ठेकेदारी से अधिक कमाई कहीं नहीं। यह बात खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है कि जब से उनके पिता ठेकेदार बने, दिल्ली के सबसे रईसों में शामिल हो गए। पाकिस्तान ने जब से अफ़ग़ानिस्तान की ठेकेदारी ली, खूब कमाया। जिमी कार्टर ने सोवियत से लड़ाई के लिए मुजाहिद्दीन तैयार करने की एवज में सवा तीन सौ बिलियन डॉलर पाकिस्तान को दिए! रोनाल्ड रीगन ने पाकिस्तान की सैन्य क्षमता को एक नयी ऊँचाई ही दे दी। उसके बाद यह सिलसिला चलता ही रहा। किसी न किसी बहाने पाकिस्तान अमरीका से पैसे ऐंठता रहा। सबसे बड़ी बात कि यह ऐसे गोरखधंधा कॉन्ट्रैक्ट थे, कि इनका कोई हिसाब-किताब विश्व-पटल पर लाना भी कठिन है। क्या कहते? सीआइए और आइएसआइ मिल कर मुजाहिद्दीन तैयार कर रहे थे?
भारत ने भी मुक्तिवाहिनी को प्रशिक्षण दिया था, गुरिल्ला तैयार किए थे, हथियार दिए थे, और पाकिस्तान में घुसपैठ करायी थी। अंतत: बांग्लादेश बना था। मगर इस प्रक्रिया के लिए भारत को किसने कितने बिलियन डॉलर दिए, यह स्पष्ट नहीं। न ही उन डॉलरों से सरकारी ख़ज़ाने में कोई इज़ाफ़ा या बड़े इंफ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट ही नजर आए। जबकि मुजाहिद्दीनों के एवज में इस्लामाबाद में चमचमाती सड़कें तैयार हो रही थी। शीत-युद्ध की असल कमाई तो पाकिस्तान ने ही की।
पाकिस्तान की मनमानी इसी से समझी जा सकती है कि जिमी कार्टर के चेतावनी के बावजूद वे परमाणु बम बनाते रहे। उन्हें आर्थिक प्रतिबंध के लिए भी धमकाया गया। मगर जिया-उल-हक़ ने उनकी एक न सुनी। उन्हें मालूम था जब तक अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत है, अमरीका को उनकी ज़रूरत रहेगी ही। आखिर कार्टर को कहना पड़ा कि अपनी आंतरिक सुरक्षा के लिए पाकिस्तान ऐसे (परमाणु बम से जुड़े) शोध कर सकता है।
बांग्लादेश युद्ध में भारत की बड़ी समस्या लाखों शरणार्थी थे। क्या पाकिस्तान में यह समस्या नहीं आयी? बिल्कुल आयी। दस लाख़ अफ़गानी तो मात्र पख़्तून इलाके में आ गए थे, और लाखों अफ़ग़ानी बलूचिस्तान पहुँच चुके थे।
बलूच ऐसा इलाका है, जो पाकिस्तान का चालीस प्रतिशत क्षेत्रफल है, और जहाँ मात्र पाँच प्रतिशत ही जनसंख्या रहती थी। वे बलूच और पख़्तून वर्षों से पाकिस्तान सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह कर रहे थे। जैसे ही अफ़ग़ानी इन इलाकों में घुसे, और मुजाहिद्दीन कैम्प बनने लगे, यहाँ का माहौल ही बदल गया। अब वे सभी इस जिहाद का हिस्सा थे। बलूच कुछ दिन कुलबुलाए कि अफ़ग़ानी जनसंख्या उनसे अधिक हो गयी है, मगर इस धर्मयुद्ध पर उनके कबीलों की भी सहमति थी।
एक हानि ज़रूर हुई कि पाकिस्तान में नशाखोरी बढ़ गयी, कुछ अपराध (जैसे हत्यायें) भी बढ़ने लगे, युवा जिहादी बनने लगे, घर-घर बढ़िया राइफ़ल या पिस्तौल आने लगे। उसी वक्त कश्मीर में भी अशांति बढ़ने लगी थी। अमरीकी डॉलर से दोनों तरफ़ के मुजाहिद्दीन कैम्प पल-बढ़ रहे थे। हथियारों के साथ समस्या है कि वे आत्मघाती भी हो सकते हैं।
मार्च 1981 में कराची से पेशावर जा रहा एक विमान हाइजैक कर लिया गया। तेरह दिन तक यह हाइजैक विमान कभी काबुल, तो कभी दमिश्क घूमता रहा। मालूम पड़ा कि यह कोई कराची का छात्र टीपू है, जो अपने एक गैंग के साथ पाकिस्तानी विमान को हाइजैक कर चुका है। उनकी शर्त थी कि जिया-उल-हक़ पचास राजनैतिक कैदियों को छोड़ दें। जनरल के मना करने पर जिया-उल-हक़ के ख़ास मेजर तारिक रहमान को गोली मार दी गयी, जो उसी विमान पर थे। जनरल को शर्तें माननी पड़ी और कैदियों को छोड़ना पड़ा।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रही बेनज़ीर भुट्टो ने इस हाइजैक की कड़ी भर्त्सना की। उनके ऐसा कहने का महत्व था। आखिर इस हाइजैक के सूत्रधार उनके अपने भाई शाहनवाज़ और मुर्तज़ा भुट्टो थे।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
(Praveen Jha)
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 34.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/34.html
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