Saturday, 15 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 30.


[चित्र में ध्यान दें- अख़बार ने एक नरसंहार को लिखा है ‘Pro American Move’]

सच तो यह था कि दोनों ही देश हारे हुए थे। गरीबी, विदेशी कर्ज, और डूबते संस्थान। इंदिरा गांधी अगर युद्ध न लड़ती तो उनके लिए टिक पाना कठिन होता। उस वक्त तो खैर वह ‘दुर्गा’ थी। यही हाल भुट्टो का था। वह नए पाकिस्तान के ख़्वाब दिखा रहे थे। यह बात तो बाद में पता लगती है कि ‘चलो! नया देश बनाएँ’ जैसे शगूफ़े सिर्फ़ जनता को दिखाए जा रहे सब्ज़बाग़ हैं।

कौन किस की नकल उतार रहा था, यह कहना कठिन है। मगर दोनों ही समाजवाद की राह पर थे। ‘गरीबी हटाओ’ का एक ही नारा दोनों का था। दोनों ही देशों में बैंकों और निजी संस्थानों के राष्ट्रीयकरण किए जा रहे थे। भुट्टो ने स्टील, सिमेंट, रसायन कंपनियों का भी सरकारीकरण कर लिया। वह इसे ‘इस्लामी समाजवाद’ कह रहे थे, और इंदिरा गांधी ने भी लगे हाथ संविधान की प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’ घुसेड़ दिया। यह भी एक सत्य है कि दोनों ही देश अमरिकी खेमे से हट कर अब सोवियत खेमे की ओर झुके हुए थे।

मगर समाजवाद और साम्यवाद के साथ समस्या है कि लोकतांत्रिक रहना कठिन होता है। भुट्टो और इंदिरा गांधी का बुलबुला आखिर फटने लगा। राष्ट्रीयकरण के बाद सरकारी ख़ज़ाने में कुछ इज़ाफ़े दिखे, मगर काम की गति घट गयी। प्रतियोगिता घट गयी। आज दशकों बाद अगर एन.पी.ए. जैसे शब्द गूँज रहे हैं, उसमें एक कारण यह खोखला समाजवाद और राष्ट्रीयकरण भी माना जाता है।

दोनों ही नेताओं ने अपने विरोधियों को दबाना और संविधान में मनचाहे संशोधन शुरू किए। 1975 तक स्थिति बिगड़ चुकी थी। भारत में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, और पाकिस्तान में विपक्षी पार्टी नेताओं द्वारा आंदोलन हो रहे थे। वहीं दूसरी तरफ़ दोनों ही नेता प्रांतीय चुनावों में जम कर धांधलियाँ करवा रहे थे।

इसी कड़ी में शेख मुजीब को भी जोड़ लिया जा सकता है, जो बांग्लादेश में समाजवादी लहर लाकर तानाशाही की ओर बढ़ गए थे। भुट्टो और मुजीब, दोनों ने ही, एक अपनी सेना बनायी जो उनके इशारे पर चलती थी। यह सेना देश की मुख्य सेना से भिन्न थी। इनका काम मूलत: विपक्षियों की हत्या आदि कराना था। इंदिरा गांधी की ऐसी कोई सेना नहीं थी, लेकिन उनके अपने हथकंडे और अपने पुलिसिया चमचे थे जो दमन के लिए तैयार रहते थे।

1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की, वहीं शेख मुजीब ने सभी राजनैतिक दलों और प्रेस को बैन कर दिया, और भुट्टो मिलिट्री शासन की ओर बढ़ रहे थे।

जो भी हो, यह समाजवाद अमरीका जैसे देश के लिए उचित नहीं था। सी.आइ.ए. इन तीनों देशों पर नज़र रख रही थी। इन तीनों का खात्मा अब ज़रूरी हो गया था। शुरुआत छोटे भाई से हुई।

15 अगस्त 1975 की अल-सुबह बांग्लादेशी फौजियों का एक दस्ता शेख़ मुजीब के घर पहुँचा, और उनके बेटे को गोली मार दी। शेख मुजीब जब भाग कर आए, तो उन्हें इस्तीफ़ा देने कहा गया। उन्होंने तुरंत अपने मिलिट्री इंटेलिजेंस के मुखिया को फ़ोन किया। कर्नल आए और फौजियों को वापस लौटने को कहा, मगर उन्हें ही गोली मार दी गयी। उसके बाद शेख मुजीब, उनके बेटे-बहुओं, सभी नौकरों, उनके भाई-भतीजों के परिवारों को ढूँढ-ढूँढ कर मार दिया गया।

दुनिया यह खबर सुन कर हिल गयी!

जब ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने यह सुना, उन्हें भी यह खौफ़ हुआ कि सेना कभी भी उनका यही हश्र कर सकती है। उन्होंने एहतियात के तौर पर एक सियासत से दूर रहने वाले और वरिष्ठता में बहुत ही नीचे (छठे स्थान पर) फौजी को आर्मी चीफ़ बना दिया। उनको यकीन था कि इस तरह उनकी सत्ता नहीं हिलेगी।

वह फौजी दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से पढ़ कर देहरादून से प्रशिक्षित थे, वाकई अंतर्मुखी और सियासी हलकों से दूर थे। लेकिन, हाथ में डंडा आने के बाद उनकी सीरत बदल गयी। भुट्टो द्वारा बिठाए वह फौजी थे- जिया-उल-हक़।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
(Praveen Jha)

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 29.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/29.html
#vss

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