छत्तीसगढ के बड़े हिस्से में रावण-दहन का चलन पुराना नहीं है। राजाओं का इलाका था। नवरात्र में देवी/शक्ति की उपासना के बाद दसवें दिन राजा अपने अपने तरीकों से विजयोत्सव मनाया करते थे। साल भर के सारे तीज-त्योहार तराजू में एक तरफ़ दिये जाएं तो भी राजा के लिए दशहरे वाला पलड़ा ही झुकेगा।
सारंगढ़ अपवाद नहीं रहा। यहां विजयदशमी के सार्वजनिक कार्यक्रम में रावण का कोई स्थान नहीं था।
हज़ारों वर्ष पूर्व जब वर्तमान राजपरिवार के पुरखे कछुओं की पीठ पर सवार हो कर, नदी पार कर, यहां पहुंचे तो पानी भरी ख॔दको से घिरे मिट्टी के छोटे गढ़ों (किलों) में छिपे विरोधियों से मुकाबला हुआ था। पुरखों के पास बांस से बनी तलवारें, भाले, तीर, कटार जैसे हथियार थे। पुरखे जीत गये और तब से पानी भरी खंदक से घिरे मिट्टी के गढ़ पर चढ़ना और उस पर विजयपताका फहराना सारंगढ़ में विजयदशमी उत्सव मनाने का मान्य तरीका बन गया। बांस से बने हथियारों की पूजा अन्य शस्त्रों की पूजा से पहले होती है।
सैकड़ों सालों से चली आ रही परम्पराओं में परिवर्तन आया अक्टूबर 1978 में। पहली बार रावण-दहन हुआ। शक्तिशाली राजाओं के द्वारा स्थापित और पोषित परम्पराओं में इस महत्वपूर्ण परिवर्तन का श्रेय जिस व्यक्ति को जाता है वह बचपन में बदन पर एक छोटी धोती लपेटे पास के घने वन में गाय चराया करता था। नाम था टेकचन्द गिरी। हम सब, छोटे बड़े, उन्हे प्रेम और सम्मानपूर्वक "बावाजी" संबोधित करते रहे।
बावाजी की कहानी शुरू होती है 1909 में सारंगढ़ के काली मंदिर से। डेढ़ वर्ष की उम्र में राजा बना दिये गये तत्कालीन राजा जवाहिर सिंह ने राजकुमार काॅलेज में शिक्षा और प्रशासनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उसी वर्ष औपचारिक रूप से राजकाज संभाला था। इसी अवसर पर उन्होने अपने महल के पास काली मंदिर की स्थापना भी की थी।
काली मंदिर की स्थापना आसान कार्य था किन्तु उसके लिए पुजारी की व्यवस्था करना दुष्कर साबित हुआ। सारंगढ राज्य में परम्परागत रूप से देवी देवताओं की पूजा आदि का कार्य मूलनिवासी (जिन्हे आगे चल कर आदिवासी कहा गया) करते रहे थे। उन्नीसवीं सदी का मध्य आते आते उत्तर दिशा से हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषी ब्राह्मणों का आना प्रारम्भ हो गया था। 1860 के दशक में सिर पर अपनी ईष्ट दक्षिण काली देवी को सम्मान पूर्वक ढोते पहला उत्कल ब्राह्मण परिवार भी आ गया। परिवार के मुखिया को राज-गुरू का ओहदा मिला और वंशज गुरू परिवार के रूप में जाने जाते हैं।
कुछ ब्राह्मण राज्य की प्रशासनिक सेवाओं मे और बाकी कर्मकाण्ड आधारित पुरोहिती के कार्य में लग गये। मंदिरों की देखभाल और पूजा का जिम्मा आदिवासियों के पास बना रहा।
लेकिन इन स्थापित आदिवासी पुजारियों में से काली मंदिर का पुजारी बनने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। काली की रेपुटेशन वैसे भी डराने वाली थी। फिर सुना हुआ था कि उन्होने अपना दाहिना पैर शिव के ऊपर रखा हुआ है। पूजा अर्चना में कुछ ऊंच-नीच हो जाने पर काली की प्रतिक्रिया कैसी होगी यह बताने वाला, आश्वस्त करने वाला, कोई अनुभवी भी उपलब्ध नहीं था।
