Thursday, 6 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 20.


आतंकवादियों को प्रशिक्षण देना और आम आदमी को आतंकवादी बनाने में अंतर है। जब पाकिस्तान एक कश्मीरी उग्रवादी (या पाकिस्तान के हिसाब से आज़ादी दस्ता) तैयार करती है, तो वह उनमें धार्मिक कट्टरता जगाने के साथ उन पर हुए ज़ुल्मों की याद दिलाती है। अफ़वाहों के पुलिंदे और ‘ब्रेन-वाश’ करने के लिए कुशल वक्ता तैयार किए जाते हैं। भारत के पास ऐसा कुछ नहीं था। भारत एक भारतीय को उन पर हुए अन्याय की दुहाई दे सकता है, लेकिन एक पाकिस्तानी को कैसे समझाए? एक मुसलमान को एक दूसरे मुसलमान की हत्या की प्रेरणा के लिए आखिर कैसा धर्मगुरु बुलाया जाए? 

नतीजतन भारत की सीमा सुरक्षा बल बांग्लादेशी युवाओं को बुझे मन से ही प्रशिक्षण और हथियार दे रही थी। उनमें कई हथियार तो काम के ही नहीं थे। वे अधकचरे गुरिल्ला उग्रवादी पाकिस्तान सेना की गोलियों से तो मर ही रहे थे, उनको शरण देने वाले बांग्लादेशी परिवारों के निरीह बच्चे-बूढ़े भी मारे जा रहे थे। टिक्का ख़ान जैसे खूँखार कमांडर के लिए तो यह मनपसंद शिकार के लिए जंगल सफ़ारी जैसा था। 

इसका उलट प्रभाव यह हुआ कि भारत कुचक्र में फँस गया। पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश के हिंदुओं से बदला लेना शुरू किया, और उन्हें भारत का जासूस मान लिया गया। उन्हें एक-एक कर मौत के घाट उतारा जाने लगा। जैसा पहले कहा है, इंदिरा गांधी अगस्त की सोवियत डील से पहले कोई सैन्य कदम नहीं उठाना चाहती थी। मार्च से अगस्त के मध्य लाखों बांग्लादेशी मारे गए और कई महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो बंगालियों से इस कदर नफ़रत करते थे, कि उन्होंने याह्या ख़ान को भड़का कर सेना को खुली छूट दिलवा दी। 

बांग्लादेशियों के मरने से भारत को सीधी हानि नहीं हुई। हानि तो इस बात से हुई कि बांग्लादेशी भारत में शरणार्थी बन कर आने लगे। उस समय का आँकड़ा है कि सिर्फ मई के महीने में 71 प्रति मिनट के हिसाब से एक लाख बांग्लादेशी प्रति दिन भारत में आ रहे थे। त्रिपुरा जैसे राज्य, जहाँ की जनसंख्या ही पंद्रह लाख थी, वहाँ नौ लाख बांग्लादेशी आकर बस गए थे। 

उनके रहने और खाने का इंतज़ाम भारतीय शरणार्थी कैम्पों को करना पड़ रहा था। कई बांग्लादेशी भारत के अन्य शहरों में नौकरी-चाकरी करते हुए अपनी बस्ती बसा रहे थे। पूर्वोत्तर से लेकर बंबई तक बांग्लादेशियों के कई मोहल्ले बन रहे थे।

इतना ही नहीं, इन कैम्पों में इतनी गंदगी और बीमारियाँ होती कि जल्द ही एक हैजे की महामारी ही पसर गयी। उनकी लाशें भी अब भारत ही ढो रहा था। 

इंदिरा गांधी की चिंता यह भी थी कि जिस गति से बांग्लादेशी हिन्दू पलायित हो रहे हैं, इसे एक सांप्रदायिक मुद्दा न बना दिया जाए। जनसंघ बांग्लादेशी हिन्दुओं पर हुए अत्याचार की कहानियाँ सुना कर उन्हें भारत में स्थायी नागरिकता देने के लिए दबाव दे रहा था। वहीं हिन्दुओं में यह रोष भी उभर रहा था कि पाकिस्तानी सेना नहीं, बल्कि मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं को निकाला जा रहा है।

उस समय इंदिरा गांधी ने जनसंघ नेता अटल बिहारी वाजपेयी से मिल कर इस मसले पर बात की। उन्होंने कहा कि हम सैन्य हल की तैयारी कर रहे हैं किन्तु इस समय देश को सांप्रदायिक अशांति से बचा जाए। अटल बिहारी वाजपेयी ने आश्वस्त किया कि ऐसी कोई भी घटना वह स्वयं जाकर रोकेंगे और सांप्रदायिक दंगों का माहौल नहीं बनने देंगे। मगर जनता कब तक चुप बैठेगी? 

इंदिरा गांधी ने इन कैम्पों का दौरा किया, और लौट कर संसद में कहा, “पाकिस्तान अपनी समस्याओं के हल के लिए भारत की समस्यायें बढ़ा रही हैं। हम पूर्वी पाकिस्तान के शरणार्थियों को अब वापस पाकिस्तान भेजना चाहते हैं। उनकी जगह पाकिस्तान में है, भारत में नहीं। अगर पाकिस्तान कुछ नहीं करती तो यह ज़िम्मेदारी संयुक्त राष्ट्र की है कि हल निकाले।”

रिचर्ड निक्सन ने कहा, “भारतीय ऐसे ‘aggressive bastards’ हैं। मैं तो चाहता हूँ कि वहाँ बहुत बड़ा अकाल और महामारी आए।”

विडंबना थी कि पूर्वी पाकिस्तान में नरसंहार और भारत में महामारी चाहने वाला यह व्यक्ति एक विश्व महाशक्ति का राष्ट्राध्यक्ष था। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास अध्याय - 19.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/19.html
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