Tuesday 4 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 19.


[चित्र: 17 अप्रिल, 1971 . बांग्लादेश की अनौपचारिक स्वाधीनता]

“अयूब ख़ान चाहते हैं कि हम कश्मीर को प्लेबीसाइट घोषित कर दें और जनमत-संग्रह करें। क्या वह पख़्तून, बलूच और पूर्वी पाकिस्तान में जनमत-संग्रह के लिए तैयार हैं? क्या वहाँ के वासी पाकिस्तान का हिस्सा बने रहना चाहते हैं? कश्मीर हमारा अभिन्न अंग हैं, और यह हमारा अंदरूनी मामला है। कश्मीर की चिंता हमें करनी है, उन्हें नहीं।”
- लाल बहादुर शास्त्री (संयुक्त राष्ट महासचिव से बात के बाद)

पूरी वैश्विक दृष्टि मैंने इसलिए दोहराई कि आखिर किस अधिकार से भारत मुक्ति-वाहिनी को प्रशिक्षण दे रहा था? यह तो पाकिस्तान का अंदरूनी मामला था। अगर पलायित लोग भारत की सीमा में आ रहे थे, तो यह भारतीय सीमा सुरक्षा की ज़िम्मेदारी थी कि उन्हें रोकें। पाकिस्तानी इतिहास में इसे भारत-समर्थित उग्रवादी कैंप कहा गया। ठीक उसी तरह, जैसे भारत के अनुसार पाकिस्तान समर्थित उग्रवादी कैंप पीओके में चल रहे थे। वे कश्मीर के दमन की तस्वीर बना कर वहाँ प्रशिक्षण दे रहे थे, और भारत पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे दमन के लिए यहाँ। दोनों एक-दूसरे के अंदरूनी मसलों में दखल दे ही क्यों रहे थे? पाकिस्तान को तो कश्मीर चाहिए था, मगर क्या भारत को बांग्लादेश चाहिए था? फिर इतनी ऊर्जा क्यों और किसके कहने पर लगायी जा रही थी? 

भारतीय यह तर्क रख सकते हैं कि बांग्लादेशी हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार की वजह से एक हिन्दू-बहुल देश होने के नाते भारत यह कदम ले रहा था। अथवा मानवाधिकार कारणों से यह निर्णय लिया था। किंतु मानवाधिकार की ज़िम्मेदारी तो संयुक्त राष्ट्र के बने आयोग की है। अमरीका और सोवियत जैसे देश इसका फैसला करें। अपनी शांति-सेना बनाएँ, जिसमें भारत भी शामिल हो जाएगा। ख़्वाह-म-ख़्वाह पाकिस्तान के ख़िलाफ़ गुरिल्ला-युद्ध रच कर तो वह कश्मीर के उग्रवादियों को नैतिक जमीन दे रहा था।

यह मामला सुलझ जाता है अगर सोवियत और विस्तारवाद जैसी चीजें बीच में लायी जाएँ। वियतनाम से लेकर भारत-सीमा तक को परखा जाए कि कहाँ-कहाँ लाल झंडे लग रहे थे, और कहाँ-कहाँ अमरीकी। 

भारत और सोवियत के समझौते के लिए ऐसी रणनीति जरूरी थी। बल्कि इंदिरा गांधी के मन में तो यह भी ख़्वाब पल रहे थे कि सोवियत का साथ मिलते ही वह पीओके पर भी कब्जा कर लेंगी। और यह भी कि बांग्लादेश में कठपुतली सोवियत-समर्थित सरकार स्थापित होगी, जैसा अन्य गुरिल्ला युद्धों में होता रहा है। पाकिस्तान और चीन के बीच फँसी मुर्गे की गर्दन (चिकेन नेक) को भी आराम मिलेगा। ख़ैर, इतिहास गवाह है कि ये ख़्वाब ख़्वाब ही रह गए। हालाँकि केजीबी के जासूसी षडयंत्र नहीं हुए, ऐसी बात नहीं। उसकी चर्चा बाद में।

