“भारतीय मुझे बेईमान और धोखेबाज़ लगते हैं। वे किसी भी तरह पाकिस्तान को नीचा दिखाना चाहते हैं। वही आग में घी डाल रहे हैं।”
- बांग्लादेश समस्या पर हेनरी किसिंगर (भारत और पाकिस्तान दौरे के बाद चीन की राजधानी में)
अंग्रेजों के मन में भारतीयों की छवि भीरू और भोले-भाले लोगों की रही है। विभाजन के बाद कम से कम भारतीय यही मानते हैं कि सारी गड़बड़ पाकिस्तान कर रहा है। मगर अमरीका और बाकी देश क्या सोचते हैं? भारत का मित्र सोवियत ही क्या भारत पर भरोसा करता था?
अंदर ही अंदर यह वैश्विक सहमति मौजूद है कि मुस्लिम-बहुल कश्मीर और बांग्लादेश को पाकिस्तान से छीनने में भारत ने कूटनीतिक भूमिका निभायी है। उनके अनुसार, भारत ने संयुक्त राष्ट्र को दिए कश्मीर प्लेबीसाइट वादे को कभी पूरा नहीं किया। इस कारण संयुक्त राष्ट्र के विश्व-मानचित्र में आज भी जम्मू-कश्मीर को भारत या पाकिस्तान का हिस्सा नहीं माना जाता। ऐसा कहा जा सकता है कि दुनिया का सबसे लंबा अनसुलझा सीमा विवाद यही है।
1971 में भारत फिर से फँसता जा रहा था। अमरीका और सोवियत से बात-चीत चल रही थी। बांग्लादेशी शरणार्थियों के लिए धन भी भेजा रहा था। लेकिन, कहीं न कहीं विश्वास की कमी थी कि आखिर भारत का अगला कदम क्या होगा?
किसिंगर से मुलाक़ात में चीन के प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाइ ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान कभी भारत पर आक्रमण करेगा। अगर भारत आक्रमण करता है, तो आपके साथ हम भी पाकिस्तान का साथ देंगे।”
इस लामबंदी का एक ही काट था- सोवियत से समझौता। लेकिन, सोवियत कम शातिर नहीं था। वह तो दो वर्ष पहले पाकिस्तान को हथियार भेज रहा था। सोवियत के प्रभाव का अर्थ कम्युनिस्ट पार्टियों या कम्युनिस्ट मानसिकता का ताकतवर होना भी था। जनसंघ जैसे दल इस संभावना से घबराए हुए थे।
भारत के राजदूत एल के झा जुलाई के महीने में आखिरी बार हेनरी किसिंगर से पूछने गए, “अगर चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत पर आक्रमण करते हैं, तो क्या अमरीका भारत की मदद करेगा।”
किसिंगर ने स्पष्ट ही कह दिया, “हमारे लिए अभी चीन अधिक महत्वपूर्ण है। हम उनके रास्ते में कभी नहीं आएँगे।”
भारत अब पूरी तरह कोने में ढकेल दिया गया था, और सोवियत से समझौता एक मजबूरी बन गयी थी। इसका दूसरा पक्ष यह था कि सोवियत खेमे में जाते ही अमरीका से शत्रुता निश्चित थी।
सोवियत के विदेश मंत्री ग्रोमिको ने इंदिरा गांधी को कहा, “आप एक-एक बंगाली को अपने देश वापस भेज दें। अब पाकिस्तान सोचे कि उन्हें मरने देना है या जीने देना है। आज नहीं तो कल वे अपनी आज़ादी खुद ले लेंगे।”
इंदिरा गांधी ने कहा, “इस हालात में जब शेख मुजीब को फांसी की तैयारी चल रही है, और बंगालियों का नरसंहार हो रहा है, ये बंगाली आखिर क्यों लौटना चाहेंगे?”
ग्रोमिको ने कहा, “फांसी और नरसंहार अपनी जगह हैं। आप अपना खून ठंडा रखिए। दूसरों को बचाने से अधिक खुद को बचाना जरूरी है।”
ग्रोमिको का सुझाव अपनी जगह सही था। मगर क्या शेर के पंजे से मेमने को छुड़ा कर वापस शेर की ओर उछालना ठीक होता? पचास-सौ शरणार्थी में शायद मुमकिन भी होता, लेकिन लाखों शरणार्थियों को आखिर किस तरह लठिया कर वापस भेजा जाता?
हालांकि भारत भी किसी महान ममत्व से शरणार्थी नहीं रख रहा था। लोकतंत्र में हर व्यक्ति एक वोट है। इन बांग्लादेशियों में सभी दलों ने अपने-अपने वोट बैंक ढूँढने शुरू कर दिए थे। बांग्लादेश तो कब का आज़ाद हो गया, मगर क्या शरणार्थी लौटे?
सितंबर 1971 में पाकिस्तान के ल्यालपुर जेल में चार कैदियों को एक गड्ढा खोदने की ज़िम्मेदारी मिली थी। खबर थी कि शेख मुजीब को फांसी होने वाली है और यह कब्र उसी निमित्त है। यह कब्र खोदने वाले सभी कैदी भारतीय ही थे, जो किसी कारणवश पाकिस्तान की जेल में बंद थे।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
( Praveen Jha )
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 20..
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/20.html
#vss
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