संसद का सत्र बुलाने की शक्ति सरकार के पास है। यह निर्णय संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति द्वारा लिया जाता है, और राष्ट्रपति द्वारा औपचारिक रूप दिया जाता है, जिनके नाम पर सांसदों को एक सत्र के लिए बुलाया जाता है।
भारत में कोई निश्चित संसदीय कैलेंडर नहीं है। परंपरा के अनुसार, संसद की बैठक एक वर्ष में तीन सत्रों के लिए होती है।
० सबसे लंबा, बजट सत्र, जनवरी के अंत में शुरू होता है, और अप्रैल के अंत या मई के पहले सप्ताह तक समाप्त होता है। सत्र में अवकाश का प्राविधान इसलिए किया गया है, ताकि संसदीय समितियां बजटीय प्रस्तावों पर चर्चा कर सकें।
० दूसरा सत्र तीन सप्ताह का मानसून सत्र है, जो आमतौर पर जुलाई में शुरू होता है और अगस्त में समाप्त होता है।
० संसदीय वर्ष का समापन तीन सप्ताह लंबे शीतकालीन सत्र के साथ होता है, जो नवंबर से दिसंबर तक आयोजित होता है।
1955 में, लोकसभा की सामान्य प्रयोजन समिति द्वारा, संसदीय अधिवेशनों के आयोजित करने की, एक सामान्य योजना की सिफारिश की गई थी। इस सिफारिश को, जवाहरलाल नेहरू सरकार ने स्वीकार भी कर लिया था, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका।
संसद के अनुसार, संसद का अधिवेशन आहूत करने संबंधी प्राविधान, संविधान के अनुच्छेद 85 में दिए गए है। यह अनुच्छेद, संविधान के अनेक अनुच्छेदों की ही तरह, भारत सरकार अधिनियम, 1935 (Government of India Act 1935) के एक प्रावधान पर आधारित है, जो यह कहता है कि, "केंद्रीय विधायिका (तब की सेंट्रल असेंबली, जो अब संसद है) को वर्ष में कम से कम एक बार बुलाया जाना चाहिए, और दो सत्रों के बीच 12 महीने से अधिक का समय नहीं होना चाहिए।"
तब सेंट्रल असेंबली की भूमिका सीमित थी और लोकतंत्र बराए नाम था, और वायसरॉय तथा उनकी काउंसिल ही, भारत की भाग्य विधाता थी। वायसरॉय और उसकी काउंसिल, ब्रिटिश संसद को, रिपोर्ट करती थी। सेंट्रल असेंबली के सदस्यों की भूमिका सीमित थी और अधिकतर वे राजभक्त थे।
सेंट्रल असेंबली के इस प्राविधान पर, संविधान सभा में, हालाँकि, डॉ. बीआर अम्बेडकर ने कहा था कि, "उस प्रावधान का उद्देश्य केवल राजस्व इकट्ठा करने के लिए विधायिका को बुलाना था, और साल में एक बार बैठक विधायिका द्वारा सरकार की आलोचना से बचने के लिए डिज़ाइन की गई थी।"
इसके बाद, संविधान सभा ने, हमारे संविधान के संसदीय अधिवेशन से संबंधित प्रावधान, के उसके आहूत सत्रों के बीच के, अंतर को छह महीने तक कम कर दिया, और निर्दिष्ट किया कि, "संसद को वर्ष में कम से कम दो बार अपनी बैठक करनी चाहिए।"
डॉ आंबेडकर ने यह भी कहा कि, “जैसा कि यह खंड (प्राविधान) मौजूद है, विधायिका को खंड में दिए गए प्रावधान (साल में दो बार) से अधिक बार बुलाए जाने से रोकता नही है। वास्तव में, मुझे डर यह है, अगर मैं ऐसा कह सकूं, कि, संसद के सत्र इतने बार-बार और इतने लंबे होंगे कि, विधायिका के सदस्य शायद सत्रों से थक जाएंगे।”
इसीलिए आंबेडकर, लंबे सत्रों की परंपरा बनने देने के लिए सहमत नहीं थे।
संविधान सभा के डिबेट्स के अनुसार, इस विंदु पर भी बहस हुई और बिहार के, प्रोफेसर के टी शाह ने अपनी बात रखी और सलाह दी कि, "संसद की बैठक पूरे साल, बीच-बीच में अंतराल के साथ, चलनी चाहिए।"
