऐसी स्थिति पर विचार किया गया है जहां किसी राज्य के पूरे क्षेत्र को केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया जा सकता है?"
इस पर एसजी ने स्पष्ट किया कि, "राज्य से दो केंद्रशासित प्रदेश बनाए गए हैं, अर्थात्, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख और (संविधान में) ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस पर रोक लगाता हो।"
जस्टिस कौल ने पूछा, "मान लीजिए कि आपने लद्दाख को अलग नहीं किया है? तो शक्ति (भारत संघ की) पूरे राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने की होगी। आप एक राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने पर, कैसे विचार कर रहे हैं? और यदि ऐसा नहीं किया जा सकता है तो, क्या आप एक केंद्रशासित प्रदेश बनाकर ऐसा कर सकते हैं? और क्या अन्य (राज्यों) को भी यूटी (केंद्र शासित प्रदेश) बना रहे हैं?”
एसजी तुषार मेहता ने कहा कि, "उनके पढ़ने के अनुसार ऐसी स्थिति में 'पृथक्करण' आवश्यक था। इसका मतलब यह है कि पूरे राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में परिवर्तित नहीं किया जा सकता था, लेकिन एक राज्य को दो या दो से अधिक केंद्रशासित प्रदेशों में अलग करने की अनुमति थी।"
तर्क का परीक्षण करने के लिए, न्यायमूर्ति कौल ने पूछा, "आइए इसे थोड़ा जटिल बनाएं। मान लीजिए कि आप असम से एक केंद्रशासित प्रदेश बनाते हैं या आप असम को एक केंद्रशासित प्रदेश में बदल देते हैं। फिर?"
इस पर एसजी ने जवाब दिया, "यह एक चरम उदाहरण है लेकिन परीक्षण के उद्देश्य से, पृथक्करण आवश्यक होगा। एक राज्य को केंद्रशासित प्रदेश घोषित नहीं किया जा सकता है। लेकिन यहां, यह किसी के लिए भी मामला नहीं है कि, हमने इससे बाहर निकलने के लिए लद्दाख को अलग कर दिया। हमारे पास अन्य कारण थे।"
बहस के इस विंदु को जारी रखते हुए, सीजेआई ने कहा कि, "केंद्रशासित प्रदेशों के निर्माण में, दो प्रकार के उदाहरण है, पहला प्रकार, चंडीगढ़ जैसा केंद्रशासित प्रदेश, जिसे पंजाब से अलग कर के बनाया गया और वह एक केंद्रशासित प्रदेश बना रहा। दूसरा प्रकार "एक प्रगति" था, जहां कुछ क्षेत्र राज्य बनने की प्रगति में केंद्रशासित प्रदेश बन गए। इनमें से उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा इसके उदाहरण थे।"
उन्होंने कहा, "वे केंद्रशासित प्रदेश बन गए थे लेकिन उन्हें राज्य बनाने के लिए एक स्थिर प्रशासन बनाने की प्रक्रिया चल रही थी। आप उन्हें तुरंत राज्य नहीं बना सकते।"
इस प्रकार, उन्होंने पूछा कि क्या केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर को फिर से एक राज्य में बदलने की योजना बना रही है और यदि हां, तो वह जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए समय-सीमा या रोडमैप कब प्रदान करेगी?"
भारत सरकार ने, तब यह पुष्टि की कि, "वह जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल करेगी।"
इसके बाद एसजी मेहता ने अपनी दलीलें जारी रखते हुए कहा कि, "यदि आप समग्र रूप से अनुच्छेद 3 और 4 को देखते हैं, और मैं इसे अकादमिक रूप से कह रहा हूं - अगर हम पुनर्गठन की एक सामान्य योजना के रूप में पढ़ते हैं तो, इसमें कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि, एक अच्छे कारण के लिए, एक राज्य को, यूटी (केंद्र शासित प्रदेश) में परिवर्तित किया जा सकता है।"
उन्होंने राजा रामपाल के फैसले का हवाला देते हुए कहा, "भारत विनाशकारी इकाइयों वाला एक अविनाशी संघ है।"
उन्होंने आगे कहा, "यह एक ऐसा प्रावधान है जहां सख्त अनुपालन पर जोर नहीं दिया जाता है, बशर्ते कि व्यापक अनुपालन हो, यानी पूरा देश यह मानते हुए कि यह पूरे देश को प्रभावित करता है। यह स्थिति सिर्फ, राज्यों या पड़ोसी राज्यों को प्रभावित नहीं करती है, यह प्रभावित करती है पूरे राष्ट्र को।"
उन्होंने अपने पहले के तर्कों को दोहराया कि जम्मू-कश्मीर में अभी भी विधानसभा क्षेत्र, चुनाव आयोग, विधान सभा, जनसंख्या अनुपात आदि सहित एक राज्य की सभी विशेषताएं मौजूद हैं। उन्होंने आगे कहा, "वे कहते हैं कि संसद में प्रतिनिधित्व कम हो गया है। नहीं, यह सही नहीं है। पहले, केवल स्थायी निवासी ही धारा, 16 के तहत चुनाव लड़ सकते थे। अब, किसी भी अन्य की तरह निर्वाचित होने के योग्य होने के लिए, आपको भारत का नागरिक होना चाहिए, केवल, स्थायी निवासी नहीं।"
अभी सुनवाई जारी है।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (12.1) / विजय शंकर सिंह '
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/08/370-121.html
No comments:
Post a Comment