Sunday, 9 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 24.


मैं किताबों का शौकीन हूँ, लेकिन उनसे अति-प्रभावित होने से बचने का प्रयास करता हूँ। मुझे ऐसे लेख या संदर्भ मिले, जिनके अनुसार 1971 में पूरी दुनिया ने भारत को कोने में कर दिया, किसी ने साथ नहीं दिया। मगर क्या यह सच है? 

क्या यूँ नहीं कहा जा सकता कि दुनिया ने पाकिस्तान को कोने में कर दिया? या अमरीका को कोने में कर दिया? क्या इस शतरंज के खेल में कौटिल्य का वह देश नहीं जीता जहाँ इस खेल का आविष्कार हुआ था?

वह समय शीर्ष कूटनीतिज्ञों का था। अमरीका में निक्सन-किसिंगर, भारत में इंदिरा गांधी और उनके चाणक्य, चीन में माओ-त्से-तुंग और चाउ-एन-लाइ, श्रीलंका में सीरीमावो भंडारनायके, और पाकिस्तान में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो। 

मैं भुट्टो के पुस्तकालय की तस्वीरें देख रहा था, जो दुनिया के सबसे बड़े संग्रहों में था। हज़ारों किताबें। मगर ताज्जुब कि वहाँ मोहम्मद अली जिन्ना पर एक भी किताब नहीं थी। पता लगा कि वह उनके मृत्यु के बाद ही जोड़ी गयी। वहाँ महात्मा गांधी, पटेल और नेहरू की किताबों और भाषणों के अलग खाने बने हुए थे। भगवद्गीता के कई अनुवाद और संस्करण। लेकिन, सबसे अधिक किताबें एक व्यक्ति पर थी। उनकी बड़ी तस्वीर भी पुस्तकालय के केंद्र में थी। वह तस्वीर थी नेपोलियन बोनापार्ट की। क्या महान युद्ध रणनीतिकार नेपोलियन के अनुयायी के लिए बांग्लादेश वाटरलू सिद्ध हुआ?

भुट्टो (और बाद में उनका परिवार) अमरीका का प्रिय रहा। उनकी अंग्रेज़ी पक्की ब्रिटिश थी और उनका रुतबा बुलंद था। इंदिरा गांधी भी अच्छी वक्ता थी, लेकिन भुट्टो विदेशी राजनयिकों को अधिक गर्मजोशी से मिलते। यही वजह थी कि पाकिस्तान जैसा छोटा सा देश महाशक्तियों के लिए महत्वपूर्ण होता गया।

जब भारत की सेना पूर्वी पाकिस्तान सीमा में घुसने लगी, तो भुट्टो ने संयुक्त राष्ट्र को हस्तक्षेप करने कहा। अपनी जमीन मजबूत करने के लिए उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के नुरूल अमीन को प्रधानमंत्री बनाना स्वीकार कर लिया। पाकिस्तान में पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना और बंगालियों को समुचित अधिकार की बात तय हुई। भारत की आलोचना हो सकती है कि इसके बावजूद वह युद्ध क्यों चाहता था। 

भुट्टो को भरोसा था कि एक बार मामला संयुक्त राष्ट्र में गया, तो वह अपनी दलीलों से सबको मात कर देंगे। बल्कि कश्मीर का लटका मसला भी उभार देंगे। अमरीका ने इस पर सहमति दे दी। मगर, चीन और सोवियत इसके लिए राजी नहीं हुए कि एक ‘मामूली’ सीमा-विवाद के लिए संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन किया जाए। यहाँ तक कि अमरीका के चहेते इंग्लैंड ने भी मना कर दिया। 

किसिंगर ने कहा, “यह विडंबना है कि एक देश दूसरे देश पर आक्रमण करने के लिए तैयार बैठा है, और हम सब मिल कर उसे रोक नहीं पा रहे। आखिर संयुक्त राष्ट्र का निर्माण किस लिए हुआ था?”

उस वक्त इंदिरा गांधी यूरोपीय देशों की यात्रा कर रही थी। लगभग सभी देशों ने कहा कि यह आपका आपसी मामला है। इंदिरा गांधी भी शायद यही चाहती थी कि यह ‘आपसी मामला’ ही कहा जाए। 

अब यह तो देखने वाले की नज़र है कि आखिर कोने में कौन था। इतिहास में ऐसे मौके कम आए जब अमरीका जैसी महाशक्ति हाथ पर हाथ धरे बैठी रह गयी, और जमीन खिसक गयी। 

4 दिसंबर को युद्ध के आग़ाज़ का दिन चुना गया। यह बात पाकिस्तान के महकमों तक पहुँचा दी गयी। इसका ध्येय था कि पाकिस्तान भड़क कर पहले आक्रमण कर दे, और भारत को यह कहने का मौका मिल जाए कि युद्ध उन्होंने ही शुरू किया। और वही हुआ। 

पाकिस्तान की सड़कों पर देशभक्ति गीत बजने लगे, जिनमें इंदिरा गांधी पर बने फूहड़ बॉलीवुड पैरोडी भी शामिल थे। गाड़ियों में ‘क्रश इंडिया’ के स्टिकर लग रहे थे, और साबुन के इश्तिहार में ‘जिहाद’ लिख कर छप रहे थे। 

जब 3 दिसंबर को याह्या ख़ान की तरफ़ से हमला हुआ, उस वक्त इंदिरा गांधी के साथ बैठे उनके सलाहकार डी. पी. धर ने कहा, “नेपोलियन ने कहा था कि जब शत्रु ग़लती कर रहा हो, तो उसमें बाधा नहीं उत्पन्न करना चाहिए। उसे ग़लती करने देना चाहिए।”

नेपोलियन की किताबें भले ही ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने पढ़ रखी हो, पालन उस वक्त भारत कर रहा था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
(Praveen Jha)

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 23.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/23.html
#vss

No comments:

Post a Comment