पहली अप्रिल को बांग्लादेश के दो व्यक्तियों को फौजी हवाई-जहाज से दिल्ली लाया गया। उनका कहना था कि वे पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ एक गुरिल्ला सेना तैयार कर सकते हैं। समस्या यह थी कि यह व्यक्ति ताजुद्दीन कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति था ही नहीं। भारत के इंटेलिजेंस अधिकारियों ने इंदिरा गांधी से मिलाने से पहले समझाया, “तुम ये कह सकते हो कि तुम स्वाधीन बांग्लादेश के प्रधानमंत्री हो!”

3 अप्रिल को इंदिरा गांधी के घर पर मीटिंग करायी गयी। 

इंदिरा गांधी ने पूछा, “यह बांग्लादेश स्वाधीन कब हो गया?  आप प्रधानमंत्री कब बन गए? शेख मुजीब कहाँ हैं?”

उन्होंने कहा, “शेख मुजीब भी आ रहे हैं। स्वाधीनता का पत्र बन गया है। हम यह चाहते हैं कि भारत हमें मान्यता दे दे।”

“लेकिन, यह मान्यता देना हमारा काम नहीं है। फिर भी, आप कल आइए”

अगले दिन ताजुद्दीन ने इंदिरा गांधी की तीक्ष्णता भाँपते हुए कहा, “शेख मुजीब गिरफ्तार हो गए और पाकिस्तान के जेल में हैं। आप कृपया हमारी सहायता करें।”

उस समय तक अवामी लीग के कई मुख्य नेता भाग कर दिल्ली आ गए थे। उन्होंने वहीं दिल्ली में एक स्वाधीनता पत्र तैयार किया जो एक किताब से अमरीकी स्वाधीनता पत्र की बंगाली नकल थी। वहीं दिल्ली में ताजुद्दीन ने एक भाषण भी रिकॉर्ड कर लिया। 11 अप्रिल को वह भाषण एक बंगाली रेडियो चैनल पर प्रसारित किया गया कि हम एक विशाल सेना लेकर आक्रमण करने आ रहे हैं। 

17 अप्रिल को भारतीय बंगाल के बैद्यनाथ ताल (अब मुजीबनगर) में भारतीय सीमा सुरक्षा बल ने एक आम के बगीचे में कार्यक्रम कराया। वहाँ देशी-विदेशी पत्रकार आए, और बांग्लादेश के राष्ट्रपति सैयद नजरूल इस्लाम ने शपथ भी ले ली।

बहरहाल, न बांग्लादेश स्वाधीन हुआ था, न कोई सेना थी, और न कोई संवैधानिक राष्ट्रपति। 

जयप्रकाश नारायण ने कहा, “मैं जितनी अंतरराष्ट्रीय विषयों में समझ रखता हूँ, बांग्लादेश को मान्यता दे दी जानी चाहिए”

इस बात पर कई विपक्षी दलों ने भी हामी भरी।

इंदिरा गांधी ने कहा, “भारत अभी किसी युद्ध के लिए तैयार नहीं। गुरिल्लाओं को तो हम सहायता दे ही रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये चंद गुरिल्ला अमरीका समर्थित पाकिस्तान से लड़ पाएँगे? अगर नहीं, तो मान्यता देकर दुनिया में जगहँसाई किसकी होगी?”

मूल बात यह भी थी कि दो महीने बाद सोवियत से समझौता होने को था। उस गारंटी के बिना भारत ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाना चाहता था। 

समझौते की अहमियत यह नहीं थी कि भारत अकेले लड़ नहीं सकता था। बल्कि यह थी कि इस युद्ध का टंटा ही खत्म हो। किसी भी तरह बुद्ध मुस्कुरा दें। यानी?
(क्रमश:)

प्रवीण झा
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 18.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/18.html
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