“सोवियत ने आक्रमण कर बिल्कुल सही किया था। अफ़ग़ानिस्तान आतंकवादियों का गढ़ था, जिनका खात्मा ज़रूरी था।”
- डोनाल्ड ट्रंप
साम्यवाद की काट पूँजीवाद नहीं है। यह तो सोवियत-अमरीका शीत-युद्ध से जन्मा जुमला है। पूँजीवाद की आधुनिक व्याख्या बिना कार्ल मार्क्स के अधूरी रह जाएगी, और साम्यवाद भी बिना पूँजीवाद के नहीं टिक पाएगा। आज अधिकांश पूँजीवादी देश समानतावाद की दुहाई देते हैं, और चीन जैसे साम्यवादी देश पूँजीवाद की नींव पर टिके हैं। ये अब एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।
तो फिर साम्यवाद का काट क्या है?
साम्यवाद का काट है धर्म। वही था, है और आगे भी रहेगा। साम्यवाद का द्वंद्व धर्म से है, और धर्म की सत्ता में साम्यवाद आड़े आता है। सोवियत साम्यवाद का अंत धर्मयुद्ध से ही हुआ और इस युद्ध का ऐतिहासिक केंद्र रहा काबुल।
अफ़ग़ानिस्तान दुनिया के सबसे खूबसूरत वादियों में है, जो आज भी मध्ययुगीन जीवन जी रहा है। हज़ारों वर्षों से यह कबीलों, क्षत्रपों, और आपसी युद्धों से त्रस्त है। लेकिन, कुछ समय ऐसे हुए जब यहाँ शांति थी। वहाँ के अंतिम शाह मोहम्मद ज़हीर शाह ने चालीस वर्षों तक शांति से राज किया। 1973 में एक शाही राजकुमार (और पूर्व प्रधानमंत्री) मोहम्मद दाऊद ख़ान ने बलपूर्वक उन्हें गद्दी छोड़ने को मजबूर किया। राजतंत्र खत्म हुआ, और अफ़ग़ानिस्तान एक गणतंत्र बना। उसके बाद वह देश कभी शांत नहीं रह सका।
अफ़ग़ानी एक लड़ाका क़ौम हैं। उनमें वही जुनून दिखता है जो भारतीय इतिहास में राजपूतों की वीर-गाथाओं में है। वे जान दे देंगे, लेकिन सर नहीं झुकाएँगे। सोवियत से उनके संबंध रहे थे। मगर जब सोवियत राष्ट्राध्यक्ष ब्रेझनेव ने 1977 में दाऊद ख़ान को मास्को बुला कर उनकी गुटनिरपेक्षता पर तलब की, तो बात बिगड़ गयी।
उन्होंने कहा, “हम एक आज़ाद देश हैं, और आज़ाद रहेंगे। सोवियत या अमरीका हमें नहीं बताएगा कि हमें क्या करना है।”
सोवियत ने ठान लिया कि इन्हें इनकी औक़ात बतानी होगी। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो भी यही चाहते थे कि अफ़ग़ानिस्तान में अशांति आए। उन्हें यह ख़ौफ़ था कि अफ़ग़ानिस्तान उनसे पख़्तून का हिस्सा कभी भी छीन सकता है। भुट्टो की आआईएसआई ISI और सोवियत की केजीबी KGB ने मिल कर कम्युनिस्ट गुरिल्लों को प्रशिक्षित करना शुरू किया, हालांकि भुट्टो के पैरों तले से अपनी ज़मीन ही खिसक गयी।
कम्युनिस्टों का एक अख़बार ‘परचम’ पूरे अफ़ग़ानिस्तान को सरकार-विरोधी लेखों से उकसा रहा था। उसके संपादक को गोली मार दी गयी, और यहाँ से एक सिलसिला शुरू हुआ। उनकी मृत्यु पर एक बड़ी रैली आयोजित हुई जिसमें मार्क्सवादियों के लाल झंडे काबुल में लहराए।
28 अप्रिल, 1978 को सोवियत समर्थित मार्क्सवादियों का बड़ा जत्था काबुल के राजभवन ‘अर्ग’ में घुसा और ताबड़-तोड़ गोलियाँ बरसानी शुरू की। दाउद ख़ान और उनके परिवार को मौत के घाट उतार दिया गया।
यह ‘सउर क्रांति’ कहलाई। बुरके पर पाबंदी हुई और काबुल की सड़कों पर मिनी-स्कर्ट में बालाएँ घूमने लगी। कम्युनिस्टों ने इस्लाम धर्मगुरुओं को बाहर का रास्ता दिखाया और वे पाकिस्तान की शरण में आ गए। वहाँ इस्लाम के रक्षक जनरल जिया उल हक़ का राज था।
कम्युनिस्टों की सत्ता भी कहाँ टिक पायी! राष्ट्राध्यक्ष तराकी को उनके मुख्य सहयोगी हफ़ीजुल्लाह अमीन ने साज़िशन तकिये से मुँह बंद कर मौत के घाट उतरवा दिया। उसके बाद कट्टर मार्क्सवादी अमीन गद्दी पर बैठे, जो कुछ समय बाद सोवियत का दामन छोड़ अमरीका के करीब जाने लगे।
जब सोवियत को यह भनक लगी तो केजीबी KGB ने अमीन को भी मौत के घाट उतार दिया। उसके साथ ही सोवियत टैंक अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश कर गयी और कठपुतली कम्युनिस्ट सरकार बनी। इसका ख़ामियाज़ा सोवियत को भुगतना पड़ा। अफ़ग़ानिस्तान अपनी अंदरूनी लड़ाइयाँ तो वर्षों से लड़ता आ रहा था, लेकिन जब-जब किसी विदेशी ताक़त ने आक्रमण किया, पूरा देश एक हो जाता। चाहे इंग्लैंड हो, या सोवियत हो, या अमरीका।
अफ़ग़ानिस्तान सोवियत का वियतनाम सिद्ध हुआ। यह न सिर्फ़ सोवियत सैनिकों की कब्र बना, बल्कि साम्यवाद की भी क़ब्र बन गया। ये गड्ढे अमरीका और पाकिस्तान मिल कर खोद रहे थे। इस लड़ाई को एक जिहाद बना कर।
अमरीका ने सोवियत में हो रहे ओलंपिक का बहिष्कार किया, और दुनिया भर की मीडिया में सोवियत निंदा की। मूलत: अमरीका जिहाद की आग में घी डाल रहा था, ताकि वह सिर्फ़ डॉलर भेजें और मुजाहिद्दीन अपनी जान झोंक दें। इस बार उनके डॉलरों का ज़िम्मा पाकिस्तान की आईएसआई ISI ले रही थी, जो इस जिहादी मुहिम को अमली जामा पहना रही थी।
कई मुसलमान युवक और रईस इस जिहाद में अपना तन-मन-धन लगा रहे थे। जैसे, जेद्दा के विश्वविद्यालय से एक बीस-पच्चीस वर्ष का युवक ओसामा बिन लादेन।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
(Praveen Jha)
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 33.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/33.html
#vss
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