प्रोफेसर केटी शाह यह भी चाहते थे कि, "दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को कुछ परिस्थितियों में संसद बुलाने का अधिकार भी दिया जाए।"
लेकिन सभा ने इन सुझावों को स्वीकार नहीं किया गया और डॉ आंबेडकर का ही सुझाव माना गया, जो, अनुच्छेद 85 का अंग बना।
यदि संसदीय बैठकों के दिनवार संख्या का, आकलन करें तो, यह स्पष्ट होता है कि, पिछले कुछ वर्षों में संसद की बैठकों में गिरावट आई है। बैठकों के दिन भी, दिन पर दिन कम होते गए हैं, और प्रतिभागी भी उनमें पर्याप्त संख्या में नहीं आ रहे हैं। एकाध बार तो, कोरम की भी दिक्कत हुई है। लेकिन, संसद के पहले दो दशकों के दौरान, लोकसभा की बैठकें वर्ष में औसतन 120 दिन से कुछ अधिक होती थीं। जबकि, हाल के दशक में यह घटकर लगभग 70 दिन की रह गई है।
नियमित सत्रों के अतिरिक्त, कुछ विशेष सत्र भी आहूत किए गए हैं। एक विशेष सत्र तो, अभी इसी 18 सितंबर को, पांच दिन के लिए बुलाया गया है, जिसका उद्देश्य और एजेंडा अभी तक स्पष्ट नहीं है। बस लोगों द्वारा कयास लगाए जा रहे हैं। कुछ का अनुमान है कि, यह, लोकसभा के शीघ्र चुनाव के लिए आहूत है तो, कुछ का अनुमान है, ओबीसी के लिए गठित रोहिणी बिल पर चर्चा के लिए तो कुछ का यह भी कहना है कि, कोई मनी बिल भी आ सकता है। फिलहाल अभी कोई अधिकृत एजेंडा, सामने नहीं आया है।
आगामी विशेष सत्र, जो 18 सितंबर को बुलाया गया है, वह, नियमित रूप से निर्धारित बजट, मानसून और शीतकालीन सत्र के अलावा, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा आयोजित दूसरा विशेष सत्र होगा। पिछली बार संसद ने इसी तरह का एक विशेष सत्र, साल, 2017 में आयोजित किया था। लोकसभा और राज्यसभा दोनों की आधी रात की उस बैठक में, सरकार ने वस्तु और सेवा कर (GST) जीएसटी लागू किया था। तब जीएसटी को, आजादी के बाद का, सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कर सुधार बताया गया था, और उम्मीद की गई थी, यह पूरे कर ढांचे को, बदल कर रख देगा। कर ढांचा तो बदला, पर, जीएसटी से, अनेक बड़ी जटिलताएं भी उत्पन्न हुई, जिसका असर, अर्थ और व्यापार पर अनुकूल नहीं पड़ा और कर प्रशासन में, तरह तरह के कनफ्यूजन भी सामने आए और भी आ रहे हैं।
यह भी पहली बार ही था कि, कोई विधायी अधिनियम (जीएसटी) एक विशेष मध्यरात्रि सत्र में पारित करने के लिए बुलाया गया। विशेष सत्र पहले भी बुलाए गए थे, पर, उनका उद्देश्य और विषय, ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं को स्मरण करना था, न कि कोई नियमित विधाई कार्य संपन्न कराना था।
उपरोक्त के अतिरिक्त, संसद के विशेष सत्रों की क्रोनोलॉजी देखें...
० पहली बार, 14-15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर।
० दूसरी बार, 15 अगस्त 1972 को स्वतंत्रता की रजत जयंती मनाने के लिए।
० तीसरी बार, 9 अगस्त 1992 को भारत छोड़ो आंदोलन की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर।
० चौथा विशेष सत्र, 15 अगस्त 1997 को मध्यरात्रि, स्वाधीनता दिवस की पचासवीं वर्षगांठ पर, आयोजित किया गया था।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
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