ज़रदारी ने अपना आधे से अधिक विवाहित जीवन जेल में ही बिताया। अपने जीवन के दस साल और चार महीने वह जेल में रहे। बेनज़ीर के समय तो कुछ छूट भी थी, बेनज़ीर के हटने के बाद तो वहाँ वाकई जेल का ही माहौल था। उन्हें कुछ लोग बलि का बकरा भी कहते रहे, मगर वह क्या थे, यह अपने-आप में रहस्य है। वह इस परिवार में क्या सोच कर आए थे? क्या मंशा थी? यह रहस्य कुछ खोजी लोगों के लिए एक मकसद बन गया।
हामिद मीर नामक एक पत्रकार बड़े मशहूर हुए थे, जब उन्होंने ओसामा बिन लादेन का साक्षात्कार लिया था। वह पाकिस्तान के ‘तहलका’ पत्रकार कहे जा सकते हैं, जो पहले स्टिंग और पोल-खोल के उस्ताद थे। यह और बात है कि बाद के वर्षों में उनकी ही पोल खुलने लगी।
बेनज़ीर के सरकार में वह छुप-छुप कर कुछ जाँच करने में लगे थे। उन्हें मालूम पड़ा कि पाकिस्तान की जल सेना कुछ पनडुब्बियाँ खरीद रही है। यह डील फ्रांस के साथ हो रही है, जिसमें इंग्लैंड ने भी अपनी बाज़ी लगा रखी है। उन्होंने भारतीय अख़बारों में बोफ़ोर्स डील के विषय में पढ़ रखा था, तो शक हुआ कि यहाँ भी कुछ ‘किक बैक’ दिए जा रहे होंगे। फ्रांस में उस वक्त विदेशी डील के लिए इस तरह की रिश्वत देना वैध भी था। वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष फ्रांको मित्राँ स्वयं इस लेन-देन की देख-रेख कर रहे थे।
हामिद मीर ने अख़बार में लिखा कि तीस मिलियन यूरो पाकिस्तानी राजनयिक और सेना अधिकारियों को मिले हैं। उन्हें बेनज़ीर भुट्टो ने तलब किया तो उन्होंने कहा, “मुझे तफ्तीश करने दें। मेरे पास ज़रदारी साहब के ख़िलाफ़ सबूत हैं।”
बेनज़ीर ने कहा, “आप बेशक तफ़्तीश करें, लेकिन यह इल्जाम ग़लत है।”
धीरे-धीरे ये रहस्य खुलते गए, और ज़रदारी पर शिकंजा कसता गया। मुर्तज़ा भुट्टो भी इस बात को उछालने लगे, तो उनकी हत्या ही कर दी गयी। इस हत्या में ज़रदारी का नाम खुल कर उभरा क्योंकि यह हत्या तो पुलिस ने ही की थी। वह किसके आदेश पर ऐसा करती?
अगले ही महीने राष्ट्रपति ने बेनज़ीर से इस्तीफ़ा माँग लिया। ज़रदारी के साथ-साथ बेनज़ीर पर भी कचहरी बैठ गयी। यहाँ भी बलि का बकरा ज़रदारी ही बने, और उनको अब लंबे कारावास में रख दिया गया। बेनज़ीर स्वयं कारावास के डर से लंदन भाग गयीं।
नवाज़ शरीफ़ बड़े आराम से बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने। उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही पहले एक झंझट का निपटारा किया।
उस समय पाकिस्तान में राष्ट्रपति के पास यह ताक़त थी कि जब मर्ज़ी प्रधानमंत्री को हटा दें। इसके कारण बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ़ पहले भी हटा दिए गए थे। इस बार नवाज़ शरीफ़ ने संविधान ही बदल दिया और ताक़त चुने गए प्रधानमंत्री के पास आ गयी। यह हालाँकि लोकतंत्र के लिए अच्छा हुआ, लेकिन सरकारी भ्रष्टाचार को खुली आज़ादी मिल गयी।
पाकिस्तान भी अब इन भ्रष्ट नेताओं से ऊब रहा था, मगर विकल्प ही क्या था? आखिर ईमानदार था कौन?
उन्हीं दिनों एक भूतपूर्व क्रिकेट कप्तान अपनी माँ के नाम पर कैंसर अस्पताल बना रहे थे, जिसमें कुछ नेताओं द्वारा रोड़ा अटकाया जा रहा था।
उनके एक दोस्त ने कहा, “इमरान! इस मुल्क़ को अब पूरी तरह बदलने की ज़रूरत है। सियासत में ईमान लाने की ज़रूरत है। तुम तो कप्तान रहे हो। क्या तुम अपनी पार्टी नहीं बना सकते?”
इमरान ख़ान ने पाकिस्तान क्रिकेट को तो वाकई नयी ऊँचाई दिलायी थी, और युवाओं की फौज बना कर विश्व कप दिलाया था। लेकिन, यह खेल का मैदान नहीं था, यह राजनीति थी।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 45
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/45.html
#vss
No comments:
Post a Comment