हम साढ़े बारह बजे नौटियाल जी के घर से निकले। आधा घंटे में उत्तरकाशी शहर आ गए। यहाँ से कुछ सामान ख़रीदना था और गंगोत्री मंदिर पुरोहित समाज के प्रधान पंडित सुरेश सैमवाल से मिलना था। वे गढ़वाल मण्डल पर्यटन निगम के होटल के समीप हमारा इंतज़ार कर रहे थे। इसलिए वापसी में हमने मातली के समीप वाले पुल से गंगा पार की और शहर में दाखिल हुए। सुरेश जी मिल गए। अब यह तय हुआ कि एडवोकेट साहब गाड़ी ले जाएँ और ख़रीदारी कर लें। तब तक हम यानी पंडित द्वय- श्री जितेंद्र और सुरेश जी तथा मैं व सुभाष बंसल पैदल नैताला की तरफ़ चलें। हम दो-दो की टोलियाँ बना कर चले। पहाड़ी शहरों में गालियाँ और सड़कें बहुत सँकरी होती हैं। सुरेश जी और सुभाष जी की जोड़ी थी तथा मेरी और जितेंद्र सैमवाल की। क़रीब दो किमी चलते रहे। फिर गंगोत्री हाई-वे के किनारे एक जगह सुरेश जी खड़े हो गए। वे थक गए थे और यह स्वाभाविक भी था। क्योंकि कुछ ही दिन पहले वे कोरोना से उबरे थे। उन्हें साँस की भी तकलीफ़ थी इसलिए जितेंद्र जी उन्हें देहरादून ले गए थे। वे जहाँ खड़े थे, वह एक दरगाह थी। मैंने पूछा कि यहाँ तो चारों तरफ़ “ऊँ” लिखा है, यह कैसी दरगाह है? तब सुरेश जी ने बताया कि यहाँ कोई नानकपंथी बाबा (सम्भवतः उदासीन सम्प्रदाय के बाबा की समाधि होगी) दफ़नाये गए थे। लेकिन बाबा खूब सिद्ध और पहुँचे हुए थे।
अब एक क्षेपक उत्तरकाशी पर। उत्तरकाशी की पहाड़ पर वही मान्यता है जो मैदान में काशी की। दोनों को शिव के त्रिशूल पर स्थित बताया जाता है। दोनों ही स्थानों पर शिव मंदिर हैं। यहाँ भी विश्वनाथ मंदिर प्रसिद्ध है। संयोग से इन दोनों ही शहरों की इतनी यात्राओं के बावजूद मैंने दोनों में से कहीं का विश्वनाथ मंदिर नहीं देखा। मैदान वाली काशी औघड़ है। उत्तरकाशी के शिव शांत हैं। वहाँ पर वे तांडव मचाते हैं, उनको याद करने के बहाने काशीनाथ सिंह लैंगिक गालियों से भरा “काशी का असी” लिखते हैं। वैसा तांडव यहाँ नहीं दिखता। किंतु असी गंगा यहाँ भी हैं। यहाँ प्रकृति रौद्र है। गंगा तबाही मचाती हैं, अक्सर भू-स्खलन होता है। 1991 में यहाँ भूकंप ने तो पूरा शहर नष्ट कर दिया था और फिर 2013 ने नष्ट कर दिया। इसीलिए यहाँ मुख्य मार्ग पर डेढ़ किमी लंबी टनल बनाई गई। हर साल कोई न कोई पुल बह जाता है।
उत्तरकाशी हिंदुओं का पुण्य-क्षेत्र है। ग़ैर हिंदू आबादी यहाँ तीन दशक पहले नहीं थी। अब इधर मुस्लिम आबादी ख़ूब बढ़ी है। सब्ज़ियाँ और फल मैदान से आते हैं। उनकी तिजारत मुस्लिम करते हैं। यहाँ सब्ज़ी विक्रेता संघ के प्रधान एक मुस्लिम सज्जन हैं, जो मेरे अपने ज़िले के हैं। इसलिए उनकी मुझसे बड़ी आत्मीयता है। कई वर्ष पहले सब्ज़ी ख़रीदते समय उनकी बोली सुन कर मैंने पूछा, कानइपुर के हौ मियाँ? इतना सुनते ही उनका कसा चेहरा पिघल गया और एक किलो की क़ीमत पर पाँच किलो सब्ज़ी दी। यह होता है, वतन का प्रेम! हालाँकि उत्तरकाशी के चारों तरफ़ पहाड़ के शिखरों पर मुस्लिम बसे हैं। लेकिन वे वन-गूजर हैं। वे गाय पालते हैं और उनका दूध बेचते हैं। पेड़ की रक्षा करते हैं और जंगली जीव-जंतुओं की भी। उनकी धर्म आस्था बस इतनी ही है, कि ख़ुदा को याद कर लेते हैं। इबादत के लिए मस्जिद की उन्हें ज़रूरत नहीं।
हम दरगाह में बैठे थे, तब तक एडवोकेट राहुल गाड़ी लेकर आ गए और हम गाड़ी में बैठ कर नैताला चल दिए।
(जारी)
शंभूनाथ शुक्ल
( Shambhunath Shukla )
गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/10.html
#vss
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