आखिरकार पुजारी की तलाश का दायरा बढ़ाया गया और सरायपाली के पास स्थित बस्तीपाली गांव से भोले गीर गोस्वामी नामक पुजारी को लाया गया। काली मंदिर को पुजारी मिला और सारंगढ को पहला गोस्वामी परिवार। परिवार बीते सौ सालों में अच्छा खासा कुनबा बन चुका है। इन्हे स्थानीय लोग बावाजी या महाराज के रूप में संबोधित करते रहे हैं।
इसी परिवार में 1942 में हमारे बावाजी टेकचन्द गिरी का जन्म हुआ। उनके पिता तब तक एक नव-स्थापित मंदिर के पुजारी के रूप में पास के गांव कोतरी के निवासी हो गये थे।
बावाजी की उम्र कोई दस वर्ष रही होगी जब घने वन के मुहाने पर बसे गांव मल्दा में एक और नया मंदिर बना और पिता शिवचैतन्य गिरी के साथ वे भी वहां पहुंच गये। पिता मंदिर में पूजा करते और बालक बावाजी गांव के मवेशियों को लेकर जंगल में चराने जाया करते।
इस मवेशी चराई के दौरान कुछ ऐसा हुआ कि कहानी रावण दहन की ओर चल पड़ी। जंगल में बावाजी की शुरुआत गुलेल से चिड़ियों पर निशाना साधते हुई थी। कुछ ही समय में इस बालक ने अपनी गुलेल को 'अपग्रेड' कर "बन्दूक" बना ली। बन्दूक अर्थात खिंची हुई रबर के प्रहार से बांस के खोखले हिस्से में भरी मिट्टी की गोली को लकड़ी की सींक की मदद से बाहर फेंकना (और भाग्य साथ हो तो चिड़िया मारना)। उसी दौरान जंगल में घूमते एक सयाने आदिवासी शिकारी से इनकी भेंट हुई जो शीध्र मित्रता में तब्दील हो गयी। शिकारी मित्र ने इन्हे इनकी "खिलौना" बन्दूक को कुछ अधिक असरकारी बनाने के गुर सिखाए। यह गुर था बारूद बना कर उसके इस्तेमाल का तरीका।
गन पाऊडर को कहा जाता था गधा-बारूद। जितना भी पीटो, फटता नहीं था, जब तक दुम में चिंगारी न लगे। उन दिनों गोला बारूद जैसी चीज़ों पर आज जैसे प्रतिबंध नहीं थे। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि आसानी से प्राप्त हो जाता हो। "गन पाऊडर" के नाम से तो बिल्कुल भी नहीं मिलता था।
सयाने आदिवासी शिकारी ने अपना पारम्परिक ज्ञान बांटा और सिखाया कि गंधक (सल्फर), शोरा (पोटेशियम नाइट्रेट) और लकड़ी के कोयले को सही अनुपात में मिलाया जाए तो विस्फोटक बनाया जा सकता है।
लकड़ी का कोयला सुलभ था। बाकी दो चीज़ें हासिल करना भी समस्या नही थी। ये परचून की दुकानों में सहज उपलब्ध थीं। विस्फोटक में इनके इस्तेमाल की जानकारी आम नही थी। तालाब नगरवासियों के स्नान के लोकप्रिय स्थान थे और खुजली उन दिनों की आम परेशानी थी। नारियल तेल में गंधक मिला कर लेप करना राहत देता था। शोरा पेट दर्द की दवा बनाने के काम आता था। मिट्टी के साथ इसका लेप जली चमड़ी पर भी आराम देता था।
बांस की बन्दूक में गन पाऊडर का इस्तेमाल शुरू हो गया और प्रयोगधर्मी बालक बावाजी के लिए रसायनों से खेलना और नित नये प्रयोग करना आदत बन गयी।
