“अगर हम पाकिस्तान का नरसंहार रोकते तो हमारे चीन से संबंध नहीं बन पाते। चीन से मध्यस्थता पाकिस्तान ही तो करा रहा था”
- हेनरी किसिंगर
सत्तर का दशक कठपुतलियों का दशक था। हर देश अमरीका या सोवियत की कठपुतली बन गया था। भारत भी। बांग्लादेश जैसे देश तो इस खेल के प्यादे भर हैं।
मुझे किसिंगर-निक्सन के मध्य एक संदेश मिला, “मुजीब को दबाना इसलिए कठिन है क्योंकि एक तो उसका आंदोलन अहिंसक और गांधीवादी है, दूसरा कि पाकिस्तान के पास सैन्य क्षमता नहीं है।”
निक्सन ने क्या जवाब दिया, यह नहीं मालूम। लेकिन तार्किक उत्तर तो यही बनता है कि आंदोलन को हिंसक बना दो, और पाकिस्तान की ताक़त बढ़ा दो। यह बात बाद में जाकर अधिक स्पष्ट हुई जब सीआइए ने शेख मुजीब और उनके परिवार को गोली से उड़ाने में कथित भूमिका निभायी।
याह्या ख़ान भले ही फ़ौजी हों, उनकी छवि एक साधारण व्यक्ति की ही बनती है। मोहनलाल भास्कर ने अपनी किताब में उनके रसिकपन और एक वेश्यालय चलाने वाली रखैल जनरल रानी का खूब चटखारे लेकर जिक्र किया है। वह अपने लेखन में उनके प्रति नरम हैं कि वह पाकिस्तान का मसला सुलझाना चाहते थे, मगर भुट्टो और मुजीब अड़े हुए थे। वह मार्च के महीने में तीन बार ढाका आए, भुट्टो और मुजीब को साथ बिठाया। मुजीब को यह भी कहा कि आपकी जो भी माँग है, वह पूरी की जाएगी। मुजीब इस पर मान भी जाते, मगर ढाका विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और विद्यार्थियों का जत्था उन्हें समझाता कि आप स्वतंत्रता के लिए अड़े रहे।
आखिर याह्या ख़ान ने टिक्का ख़ान को संदेश भेजा, “बास्टर्ड! मान नहीं रहा।”
टिक्का ख़ान इससे पहले बलूचिस्तान में बेतहाशा गोलियाँ चलवा कर वहाँ का राष्ट्रवादी आंदोलन दबा चुके थे। उनको और कोई तरकीब आती भी नहीं थी। उन्हें जनरल डायर जैसों का समकक्ष भी लिखा गया है। उनको बुलाने का मक़सद ही नरसंहार था।
25 मार्च को याह्या ख़ान शेख़ मुजीब से आखिरी बातचीत कर ढाका से निकल गए। उनका निर्देश था कि मेरे पाकिस्तान पहुँचने के बाद ही कुछ करना।
शेख मुजीब को लग गया कि अब युद्ध होगा। उनके लोगों ने कैन्टोनमेंट का घेराव कर लिया कि पाकिस्तानी टैंक बाहर न निकल पाएँ, मगर साधारण बम-बंदूकों से भला क्या मुकाबला करते। टैंकें निकली, जीप पर लगे राइफल निकले, पूरी फ़ौज निकली।
सबसे पहले शेख मुजीब के घर पहुँच उनके अंगरक्षक को गोली मारी गयी, और उनकी खिड़कियों से गोली दागनी शुरू। शेख मुजीब का परिवार बिस्तर के नीचे छुप गया। वह स्वयं दरवाजा खोल कर सामने आ गए और कहा, “मुझे गोली मारने के लिए इतने फ़ौजी क्यों आए हैं। मैं सामने खड़ा हूँ। मारो!”
उनको गिरफ्तार कर संसद ले जाया गया, जहाँ बिठा कर चाय-नाश्ता भी कराया गया।
उसके बाद सेना ने ढाका विश्वविद्यालय को घेर लिया, और प्रोफ़ेसरों को चुन-चुन कर बाहर निकाला गया। उनके पास पूरी सूची थी कि कौन से विद्यार्थी और शिक्षक अवामी लीग के ‘थिंक टैंक’ हैं। उन सबको पकड़ कर बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। यह 25 मार्च का ढाका नरसंहार आज तक बांग्लादेश के इतिहास में दर्ज है, मगर दुनिया के इतिहास में माकूल जगह नहीं मिली।
इंदिरा गांधी ने संसद में कहा, “हमें इस बात से दुख पहुँचा है। किंतु पाकिस्तान के अंदरूनी हिंसा मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ज़िम्मेदारी है।”
सुरक्षा परिषद यानी अमरीका और चीन जैसे देश, जो यह नरसंहार स्वयं ही अपनी आँखों के नीचे करवा रहे थे। वे क्या खाक मदद करते?
रॉ और भारतीय दूतावास पहले से ही शेख मुजीब के संपर्क में थे, और गुप्त योजनाएँ बन रही थी। 31 मार्च को देर रात दो बांग्लादेशी ताजिद्दीन अहमद और अमीरुल इस्लाम घोड़े पर बैठ कर भारतीय सीमा तक आए। सीमा सुरक्षा बल ने उनके हाथ में हथियार देकर अपनी सीमा में ले लिया। यह बात दुनिया को कुछ देर से पता लगी। और शायद यह भी कि भारत किसी और के कहने पर हथियार दे रहा था।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
(Praveen Jha)
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 16
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/16_30.html
#vss
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