महामारी की आपदा में मरते हुए लोग, रेत में दफन शवों के अंबार, रसातल की ओर जाती हुयी आर्थिकी जैसी तमाम कठिन चुनौतियों के बीच, इनका समाधान सोचने के बजाय, कोई अपनी छवि सुधार के बारे में सोच भी कैसे सकता है ? पर सोचा जा रहा है, और यही काम उनके और उनके समर्थकों की प्राथमिकता में है।
आरएसएस खुद को एक देशभक्त संगठन कहता है। उनकी देशभक्ति पर संदेह का फिलहाल कोई कारण नही है। पर आरएसएस जितनी गम्भीरता से प्रधानमंत्री की गिरती छवि से उद्वेलित हो जाता है और छवि सुधार की जिम्मेदारी संभाल लेता है, क्या कभी उतनी ही गम्भीरता से इसने, सरकार की हाहाकारी कोरोना कुप्रबंधन जिसमे इलाज के अभाव और हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर की दुरवस्था से, लाखो लोग मर गए हैं और मर रहे हैं, पर कभी सवाल उठाया है ?
हर चुनाव में संघ, भाजपा के लिये जम कर ज़मीनी प्रचार करता है। टिकट वितरण से लेकर संकल्पपत्र तक बिना आरएसएस के, बीजेपी में कुछ भी तय नहीं होता है। संगठन और सरकार का कोई भी पद बिना संघकृपा के मिल ही नही सकता है। पर सरकार के विफलता की बात आती है तो संघ कोई जिम्मेदारी नहीं लेता है। क्यों ? क्या यह एक गैर जिम्मेदार आचरण नहीं है ?
आरएसएस ने अनुशासन के नाम पर अपने कैडर की ऐसी प्रोग्रामिंग कर दी है वे सरकार से जुड़े किसी निर्णय की आलोचना तो दूर उस पर सवाल तक नहीं उठा सकते है। कैडर का यह बौद्धिक बंध्याकरण है। यह फासिज़्म हैं। यह सनातन परंपरा के सतत जिज्ञासु भाव और आलोचना की मूल प्रकृति के विपरीत है। जिस परम्परा में ईश्वर के अस्तित्व पर भी सवाल उठाए गए हो, उसी परम्परा के वाहक के तौर खुद को प्रतिष्ठित करने वाला यह संगठन, आज गवर्नेंस के कुप्रबंधन चुप्पी साधे हैं। गवर्नेंस पर सवाल उठाना एक संवैधानिक कर्तव्य है और दायित्व भी।
अनुशासन दासत्व नहीं है। यह बौद्धिक वंध्याकरण है। जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से उठती है। वह सही गलत दोनो हो सकती है। नेतृत्व का यह दायित्व है कि वह उस जिज्ञासा का समाधान करे। यह बात गवर्नेंस के लिये भी लागू है। जब लोग गवर्नेंस की अक्षमता से मर रहे हों तो सवाल उठाना धर्म है।
( विजय शंकर सिंह )
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