Tuesday, 18 May 2021

वो भी क्या दिन थे साक़ी तेरे मस्तानों के...पंडित नेहरू ग़ाज़ा में


15 मई को फ़िलीस्तीनी 'नकबा' के रूप में मनाते हैं. इससे एक दिन पहले 14 मई को इज़रायल अपना स्थापना/स्वतंत्रता दिवस मनाता है. साल 1948 में इज़रायली राष्ट्रराज्य की स्थापना के दौरान लाखों फ़िलीस्तीनियों को उनके घर-बार से उजाड़ कर शरणार्थी बना दिया गया था. इनमें से एक बड़ी आबादी ग़ाज़ा में रहती है. ग़ाज़ा और आसपास इज़रायल और मिस्र के संघर्ष में हस्तक्षेप करते हुए 1956 में संयुक्त राष्ट्र की सेना ग़ाज़ा में तैनात की गयी थी, जिसमें भारतीय सैनिक भी शामिल थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भारतीय सैनिकों और संयुक्त राष्ट्र शांति सेना का मुआयना करने 1960 में ग़ाज़ा गये थे. 

वे जब संयुक्त राष्ट्र के हवाई जहाज से बेरूत लौट रहे थे, तो दो इज़रायली लड़ाकू जहाजों ने उनके जहाज के आसपास ख़तरनाक हाव-भाव दिखाया था. नेहरू ने इस वारदात का उल्लेख बेरूत में नहीं किया और देश वापस आकर एक अगस्त, 1960 को संसद को इसके बारे में जानकारी दी थी. 

तीन दशक बाद नरसिंहा राव सरकार द्वारा इजरायल से दोस्ती गांठने के साथ ही फ़िलीस्तीनियों के साथ खड़ा होने की नीति हाशिये पर चली गयी. वाजपेयी, मनमोहन और मोदी सरकारों ने राव के रवैये को ही मजबूत किया. नेहरू के दौर में तीसरी दुनिया के कई देश साम्राज्यवाद और फासीवाद के खिलाफ गुटनिरपेक्ष आंदोलन को आगे ले जा रहे थे, जिसमें अरब देशों की बड़ी भूमिका थी. 

दुर्भाग्य है कि आज फ़िलीस्तीनियों के साथ न तो भारत जैसे देश खड़े हैं और न ही अरब के मुल्क. न्याय और नैतिकता को त्याग कर दुनिया की राजनीति हो रही है.

( Prakash K Ray )
#vss

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