इन्होने 1965 के आस-पास विस्फोटकों का व्यवसाय शुरू किया। खदान आदि के लिए उपयोग और मांग में बढ़ोतरी होने लगी। आतिशबाजी में भी हाथ सधने लगा। पटाखे भी बनने लगे। हरफ़नमौला बावाजी गांव के निर्विरोध सरपंच बन गये (और लगातार बनते गये)। सहकारी समितियों में चुनाव जीतने लगे। गांवों में होने वाले नौधा रामायणों के लोकप्रिय टीकाकार बन गये। उनके अंदर का शिल्पकार सक्रिय हुआ और वे गणेश चतुर्थी पर प्रतिमाएं बनाने लगे। गोस्वामी समाज की गतिविधियों में सक्रिय हो गये। इस बीच आतिशबाजी में नित नये प्रयोग जारी रहे।
1978 में सारंगढ के राजा नरेशचन्द्र सिंह जी का स्वास्थ्य बिगड़ा। डाक्टरों का शक था कैन्सर का। उन्हे इलाज के लिए बम्बई (मुम्बई) ले जाया गया। उनके सभी चाहने वालों के लिए यह बेहद निराशा का समय था। विशेष रूप से राजा साहब के लिए। नवरात्र शुरू होने वाले थे, विजयदशमी का पर्व सामने था और उनके अनुपस्थित रहने की संभावना बन रही थी। उनके जीवन का यह पहला अवसर था जब विजयदशमी के अवसर पर वे अपनी ईष्ट देवी समलेश्वरी से दूर जा रहे थे। वापस आ सकेंगे यह अनिश्चित था।
राजा साहब को अटूट विश्वास था कि देवी उनकी रक्षा और सहायता करेंगी। जांच पूरी हुई और 8 अक्टूबर के दिन डाक्टरों ने घोषित किया कि उन्हे कैन्सर नहीं है। दशहरा की तारीख थी 11 अक्टूबर।
राजा साहब देवी के दर्शन के लिए व्याकुल हो गये। वे किसी भी तरह सारंगढ पहुंचना चाहते थे। शायद देवी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहते थे।
पहुंचना आसान नहीं था। हवाईजहाज की सुविधा नहीं थी। बम्बई हावड़ा मेल में स्थान नहीं था। किन्तु ज़िद की हद तक इच्छा थी सो ट्रेनें बदलते बम्बई से भोपाल, वहां से बिलासपुर और फिर सड़क मार्ग से होते समय पर सारंगढ़ पहुंचने में सफल हो ही गये।
सारंगढ़ में खुशी का माहौल था। सारे हितचिंतक अपने अपने ढंग से अपनी खुशी का इज़हार कर रहे थे।आत्मविभोर राजा साहब भी किसी को निराश नहीं कर रहे थे।
बावाजी ने अपनी भावनाएं व्यक्त करने का वही तरीका चुना जो उनके दिल के सबसे करीब था। उन्होने महल के बगीचे से कुछ ऊंचे और मोटे बांस प्राप्त किये और दिन रात लग कर एक रावण बनाया और गढ़-विच्छेदन के दिन कार्यक्रम स्थल के पास खड़ा कर दिया। राजा साहब पहुंचे तो उनके हाथ में बावाजी ने तीर के साथ एक धनुष थमाया और हाथ जोड़ कर रावण पर चलाने का अनुरोध किया। कार्यक्रम में रावण के अप्रत्याशित एन्ट्री से विस्मित राजा साहब ने उनकी भावनाओं का सम्मान किया और बिना कोई प्रश्न किये मुस्कराते हुए तीर चलाया। रावण दहन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। आतिशबाजी ने आकाश रंगीन कर दिया। एक नयी परम्परा का बीजारोपण हुआ।
मांग और लोकप्रियता में इज़ाफ़े के साथ ही बावाजी के लिए शौक से उपजे काम को औपचारिक रूप देना आवश्यक हो गया। 1982 में रायगढ़ ज़िले में पटाखा, आतिशबाजी और विस्फोटक बनाने और बेचने का लायसेंस प्राप्त करने वाले वे पहले व्यक्ति बने।
27 अप्रेल 2012 के दिन, कुछ दिनों की अस्वस्थता के बाद, सत्तर वर्ष की अपेक्षाकृत कम उम्र में, बावाजी हम सब को छोड़कर चले गये।
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डाॅ परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ (छत्तीसगढ)
#vss
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